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#BoycottADHM 'ऐ दिल है मुश्किल' के बहिष्कार का एक उदार तर्क

पिछले एक हफ्ते से ट्विटर पर ट्रेंड कर रहा है. सरकार ने 'ऐ दिल है मुश्किल' पर प्रतिबंध नहीं लगाया है. सिनेमा एंड एक्जिबिटर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया' ने इस बहिष्कार का आह्वान किया है.

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फिल्म 'ऐ दिल है मुश्किल'
फिल्म 'ऐ दिल है मुश्किल'

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पिछले एक हफ्ते से ट्विटर पर ट्रेंड कर रहा है. सरकार ने 'ऐ दिल है मुश्किल' पर प्रतिबंध नहीं लगाया है. सिनेमा एंड एक्जिबिटर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया' ने इस बहिष्कार का आह्वान किया है. बॉलीवुड की तमाम बड़ी हस्तियां, खासकर आत्मसंतुष्ट अनुराग कश्यप प्रतिबंध और बहिष्कार में इतना उलझ गए कि सरकार पर ही अपनी भड़ास निकाल डाली, मानो सरकार ने ही प्रतिबंध लगाने का ऐलान किया हो. इसी कोलाहल के बीच असहिष्णुता और 'अभिव्यक्ति की आजादी' पर एक बार फिर झूठी बहस शुरू हो गई.

यही कारण है कि ऐसा लग जा रहा है कि 'ऐ दिल है मुश्किल' का बहिष्कार करना कट्टरता का प्रदर्शन करने जैसा है. कुछ स्वयंभू उदारवादी इसे ऐसा ही रंगने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसा समाज जो गारंटी के साथ विचारों के प्रचार की आजादी देता हो, वहां कोई नागरिक या समूह एक फिल्म न देखने की अपील कर सकता है. इस तरह के विचार एक उदारवादी लोकतांत्रिक लोकाचार में तर्कसंगत हैं. साथी नागरिकों से बहिष्कार की अपील करने और सरकार से प्रतिबंध लगाने की प्रार्थना करने के बीच का अंतर बेहद सरल और स्पष्ट है. सरकार से प्रतिबंध लगाने की गुहार एक लोकतांत्रिक अधिकार है, लेकिन एक संरक्षक राज्य से साथी नागरिकों को कोई फिल्म देखने या न देखने देने की इजाजत मांगना अनावश्यक है. सरकार द्वारा अपनी मर्जी से प्रतिबंध लगाना पूरी तरह से अलग और इस संदर्भ में असंगत है.

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पाकिस्तान सीधे और पर्दे के पीछे रहकर भारत से युद्ध लड़ रहा है. हाल में उरी सेक्टर में हुए आतंकी हमले ने पूरे राष्ट्र का ध्यान केंद्रित किया है. इस साल में ही भारत ने जम्मू-कश्मीर में हुए हमलों में अपने 71 वीर जवानों को खोया है. कई नागरिकों की जानें गईं, न जाने कितने ही परिवार तबाह हो गए. कोई भी नागरिक इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि देश की रक्षा कर रहे जवानों के कारण ही वो एक सुरक्षित माहौल में आजादी से जी रहे हैं. सरहद पर तैनात जवानों से एकजुटता दिखाने और दुश्मन देश को चुनौती देने के लिए प्रतिकार के रूप में फिल्म के बहिष्कार की अपील करना गलत नहीं है. (प्रतिकार, हालांकि अपने आप में बुरा माना जाता है, उन सिद्धांतों में से है जिस पर कारावास से लेकर मौत की सजा के कई कानूनी मसौदे तैयार किए गए हैं)

एक दुश्मन देश से नफरत की जा सकती है जिसके परिणामस्वरूप उसके नागरिकों को भी उनकी सरकार के कार्यों में सहभागी मान लिया जाता है. ऐसा करना उन लोगों के खिलाफ एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है जो हमारी जिंदगी को मुश्किल में डालते हैं. लेकिन, उस फिल्म का बहिष्कार करना जिसमें पाकिस्तानी कलाकारों ने काम किया है क्योंकि हम उस देश से नफरत करते हैं उदारवादी सिद्धांतों के विपरीत है. ये भी कहना गलत नहीं है कि आम पाकिस्तानी भारत से जंग नहीं चाहता है जैसी दलील 'अमन की आशा' के कार्यकर्ताओं ने भी रखी है. ये एक ऐसा सत्य है जो अपनी नैतिकता खो चुका है क्योंकि संदेहात्मक विश्वसनीयता वाले लोग इस तर्क का इस्तेमाल अपने निजी हितों के लिए करने लगे हैं.

