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अनुराग कश्यप: समानांतर सिनेमा को सुपरहिट बनाने वाला शोमैन

नैचुरल बॉर्न किलर्स से लेकर गली गुलियां जैसी फिल्मों तक, इन फिल्मों में प्रोटैग्निस्ट अपने साथ बचपन में हुई घटनाओं के चलते जिंदगी भर प्रभावित रहे हैं. अनुराग कश्यप भी छोटी उम्र में यौन उत्पीड़न का शिकार हुए जिससे उनकी जिंदगी पर असर पड़ा. 8वीं क्लास में सुसाइड पर कहानी लिखना हो या अंतर्मुखी बच्चे के तौर पर समाज के साथ असहजता, इन सभी कारणों ने उन्हें किताबों की तरफ धकेल दिया.

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अनुराग कश्यप
अनुराग कश्यप

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क्या हर तरह का आर्ट पॉलिटिकल है? इस सवाल पर जमाने से बुद्धिजीवी बहस करते रहे हैं. लेकिन अगर भारत के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो आर्टिस्ट्स और सेलेब्स के बीच का दायरा बड़ा है, खासकर बॉलीवुड में. छद्म राष्ट्रभक्ति वाली फिल्मों से एक ब्रांड बनना हो या डूबते करियर की छटपटाहट के बीच सत्ता का हाथ थाम लेने जैसे तमाम उदाहरण हैं जिससे कोई सेलेब्रिटी अपने होने के प्रमाण को साबित करता है.

लेकिन व्यवस्था विरोधी और पॉलिटिकली करेक्टनेस और तीखी साफगोई इसी इंडस्ट्री में जी का जंजाल बन जाता है. ऐसे ही आर्टिस्ट अनुराग कश्यप इसी जंजाल के सवाल बने हुए हैं.

नैचुरल बॉर्न किलर्स से लेकर गली गुलियां जैसी फिल्मों तक, इन फिल्मों में प्रोटैग्निस्ट अपने साथ बचपन में हुई घटनाओं के चलते जिंदगी भर प्रभावित रहे हैं. अनुराग भी छोटी उम्र में यौन उत्पीड़न का शिकार हुए जिससे उनकी जिंदगी पर असर पड़ा. 8वीं क्लास में सुसाइड पर कहानी लिखना हो या अंतर्मुखी बच्चे के तौर पर समाज के साथ असहजता, इन सभी कारणों ने उन्हें किताबों की तरफ धकेल दिया.

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टॉलस्टॉय, काफ्का, आयन रैंड से लेकर श्रीलाल शुक्ल, सरिता, मनोहर कहानियां पढ़ उन्होंने दुनिया को लेकर एक अलग समझ बनाई. उस दौर में तो समझ नहीं आया, लेकिन 93 में हंसराज कॉलेज में जूलॉजी की पढ़ाई के दौरान एक फिल्म फेस्टिवल में साल 1948 की इटली की नियो नॉयर फिल्म बाइसिकल थीव्स ने एहसास करा दिया कि इस सतरंगी दुनिया में अगर अपने आपको अभिव्यक्त करना है तो सिनेमा से बेहतर माध्यम शायद ही मिलेगा. 

स्वीडन के दो म्यूजिशियन्स द्वारा एक ग्रुप बनाया गया है. उनके गानों में अक्सर लिरिक्स नहीं होते हैं बस डाउनटेंपो, एम्बियॉन्ट धुनों के बीच कुछ आवाज़ें आती हैं उन्हीं में से एक सॉन्ग के बोल हैं-

देयर आर नो आंसर्स, ओनली चॉइसेज़...

मुंबई पहुंचने पर अनुराग ने इस लाइन को अपना मंत्रा बना लिया था. पृथ्वी थियेटर में फ्री में वेटर का काम किया और रात का खाना मिलने लगा. मुफ्त में स्क्रिप्ट लिख देते. जितना पढ़ा, समझा सब कलम के सहारे बाहर आने लगा. लेकिन दिन में रोज 100 पेज लिख डालने वाले कश्यप को महेश भट्ट का शानदार ऑफर ठुकराकर रामगोपाल वर्मा से जुड़ने के फैसले ने उनके करियर को नई दिशा दी. वहां से फिल्ममेकिंग की बारीकियां सीखी और ड्रग्स, रॉक एंड रॉल और हिंसा से भरपूर पांच बना ली जो आज तक रिलीज़ नहीं हो पाई. अपने फैसलों के चलते डिप्रेशन में रहे, इंडस्ट्री का रूखापन झेलना पड़ा और पॉलिटिकल ओपिनियन के चलते खूब ट्रोल हुए, मगर अपनी चॉइस, ईमान और विचारधारा से डिगे नहीं जब तक "बॉम्बे वेलवेट" नहीं आई. 

