संजय चौहान 50 वर्ष
पटकथा लेखक संजय चौहान की कहानी दूसरों से कई मायनों में अलग है और दिलचस्प भी. 2000 में मुंबई पहुंचे और दस दिन बाद इंसाफ सीरियल उनके हाथ में था. 2003 में ओम पुरी और रेवती अभिनीत, उनकी लिखी पहली फिल्म आई और चर्चित हुई.
पिछले दिनों आई बाल फिल्म आइ ऐम कलाम हो या पिछले पखवाड़े आई साहेब बीवी और गैंगस्टर, उन्होंने बतौर लेखक अपनी रेंज से चौंकाया है. यही वजह है कि इस दौर के सभी प्रमुख साथी लेखक उन्हें सम्मान से देखते हैं.
कहां तो मैंने गांधी को नहीं मारा (2005) जैसी नितांत गंभीर प्रतीकात्मक फिल्म और कहां अब सन्नी देओल की एक्शन प्रधान घायल रिटर्न्स. एक बड़ी रेंज वाली पान सिंह तोमर हालांकि अटकी पड़ी है.
''मेरे लिए संघर्ष जैसा कुछ नहीं रहा,'' वे साफ करते हैं. सच यह है कि अपने हिस्से का संघर्ष उन्होंने दिल्ली में पत्रकार रहते और फिर दो-एक सीरियल लिखते हुए कर लिया था.
भोपाल में एक साहित्यिक पत्रिका के संपादन के दौरान उन्हें लगा कि और पढ़ना चाहिए. वे जेएनयू पहुंच गए. आलोचक नामवर सिंह के मार्गदर्शन में राजस्थान के लोककथाकार विजयदान देथा की कहानियों पर एम.फिल. किया. मध्य प्रदेश के कॉलेजों में पढ़ाया और देथा की तर्ज पर मध्य प्रदेश भर में गांव-गांव भटके.
साफ सोचः मुंबई के माहौल में ढलने में वक्त नहीं लगा क्योंकि इरादा पक्का करके आए थे. सिर्फ पैसों के लिए कुछ भी कतई नहीं लिखना. यही वजह है कि 11 साल में दर्जन भर चुनिंदा फिल्में कीं.
पढ़ाईः थ्रिलर, पल्प फिक्शन सब पढ़ने की कोशिश करते हैं. तरुण तेजपाल की तीसरी किताब पढ़नी है.
सपनाः 2-3 अच्छी कहानियों पर काम कर रहे हैं. ''सिनेमा के कॉमर्स का ध्यान रखते हुए उम्दा कहानियां कहनी हैं.'' पटकथा फिर से, सलीम-जावेद के दिनों की तरह, केंद्र में आए, उनकी भी कोशिश है.
''मैंने तय कर लिया था कि डीवीडी राइटिंग नहीं करूंगा, अपनी पसंद की कहानियां लिखूंगा. इस सोच के तहत जितना भी हासिल हुआ है, उससे मैं खुश हूं. मुझे किसी तरह का कोई मलाल नहीं.''
संजय पत्रकार रहे होने के अपने अनुभव और लेखकीय संवेदना दोनों का कुशल प्रयोग कर रहे हैं.
जयदीप साहनी, पटकथा लेखक