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ये एक पहेली ही है कि कैसे भारतीय जो उदारवादी सनातन धर्म का अनुसरण करते हैं, खुद को अंधा कर लेते हैं कला की खूबसूरती या कहें कि वाणिज्य के धर्मनिरपेक्ष वैराग्य से वो भी महज इसलिए क्योंकि ये उन लोगों द्वारा मिल रहा है जो हमारे साथ अनुकूल नहीं हैं. क्या दुश्मन देश की कला की सराहना करना या उनके द्वारा उत्पादित माल की खपत अनैतिकत है? वसीम अक्रम की गेंदबाजी की तारीफ न करना या राहत फतेह अली खान की आवाज में खोकर उसे अनसुना करना असंभव है. यही पीड़ादायक सत्य भी है. क्या कला और ज्ञान का परित्याग कर देना महज इसलिए क्योंकि वो विपक्षियों से मिल रहे हैं प्रतिभा विरोधी नहीं है? ये धर्मसंकट बिल्कुल वैसा ही है जैसा भगवत गीता में लिखा गया है.

सवाल उठता है कि क्या दुश्मन के लिए नफरत से परे जाकर एक फिल्म का जिसमें फवाद खान अभिनय कर रहे हैं सैद्धांतिक और सूक्ष्म विरोध हो सकता है. यदि गौर किया जाए तो समझ पाएंगे कि ये विवाद दरअसल, उदारतावाद बनाम राष्ट्रवाद का है. और अगर इस तरह सवाल किया जाए, तो कोई भी इसे काले और सफेद की तरह देखेगा और अंत में उसे ही चुनेगा जो सफेद लगता हो (क्योंकि दूसरे हमेशा गलत होते हैं और काले!). लेकिन 'उदारवादी' और 'राष्ट्रवादी' का वेन आरेख अलग नहीं है. बल्कि ये एक दूसरे से जुड़ा हुआ है. आप एक उदार राष्ट्रवादी हो सकते हैं. देशप्रेम और सत्य साथ-साथ चल सकते हैं फिर चाहे वो दुनिया के किसी भी कोने से क्यों न हो. विशेष रूप से भारत में जहां सनातन धर्म हमें चुनने के लिए कई तरह के विकल्प देता है. तमिल के विद्वान डॉ. ग्नना सुंदरम ने हाल ही में कहा है कि 'हिंदी न सीखना हिंदी के लिए नुकसानदायक नहीं है पर आपके लिए है.' इसी प्रकार कला और बेहतर उत्पाद का उपयोग न कर पाना हमें केवल गरीब बनाता है.

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धार्मिक तरीके से समझने के लिए कि क्यों हमें बहिष्कार करना चाहिए और हमारे नैतिक जगत में ये कहां सही बैठता है? बहिष्कार एक अंतिम कार्रवाई और एक विचार प्रक्रिया का परिणाम है. लेकिन हमारे विचारों के पीछे की नीयत ज्यादा महत्वपूर्ण है. गीता से लेकर कांत तक गैर परिणामवाद ने नैतिक वजन प्रदान किया है. कैसा हो अगर युद्ध के समय के दौरान एक संदेश भेजने की विधि के रूप में फिल्म का बहिष्कार किया जाए न कि इसलिए क्योंकि उसमें दुश्मन देश का कलाकार शामिल है. यदि बहिष्कार का आह्वान इस तरीके से किया जाता तो यकीनन अधिक नैतिक वैधता के साथ तर्क रखा जा सकता है. एक नागरिक अपने साथी नागरिकों से युद्धरत देश के कुलीन वर्ग से लागत लगाने का आग्रह कर सकता है. इस प्रकार सिद्धांत रूप से एक व्यक्ति सहिष्णु और ज्ञान की सराहना करने वाला बन सकता है लेकिन कला का एक लंबी अवधि के लिए बहिष्कार एक उदार आदेश को बढ़ावा देगा. बहिष्कार के परिणाम मुमकिन है कि अधिक कला के लिए शर्तों का निर्माण करें. उत्पादों व सांस्कृतिक आयोजनों का बहिष्कार दुश्मन समाज के अभिजात वर्ग पर लागत लगाएगा. अगर किसी फिल्म, पाकिस्तान के साथ क्रिकेट या सीमेंट के आयात को रोका जाएगा तो इसका सीधा असर कुलीन वर्ग यानि कलाकारों और व्यवसाइयों पर पड़ेगा. इससे ये संदेश जाएगा कि अब पहले जैसा व्यापार नहीं होगा. वो व्यापारी वर्ग जो राजनीतिक पार्टियों को फंडिंग करता है. पाकिस्तानी आर्मी से सांठगांठ के साथ चल रहे व्यापार पर भी इसका असर पड़ेगा. इस तरह वो अपने राजनीतिक संरक्षकों के साथ लॉबिंग के लिए मजबूर हो जाएंगे और अपने स्वार्थ से बाहर आकर आतंकवाद को रोकने की पैरवी करेंगे. ये दुनिया को बेहतर बनाने के लिए एक स्वभाविक प्रयास है. ये ऋचा चड्ढा जैसे उन तमाम लोगों के तर्कों का जवाब है जो पूछते हैं कि 'क्या फिल्में बैन करने से आतंकवाद खत्म होगा.'