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अनुराग ने अपने संघर्ष के दौरान इंडिया हैबीटेट सेंटर में एक बार कहा था कि "मैंने पहली किताब जो पढ़ी थी वो काफ़्का की 'द ट्रायल' थी. मैंने 17 साल से पहले तक कोई भी अंग्रेजी किताब नहीं पढ़ी थी और ये मेरी पहली अंग्रेजी किताब थी. मैं कभी इस किताब को समझ नहीं पाया, लेकिन वो किताब हमेशा गहरी उदासी की तरह मेरे अंतर्मन से जुड़ी रही. अनुराग के मुताबिक, "अगर आप किसी सिस्टम में काम करें तो वो बेहद Kafkaesque होता है, आप समझ नहीं पाते कि आपके आस-पास क्या चल रहा है और आपके साथ क्या हो रहा है? मुझे समझ नहीं आ रहा था कि ब्लैक फ्राइडे क्यों बैन हुई? मुझे समझ नहीं आ रहा था पांच क्यों बैन हुई? आखिर क्यों मुझे गुलाल बनाने में दिक्कतें आ रही थीं, मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर अपनी बात रखने में इतना डर क्यों है?"

वर्नर हर्जोग की तरह ना तो उन्होंने 350 किलो का वजनी जहाज को सेट पर खींच कर लाने की कोशिश की है और ना ही टिम बर्टन की तरह एक्ट्रेस को डराने के लिए उन्होंने गिलहरियों को ट्रेनिंग दी है. हालांकि स्टैनली क्युब्रिक ने जिस तरह हॉरर फिल्म दि शाइनिंग के लिए अपनी लीड एक्ट्रेस शैली डुवॉल को इतना तड़पाया था कि डिप्रेशन के चलते उनके बाल उड़ने लगे थे उसी तरह अनुराग कश्यप भी अपने कलाकारों को कहानी के खांचे में ढालने के लिए हर संभव प्रयास करते हैं. सैक्रेड गेम्स 2 के लिए नवाजुद्दीन को ठंडे पानी में गोदी में उठाकर फेंक दिया गया था, अगर उन्हें पसंद ना आए तो अक्सर आखिरी समय पर डायलॉग्स और परिस्थितियां बदल जाती हैं जिसके चलते उनके कलाकारों को मल्टीपल माइंडसेट के साथ सेट पर आना पड़ता है क्योंकि अनुराग के लिए अराजकता, अव्यवस्था और कोलाहल में ही हल छिपा है. 

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बलिदान देना कितना जरूरी है ये पंकज त्रिपाठी यानि गुरुजी भी जानते हैं और उनके किरदार को गढ़ने वाले डायरेक्टर कश्यप भी. तभी उन्होंने अपनी फिल्मों के कलाकारों को बलिदान के महत्व से परिचित कराया.

गैंग्स ऑफ वासेपुर के परपेन्डिक्युलर को रोल के लिए कह दिया गया था कि 6 महीनों में अगर जीभ से ब्लेड चलाना सीख जाओगे तो काम मिल जाएगा, रमव राघव 2.0 के लिए विक्की कौशल को साफ कह देना कि सिक्योर बैकग्राउंड के चलते तुम एक डार्क पुलिसवाले का रोल नहीं कर पाओगे और मुक्काबाज के लिए विनीत को 36 साल होने के बावजूद 12 महीनों में प्रोफेशनल बॉक्सर जैसा बनने की हिदायतों ने इन कलाकारों से इनका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कराया.

हालांकि जब अनुराग ने फिल्म तेरे नाम के लिए सलमान को यूपी के आवारा लड़के के तौर पर छाती के बाल उगाने की सलाह दी तो प्रोड्यूसर ने उन पर दारू का ग्लास फेंक कर मार दिया था. अनुराग को फिल्म से अलग कर दिया गया वो अलग बात है कि इसके लगभग आधे दशक बाद अनुराग के भाई अभिनव कश्यप ने सलमान के साथ दबंग बनाई. विडंबना ये भी है कि अनुराग ना सलमान के हो पाए और ना मोदी के, वही अभिनव मोदी समर्थक भी रहे और सलमान के साथ फिल्म भी की.

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अनुराग कश्यप ऑप्टिमिस्क नाहिलिस्ट की श्रेणी से रिलेट कर सकते हैं. उन्हें सिस्टम से उम्मीद भी है, लेकिन उम्मीद भी नहीं. ये द्वंद्व उनकी नियो नॉयर फिल्मों में डार्क एलिमेंट्स के तोर पर देखने को मिलता है. दक्षिणपंथी विचारधारा का देश पर दबदबा या क्लाइमैट चेंज की मुंह बाए खड़ी समस्या हो या अपनी रील और रियल लाइफ में अपनी पॉलिटिक्स को लेकर गलतफहमियां, इन सभी चीजों से दो-चार होने के बाद ही शायद वे एक बार फ्रांस बस जाने की बात कह चुके हैं. लेकिन शायद गायतोंडे की तरह ही अनुराग का बंबई और खासकर सिनेमा को लेकर प्यार ऐसा है जैसे डूबते टाइटैनिक में उस जहाज के बूढ़े कप्तान और म्यूजिशियन्स का अपने अपने शिप के साथ ही खाक-ए-सुपर्द हो जाना.

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