कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है कि अमिताभ बच्चन जैसा व्यक्तित्व होता तो कैसा होता...
भले ही पहली तनख्वाह 300 रुपये होती, लेकिन एक समय बाद अरबों की हैसियत होती...
भले ही 'जंजीर' से पहले 12 फिल्में फ्लॉप होतीं, लेकिन उसके बाद 'मेगास्टार' की हैसियत होती...
'पद्म विभूषण', 'पद्म भूषण' और 'पद्म श्री' जैसे अवॉर्ड्स मिलते...
73 साल की उम्र में भी फिल्मों से लेकर नए टीवी शो मिलते...
4 दशक से भी ज्यादा का फिल्मी करियर, 180 से भी ज्यादा इंडियन फिल्में, और रुतबा ऐसा कि फ्रेंच सरकार भी अपना सबसे ऊंचा नागरिक सम्मान 'नाइट ऑफ द लीजन ऑफ ऑनर' से
नवाजे.
पहली फिल्म 'सात हिन्दुस्तानी' से लेकर लेटेस्ट टीवी शो 'आज की रात है जिंदगी' तक बच्चन साहब ने जिंदगी में कई उतार चढ़ाव देखे. कभी फिल्में नहीं चलीं तो कभी बिजनेस डूब गया. लेकिन उन्होंने सिनेमा और एक्टिंग को घोलकर पिया है. कल ही अमित जी का इंटरव्यू पढ़ा जिसमें उन्होंने कहा कि 'मेरी उम्र में काम करना बहुत मुश्किल होता है.' पढ़कर लगा कि ऐसी भी क्या मजबूरी? जो हासिल करना था, उससे तो शायद कहीं ज्यादा पा लिया. तो अब रिटायरमेंट ले लें. लेकिन शहंशाह टाइप के लोग रिटायर भी तो नहीं होते.
वैसे जायज सी बात है कि जो समय के साथ बदलता और परिस्थितियों के साथ ढलता जाता है वही लंबी रेस का घोड़ा होता है. 'दीवार', 'जंजीर' और 'कुली' के एंग्री यंग मैन से लेकर 'मोहब्बतें' और 'कभी खुशी कभी गम' के गंभीर पिता तक, बच्चन साहब हर रोल में बखूबी फिट हुए. जो शख्स 60-65 साल की उम्र में 'निशब्द' जैसी फिल्म में 25 साल की लड़की के साथ रोमांस करे या जो शख्स बुढ़ापे में आकर 'पा' जैसी फिल्म में अपने ही बेटे के बेटे का रोल करे, वो शख्स बूढ़ा नहीं होता.
बिग बी जैसे लोग बुड्ढे नहीं होते. इन्होंने तो अपने सामने इंडस्ट्री को बढ़ते देखा है. और बूढ़े बाप का अगर किरदार मिले, तो बच्चन साहब जैसे लोग 'पीकू' जैसी फिल्मों में अपने एटीट्यूड से बाप-बेटी के रिश्ते को नए रंग देते हैं. सच ही है, इंडस्ट्री बूढ़ी हो जाती है, लेकिन बच्चन बूढ़े नहीं होते.