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धर्मा प्रोडक्शन और उन जैसे उन तमाम लोगों का क्या? क्या जंग जैसे हालातों में पाकिस्तानी कलाकारों के साथ काम करना उनके लिए उचित है? क्या वह खुद को पहले देश का नागरिक नहीं समझते? या वह खुद को 'विधाता/रचनाकार' मानते हैं जिनका पहला कर्तव्य कला के प्रति है? क्या वह उस समाज के प्रति उदासीन हो सकते हैं जो उन्हें अपनी कला को आगे बढ़ाने की आजादी व अवसर प्रदान करता है? क्या जिसे रॉबर्ट रै 'आपसी जिम्मेदारी का क्षेत्र' कहते हैं वो उससे बाहर है? बॉलीवुड को लेकर अनुमान लगाने के बीच हमें इसे कलाकारों के विवेक और नैतिकता पर छोड़ देना चाहिए. मनसे द्वारा दी जा रही धमकी और दबाव हमारे गणतंत्र को एक अच्छा उदाहरण नहीं बना रहा. उनके कार्यों से यदि देश को पैसों का नुकसान या कानून व्यवस्था पर बुरा असर पड़ता है तो शायद कलाकारों की आजादी को ध्यान में रखते हुए इस समस्या के लिए एक कानून तैयार किया जा सकता है. (इस समय यह जान लेना भी जरूरी है कि पूर्ण स्वतंत्रता एक भ्रम है. थॉमस होब्स के सामाजिक अनुबंध सिद्धांत, लोको और रूसो हमें ये ही सिखाते हैं कि समाज में शांतिपूर्ण जीने के लिए थोड़ी सी स्वतंत्रता का व्यापार करना पड़ता है)

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हर पीढ़ी पर उनके समय और समाज द्वारा एक नैतिक परियोजना थोपी जाती है. हमारे समय में ये परियोजना राष्ट्रवाद है. जैसा कि गांधी जी ने कहा है 'हम हवाओं को बहने की अनुमित तो देते है लेकिन उसमें खुद को बहने नहीं देते'. हमारे देश और धर्म को बचाना जरूरी है क्योंकि इसमें दुनिया को बहुत कुछ देने की क्षमता है. यह सोच तभी मजबूत हो सकती है जब हमारा अभिजात वर्ग राजनीति से थोड़ी दूरी बना ले और हमारे सामने जंग के लिए तैयार मुल्क के खिलाफ खड़ा हो. एक बेहतरीन समाज का निर्माण एक दूसरे पर भरोसा करके ही किया जा सकता है.

अपने दुश्मन में अच्छाई ढूंढने के लिए हद से ज्यादा उदारवादी भी नहीं होना चाहिए. यहां तक कि प्रखर राष्ट्रवादी कवि सुब्रमण्यम भारती ने भी लिखा है कि 'हे अच्छे दिल, दुश्मन को भी दुआ दे'. हर किसी को नैतिकता के आधार पर बहिष्कार की पैरवी करने का अधिकार है. झूठे उदारवादियों की मंडली को केवल कट्टरता ही दिख सकती है चूंकि उदारता के सिद्धांत सही अर्थों में बहिष्कार के विरोध से महरूम हैं. उन लोगों के स्तर तक गिरने की जरूरत नहीं है जो भारत से नफरत करते हैं या जो कला की दुनिया के आतंकी हैं ( जिनके लिए नाना पाटेकर ने 'नकली लोग' की उपाधि दी है). वक्त आ गया है उन्हे आइना दिखाने का, उदारता और अभिव्यक्ति की आजादी के प्रति उनकी असहिष्णुता को बेनकाब करने का.

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भानुचंदर नागराजन राजनीतिक विश्लेषक और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं.

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