दुनिया का 8वां सबसे ज्यादा आबादी वाला शहर- मुंबई. भारत की अर्थव्यवस्था, व्यापार और मनोरंजन की राजधानी. और साथ ही आतंकवादियों का निशाना भी. 1993 के बम ब्लास्ट से
लेकर, जातीय दंगों तक और 2006 के ट्रेन ब्लास्ट से लेकर 26/11 तक मुंबई ने बहुत कुछ झेला है. इस दर्द, तकलीफ और फिर से खड़े होने के जज्बे को
बॉलीवुड ने भी समेटा है.
हिंदी सिनेमा जगत में तमाम ऐसी फिल्में बनी है जो इस सेंसेटिव मुद्दे के कई अनदेखे चेहरे दिखाती हैं. सबसे पहला बोल्ड स्टेप लिया मनीरत्नम ने 1995 में, फिल्म थी 'बॉम्बे' . इस फिल्म ने तमिल, तेलुगू और हिंदी बॉक्स ऑफिस पर भी धमाल मचाया. इस फिल्म को दर्शकों ने काफी सराहा और ये फिल्म 10 से भी ज्यादा नेशनल लेवल अवॉर्ड बटोर गई.
फिर सच्चाई से थोड़ा परे हटकर एक मसाला फिल्म आई 'कयामत: सिटी अंडर थ्रेट'. 2003 की ये बॉलीवुड फिल्म 1996 की हॉलीवुड फिल्म 'द रॉक की रीमेक' थी. पूरी तरह काल्पनिक, लेकिन मुंबई शहर पर मंडराते खतरे की दहशत को दिखाया.
फिर 2004 में नजर आया आतंक का सबसे खौफनाक मंजर. फिल्म थी 'ब्लैक फ्राइडे' और इसने रातों रात अनुराग कश्यप को एक बेहतरीन डायरेक्टर का खिताब दे दिया. 1993 के मुंबई बम ब्लास्ट पर बनी फिल्म में दहशत का क्या मंजर रहा होगा कि सेंसर बोर्ड ने 2 साल तक इसे इंडिया में रिलीज ही नहीं होने दिया. हम भारतीय प्रेम और शांति को ज्यादा पसंद करते हैं. खून खराबा ज्यादा पचता नहीं है. शायद यही कारण रहा है कि इसे संवदेनशील फिल्म कहकर टाल दिया गया लेकिन कोई अवॉर्ड इसके हाथ नहीं लगा.
साल 2008 काफी जोरदार रहा. एक तरफ थी 2006 के ट्रेन ब्लास्ट दिखाती 'मुंबई मेरी जान', और दूसरी तरफ आंतकवादियों को खत्म करने का बीड़ा उठाता 'अ वेडनसडे' का स्टुपिड कॉमन मैन .'मुंबई मेरी जान' ने ब्लास्ट से प्रभावित 5-6 अलग अलग किरदारों की तकलीफों को पेश किया. निशीकांत कामत ने डेब्यू डायरेक्टर होने के बावजूद भरपूर तालियां और सीटियां बटोरी. दूसरी तरफ अनुपम खेर और नसरूद्दीन शाह जैसे धुंआधार कलाकार भी छा गए.
इस रेस में राम गोपाल वर्मा भी पीछे नहीं रहे. अपनी फिल्मों में कैमरा एंगल, इंटेंस प्लाट्स, लाइटिंग और साइलेंस के लिए पॉपुलर वर्मा ने 2013 में पेश किया 26/11/2008 के मुंबई टेररिस्ट अटैक को. अबू इस्माइल से लेकर अजमल कसाब तक हर किरदार मानो असली था. मुंबई के ज्वाइंट कमिश्नर ऑफ पुलिस के रोल में नाना पाटेकर ने भी भरपूर इंटेंस लुक के साथ एक्टिंग की. रीयल स्टोरी, रीयल पैन और रीयल एंड.
मुंबई शहर अपनी पहचान बनाने के लिए कभी किसी का मोहताज नहीं रहा है. लेकिन इन फिल्मों ने इस शहर को एक अलग ही चेहरा दिखाया. टूटने का दर्द और फिर खड़े होने की हिम्मत का परफेक्ट कॉम्बिनेशन मिला इन फिल्मों में.