अपूर्व बहुत आरामपसंद हैं. दो साल में एक फिल्म बनाते हैं और ढेर सारी शोहरत, तारीफें और पैसा लेकर कहीं घूमने निकल जाते हैं. कुछ वक्त अपने साथ बिताते हैं. कभी कुछ करते हैं और कभी कुछ भी नहीं करते हुए रहना पसंद करते हैं. मिशन इंस्तांबुल के बाद वह अपने ताजातरीन फिल्म जंजीर को लेकर चर्चा में हैं. पेश है अपूर्व से उनकी फिल्मों से लेकर बचपन, निजी जीवन, प्रेम और संघर्ष तक पर हुई लंबी बातचीत के कुछ अंश:
जंजीर की रीमेक बनाने का आइडिया आपका था ?
ओरिजनल आइडिया मेरा नहीं था. मुझसे फिल्म डायरेक्ट करने के लिए कहा गया. बेसिक स्क्रिप्ट मेरे हाथ में आई. कहानी का आइडिया जरूर पुरानी जंजीर से उठाया गया था, लेकिन उसमें बहुत सारे बदलाव हो गए थे. कहानी ऑयल माफिया के इर्द-गिर्द घूमती थी. विजय, माला और शेरखान के कैरेक्टर में भी बहुत बदलाव हो गए थे.
यानी कहानी को डेवलप करने में आपकी कोई भूमिका नहीं रही.
ऐसा भी नहीं है. मैंने आगे स्क्रिप्ट को डेवलप करने के लिए काफी रिसर्च की फिल्म ऑयल माफिया पर थी और रिसर्च करते हुए इसके तार भारत से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक फैले हुए मिले. बनी-बनाई कहानी पर फिल्म बनाने के मुकाबले रिसर्च का काम हमेशा ज्यादा चैलेंजिग होता है. मजा भी आता है. जैसे शूटआउट एट लोखंडवाला के लिए मैंने किसी जर्नलिस्ट की तरह महीनों रिसर्च की, पुलिस स्टेशनों के चक्कर लगाए, सिपाही से लेकर थानेदार और बड़े पुलिस अधिकारियों तक के इंटरव्यू किए.
फिल्म बनने से पहले ही विवादों में फंस गई थी. सलीम खान ने निर्माताओं से छह करोड़ की मांग की थी. वह मामला सुलझा क्या?
मैं सलीम साहब की बहुत इज्जत करता हूं. लेकिन ये लीगल मामला है और ये मेरा सिरदर्द नहीं है. मुझे इस बारे में कोई जानकारी नहीं है.
पुरानी जंजीर का बोझ तो बहुत होगा सिर पर. हर कोई आपकी तुलना प्रकाश मेहरा से करेगा ?
अभी तक है बोझ. मुझे तो अभी भी डर लग रहा है. शुरू में भी लगा था, लेकिन उस डर से मैंने पैर पीछे नहीं खींचे. ज्यादा उलझन हुई तो मां से बात की. मां ने भी यही कहा कि इसे एक चुनौती की तरह लो.
आप लोगों को संजय दत्त की कमी खल रही होगी. फिल्म रिलीज हो रही है और इसे देखने के लिए वो यहां नहीं हैं?
हम सभी को उनकी कमी बहुत खल रही है. हम दोनों कसौली के लॉरेंस स्कूल में साथ पढ़े हैं और बहुत अच्छे दोस्त हैं. संजू बाबा कमाल के इंसान हैं. मैं उनका बहुत बड़ा फैन हूं.
फिल्म को बॉक्स ऑफिस और दर्शकों पर छोड़ देते हैं. चलिए कुछ आपके बारे में बात की जाए.
मेरे बारे में क्या बात करेंगी. मैं तो खुली किताब हूं. 45 साल का हो गया हूं, सिंगल हूं, खुशहाल हूं. मजे करता हूं, मजे में रहता हूं.
सिंगल क्यों? कोई मिली नहीं या शादी में विश्वास नहीं है?
दोनों ही कह सकते हैं. मुझे किसी के कंट्रोल में रहना पसंद नहीं. कोई भी काम करने के लिए किसी की इजाजत लेनी पड़े, किसी को अच्छा या किसी को बुरा तो नहीं लगेगा, ये सोचना पड़े तो ये मुझे बिलकुल बर्दाश्त नहीं. दुनिया में कोई ऐसा पैदा नहीं हुआ, जो मुझे कंट्रोल कर सके. मैं आजाद प्राणी हूं. अपने हिसाब से जीता हूं, अपने मन की करता हूं. शूटआउट एट लोखंडवाला फिल्म बनाने के बाद मैं एक साल के लिए कुकिंग का कोर्स करने के लिए न्यूयॉर्क चला गया था. अब शादीशुदा होता तो ये कैसे मुमकिन होता. इसके अलावा मैं एक तलाकशुदा परिवार से हूं. बचपन में ही मेरे मम्मी-पापा का डिवोर्स हो गया था. सिंगल मॉम ने मुझे पाला है और मैंने अपने जीवन का काफी समय बोर्डिंग स्कूल में गुजारा है. जब मैं सात साल का था, मुझे पढ़ने के लिए सनावर के लॉरेंस स्कूल में भेज दिया गया था.
