पचाल साल पूरे कर लिए भोजपुरी सिनेमा ने. इस खुशी में मैं भी शामिल हूं. खुशी इसलिए भी है क्योंकि जहां अन्य भारतीय भाषाओं का सिनेमा बॉलीवुड की ताकत से दबासहमा नजर आता है वहीं भोजपुरी सिनेमा बगैर किसी संस्थागत सहयोग के सिर्फ अपने दर्शकों के बूते तन कर खड़ा है. बीते साल भी पचास से ज्यादा फिल्में बनीं और उनमें से कई कारोबारी नजरिए से फायदेमंद रहीं.
भोजपुरी सिनेमा का यह तीसरा बेहतर दौर है, जो 2004 में रिलीज ससुरा बड़ा पइसा वाला की सफलता से शुरू हुआ. कामयाबी के ऐसे दो दौर पहले भी देख चुके भोजपुरी सिनेमा का इतिहास एक गति में नहीं दिखता. दरअसल यह एक ऐसी पहाड़ी नदी की तरह है जो कभी कभी सूख रहे नाले की तरह दुबली पतली दिखती है तो कभी बारिश के पानी से उफनाई नजर आती है. यह उस जंगल की तरह है जहां वनस्पतियों की भरमार तो है मगर जो सुव्यवस्थित नहीं दिखता. अलबत्ता यहां उर्वरता और हरियाली प्रचुरता में दिखती है.
इन पचास सालों में भोजपुरी सिनेमा के योगदान को महज फिल्मों की संख्या और कारोबारी आंकड़ों की भाषा में ही पढ़ना गलत होगा. यह योगदान बहुआयामी है. अगर यूपी और बिहार के छोटे/मझेले शहरों के सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल बंद होकर गोदाम या कॉमर्शियल कॉम्प्लेक्स नहीं बने तो इसका श्रेय भोजपुरी सिनेमा के आक्सीजन को है, जिसने लगातार दर्शक जुटाए हैं. {mospagebreak}
अगर मार्निंग शो में अब पॉर्न फ्लेवर वाली मलयालम फिल्में नहीं दिखतीं तो इसके पीछे भी भोजपुरी सिनेमा है, जिसने सिनेमा हॉल वालों को पहले वाले हथकंडे अपनाए बगैर कमाई कराई. इस बात का समाजशास्त्रीय विवेचन किए जाने की जरूरत है कि मुंबई, दिल्ली और लुधियाना जैसी जगहों पर गए यू.पी. और बिहार के लाखों आप्रवासी कामगारों को अपने 'देस' से कौन जोड़े रखता है. कहना गलत नहीं होगा कि भोजपुरी सिनेमा की जिसमांसलता को बौद्धिक अभिजात्य अश्लील बता कर नाकभौं सिकोड़ता है, उसी ने घरपरिवार से महीनों दूर रहने वाले इन लाखों लोगों की यौन कुंठाओं को अराजक होने से बचाया है.
यह अजीब बात है कि इस विविधताओं भरे देश में जहां सौंदर्य के प्रतिमान इलाकों के हिसाब से बदलते हों वहां मांसलता और सुडौलता को वलगैरिटी बताने लगते हैं. अपसंस्कृति बढ़ी है, हर क्षेत्र में बढ़ी है. दो राय नहीं.
लोकगायकी में भी अब विंध्यवासिनी देवी और शारदा सिन्हा की जगह लोहा गरम बा और तनी सा जींस ढीला कर जैसे घटिया गानों ने ले ली है. पर भोजपुरी सिनेमा को अश्लील नहीं मान सकते. वह भदेस हो सकता है. कभीकभी भौंडा भी. पर अश्लील? नहीं. और अपसंस्कृति. वह तो आत्मावलोकन से ही ठीक होगी. मुझे अच्छा लगा जब हाल ही पटना में भोजपुरी सिनेमा पर एक गोष्ठी में अभिनेता मनोज तिवारी ने कहा कि ''अभी तक हम लोगों को कोई डांटने वाला था ही नहीं.'' {mospagebreak}
कई बार कहा जाता है कि भोजपुरी सिनेमा कन्नड़, तेलुगू, मलयालम या बांग्ला सिनेमा की तरह ठेठ अपना मिजाज अख्तियार करने की बजाए बॉलीवुड के लटकों झटकों की भौंडी नकल करने लगता है. कभी घोड़े, कभी स्टंट, कभी विदेशी लोकेशंस तो कभी चुंबन दृश्य. दरअसल भोजपुरी सिनेमा अभी तक मुंबई से अलग होकर विकसित नहीं हो पाया है. हिंदी फिल्मों के तमाम नाकाम या औसत प्रतिभा वाले लोग भोजपुरी फिल्मों से जुड़ गए. इनकी प्राथमिकता कारोबार और पैसा था.
पर मुझे भोजपुरी सिनेमा के बेहतर भविष्य का भरोसा है. इसकी वजहें हैं. मीडिया से लेकर राजनीति तक, फिल्मों से लेकर विज्ञापन तक. यहां तक कि बाजार तक, सब यूपी और बिहार पर केंद्रित हो रहे हैं. दबंग, राजनीति और आरक्षण जैसी फिल्मों की जमीन कौनसी है?
यही इलाका अब बाजार का भी केंद्र है और सिनेमा का भी. यहां के जर्रेजर्रे में कामयाब सिने कथाएं बिखरी पड़ी हैं. जरूरत इतनी है कि इसे मुंबइया मिजाज की बजाए भोजपुरिया मिजाज वाला सुनाए. हाल के वर्षों में मीडिया और फिल्मों में इस इलाके की सैकड़ों प्रतिभाएं आई हैं. उन्हें चाहिए कि वे ध्यान दें, इन कहानियों से पहचान बनाएं. मैं दो लोगों के काम से बेहद आशान्वित हूं. अनिल अजिताभ नेहम बाहुबली और नक्सल समस्या पर केंद्रित रणभूमि बनाई. नितिन चंद्रा देसवा बना रहे हैं. इनमें नई सोच, नया रंग और तकनीक दिखती है.{mospagebreak}
जरूरत इस बात की है कि गोरखपुर, वाराणसी, छपरा जैसी जगहों पर इन फिल्मों की शूटिंग के बेहतर प्रबंध किए जाएं जो इन इलाकों में रोजगार के साथसाथ प्रतिभाओं के विकास के अवसर भी जुटाएंगे. हमारी सूबाई सरकारों को भी दूसरी प्रदेश सरकारों का अनुसरण करना चाहिए, जो अपनी फिल्मों के लिए तमाम सब्सिडी/सुविधाएं देती है.
महाराष्ट्र में हर मल्टीप्लेक्स में एक मराठी फिल्म दिखाना जरूरी कर दिए जाने के बाद मराठी सिनेमा उद्योग को ताकत मिली है. बालीवुड की मातृ संस्था इंडियन मोशन पिक्चर्स एसोसिएशन (इम्पा) को भी भोजपुरी सिनेमा के लिए कुछ करना चाहिए. मुख्यधारा ने उसके साथ अछूतों जैसा ही व्यवहार किया है. ऐसे अछूत जो समाज के लिए जरूरी तो हैं मगर जिन्हें पंगत में नहीं बिठाते. स्वर्ण जयंती मना रहे भोजपुरी सिनेमा का खुली बांहों से स्वागत होना चाहिए.
लेखक वरिष्ठ फिल्म समीक्षक हैं. यह आलेख कुमार हर्ष के साथ उनकी बातचीत पर आधारित