अकेलापन नहीं लगता? तय कर लिया है क्या कि अब कभी शादी नहीं करेंगे?
बिलकुल अकेलापन नहीं लगता. मैं अनमैरिड हूं, अलोन नहीं. मेरी एक रिलेशनशिप थी, जो चल नहीं पाई. अभी भी अकेला नहीं हूं, रिलेशनशिप में हूं. ढेर सारे दोस्त हैं. उनके साथ वक्त बिताता हूं, घूमता हूं. अकेलापन महसूस करने की फुरसत किसके पास है. ये भी तय नहीं है कि शादी कभी नहीं करूंगा. अगर कभी की भी तो उसकी वजह सिर्फ बच्चे होंगे. क्योंकि बच्चे को फैमिली में मम्मी–पापा दोनों की जरूरत होती है. उसे फादर का नाम चाहिए. बहुत आगे बढ़ने के बावजूद इस मामले में हमारा समाज आज भी बहुत कंजर्वेटिव है. शादी करने की इसके अलावा कोई दूसरी वजह नहीं हो सकती.
जब फिल्में नहीं बना रहे होते तो क्या करते हैं ?
दिन भर घर में अपने कुत्तों के साथ बिस्तर पर पड़ा रहता हूं. सोता हूं, खाता हूं, टीवी देखता हूं, फिर सो जाता हूं. घर से बाहर न जाना हो तो रात में नौ बजे नहाता हूं. खा-पीकर फिर सो जाता हूं. मुझे बिना कुछ किए पड़े रहना अच्छा लगता है.
आपकी पहली फिल्म आई थी 2003 में और अब छठी फिल्म 2013 में. सिंगल हैं, फिर भी इतनी कम फिल्में बनाईं?
मैं बहुत आलसी हूं. आराम-आराम से काम करता हूं. मुझे हर साल एक फिल्म बनाने की न जरूरत है, न शौक. इतना हाहाकार क्यों मचाना. शांति से सोओ, खाओ, पियो, घूमो, मौज करो और दो साल में आराम से एक फिल्म भी बना लो. दूसरे मैं अकेला आदमी हूं. कोई जिम्मेदारी तो है नहीं कि उसके लिए ढेर सारे पैसे कमाने की जरूरत हो. कोई महंगे शौक मैंने पाले नहीं कि उठकर गए और 25 लाख की घड़ी खरीद लाए. फिल्म में रामचरन ने जो घड़ी पहनी है, 10,000 रुपये की, मैंने वही ले ली. संतोषी इंसान हूं. थोड़े में मेरा काम चल जाता है.
क्या पूरी दुनिया और सोसायटी की तरह बॉलीवुड भी बदल रहा है?
बिलकुल और यह बदलाव बहुत पॉजिटिव है. अब आर्ट और कमर्शियल फिल्मों का फर्क खत्म हो गया है. पहले 'अल्बर्ट पिंटों को गुस्सा क्यों आता है' या 'सलीम लंगड़े पर मत रो', जैसी फिल्मों का दर्शक बहुत सीमित था. आज दिबाकर, अनुराग की फिल्में डिफरेंट जोनर की होने के बावजूद आर्ट फिल्में नहीं हैं. उन फिल्मों का एक बड़ा दर्शक वर्ग है. हमारे दर्शक भी मैच्योर हुए हैं.
हमेशा से फिल्म मेकर ही बनना चाहते थे?
हां, फिल्मों के प्रति दीवानापन तो स्कूल के दिनों से ही था. मैं खूब फिल्में देखता था. जंजीर भी तभी देखी थी. लेकिन यहां तक पहुंचने की राह बहुत कठिन रही है. आप कहीं भी जाइए, संघर्ष तो होता ही है. लेकिन फिल्मी दुनिया आपको एक झटके में जमीन से उठाकर आसमान पर बिठा सकती है तो दूसरे ही झटके में आसमान से जमीन पर भी गिरा सकती है. मैंने फर्स्ट ईयर में ही कॉलेज छोड़ा, कूरियर ब्वॉय का काम किया, रेस्टोरेंट में काम किया, जाने कहां-कहां नहीं भटका, जगह-जगह की धूल छानी, तब कहीं जाकर अमेरिका पहुंचा. वहां भी फिल्मों में काम मिलना आसान नहीं था. वहां मैंने बार टेंडर का काम किया. बहुत लंबी कहानी है कि कैसे एक फिल्म प्रोड्यूसर से मेरी मुलाकात हुई और कैसे मैं मीरा नायर और आंग ली तक पहुंचा और उनके साथ काम करने का मौका मिला.
एक कूरियर ब्वॉय से हॉलीवुड में मीरा नायर और आंग ली का असिस्टेंट बनने की आपकी कहानी भी किसी फिल्मी ड्रामे से कम नहीं है.
तो आपको क्या लगता है कि फिल्म की कहानी कमरे में बैठकर सोचने से आती है या सिर्फ इमैजिनेशन हैं. जिंदगी में ड्रामा है, इसलिए फिल्मों में ड्रामा है.
फिल्म मेकर नहीं होते तो क्या होते?
कुक, किसी होटल में शेफ होता. मुझे कुकिंग का बहुत शौक है.