ऊपर वाले जाले से भरे स्टोर रूम में रखा एक संदूक है. उसे खोलता हूं तो उसमें एक पुलिस वाले की याद है. 'शूल' का पुलिस इंस्पेक्टर समर प्रताप सिंह. बाहर ईमानदार, पापा के शब्दों में कहूं तो 'डेड ऑनेस्ट'. घर पर बिटिया और उसकी मम्मी. मम्मी जो रेस्तरां में जाकर रेट लिस्ट देख कहती है, 'बहुत महंगा है', लेकिन समर बोलता है, 'आप ऑर्डर कीजिए न. हम कभी आपको किसी चीज के लिए मना किए हैं.'
आखिर में यही समर विधानसभा में एक बाहुबली की कनपटी पर बंदूक रखने के बाद भी कमोबेश याचना के स्वर में नेताओं से कहता है, 'कुछ कीजिए. बाहर जो जनता है, वह आपसे बहुत उम्मीद लगाए है.'
मगर असल में कुछ नहीं होता. बाहुबली घूरे पर उगे जहरीले मशरूम से फैलते जाते हैं. समर भी वैसा कहां रहा. वह 'राजनीति' के फेर में वीरेंद्र प्रताप सिंह बना. उसे सत्ता परी सी पसंद थी. उसके लिए उसने सब कुछ किया. 'तेवर' में एक कदम और आगे. बाहुबल के साथ सुंदरी की सनक भी लग गई. गजेंद्र सिंह को किसी भी कीमत पर मथुरा के घाट पर राधा का नाच करने वाली राधिका चाहिए. इसके लिए पहले तो वह बिल्कुल बालक की तरह हॉट की चिप्पी लगी जींस पहनकर जाता है. शर्माते हुए बात रखता है. बात नहीं बनती तो चोट खाए सांप सा हो जाता है.
हमने अपने शहरों, कस्बों में ऐसी कितनी कहानियां सुनी हैं. बहनों को दोपहर में डेक चलाकर ड्रॉइंग रूम के पर्दे लगाकर नाचने की इजाजत तो थी, लेकिन नाचने या खेलने के शौक को बड़े मंच पर ले जाने की नहीं. एक अनकहा डर था कि किसी गजेंद्र की नजर पड़ गई तो. कॉलेज और बाजार जाना भी मुश्किल हो जाएगा. इस समाज में अकसर कोई युवा अपराधी किसी शरीफ मास्टर, दुकानदार या किसान की लड़की के पीछे पड़ जाता है. कभी शादी कर मान मर्दित कर घर में डाल लेता है, कभी उसे फांसी पर लटकने को मजबूर कर देता है, तो कभी ट्रॉफी की तरह साथ रखता है.
समर अब नहीं बनते. गजेंद्र हर कोई बनना चाहता है, तमाम बुराइयों के बावजूद. क्योंकि उसमें पाने की ताकत है. बिना किसी प्रयास के. बस चाह लेने भर से. उसके लिए निजी तौर पर विशेष प्रयास नहीं करने पड़ते.
और उनके सामने चारे सी पड़ी लड़कियों में कोई किस्मत वाली राधिका होती है. वह भागने का साहस दिखाती है. उसे सफर में पिंटू मिल जाते हैं. मगर भारतीय समाज की सच्चाई यह भी है. गजेंद्र से बचाने के लिए पिंटू चाहिए. राधिका अभी खुद नहीं बच पाती. और पिंटू की मछलियों वाली बांह के पीछे छिप ही उसे अपने प्यार की खोज भी पूरी होती दिखती है. दिल का कोलंबस लंगर डाल देता है. यहां फतवा जारी होता है. मर्द वही, जो अपनी औरत की रक्षा करे. आप समझते नहीं हैं. इसके फेर में संतुलन निपट जाता है. और लड़का माचो बनने की फिक्र करने लगता है. बाहुबली इसी जंगल का एक कोना है. दलदल सा.
वैसे एक कोना झरबेरी के झुरमुट का भी है. इसे राधे भइया की बगिया कह सकते हैं. तेरे नाम के राधे भइया. बीच की मांग. कसा कसा कसरती बदन. घर वालों से पटती नहीं. इज्जत है, मगर दिल में. और हां. जो कोई लड़की को छेड़े, उसको ये राधे तोड़े. वही रक्षक सिंड्रोम. फिर एक रोज एक सहमी सी हिरनी झुटपुट के वक्त झुरमुट में आ खड़ी होती है. और जंगल बगीचा बनने लगता है. संवरने लगता है. सजने लगता है.
एक बात और. ये हम कब तक मां को बताते रहेंगे. पैसे चाहिए हों या परांठे. अब तो पूरी की पूरी पीढ़ी बदल गई. मगर बाप लगता है कि अभी उसी सांचे से बनकर आ रहे हैं. न गुम्मा बदला है न भट्टा. जैसे पापा बनते ही पल्स पोलियो की तरह उत्तर भारतीय मध्यवर्गीय पुरुषों को कोई ड्रॉप पिला दी जाती है. अपने बेटे से अकड़कर बात करो. उसे पढ़ाई न करने के लिए सुनाओ. बताओ कि किसी काम के नहीं बनोगे. भैंस चराओगे. रिक्शा चलाओगे.
और जब वही बेटा नाम ऊंचा करे. तो पीठ पीछे दोस्तों के सामने मुस्कुराहट की एक चवन्नी खर्च कर देंगे. बेटा आएगा तो उस मुस्कान पर चिक का पर्दा डाल देंगे. बालक बदल चुके हैं. बाप भी बदलें अब तो. कब तक हर कोई डीडीएलजे वाले पुच्ची कोक्का पापा की लालसा से पर्दा बुझते ही फारिग हो जाएगा.
एक नियम सिनेमा में यूं भी बनाया जाए. हीरो हीरोइन और विलेन. यानी सबको. कम से कम एक फ्रेम में तो बिना मेकअप दिखाया जाए. इससे यामी जी की फेयर एंड लवली टीम भले ही गुस्सा हो जाए. शबनम ब्यूटी पार्लर और साजन जेंट्स सलून की आय पर भी कुछ चोट पड़े. मगर आंख खुलेगी. ये खुलेगी और लोगों को दिखेगा. कि हीरो हिरोइन भी हमारे आपके जैसे होते हैं. किसी का माथा बड़ा होता है, तो किसी की जांघें हाथी सी होती हैं. तो चिंता करो. मगर लुक्स की नहीं. सेहत की. वर्ना लुक लुक करते रहो. तेवर नहीं आएगा.
अभी आ रहा है याद. वो एक सीन. जब गजेंद्र भइया पत्रकार को धमकी देने घर जाते हैं. मगर दरवाजे खुलते ही एक लड़की नमूदार होती है. जैसे जद्दन बाई के घर पर नरगिस आई होगी. बेसन फेंटती. और राज कपूर सारी कलाकारी भूल गए होंगे. तेवर में यही लड़की कुछ घंटे पहले राधिका थी. रास की कल्पना सी सुंदर, आप से ऊंची, मंच पर थिरकती. मगर यहां ऐसा नहीं था. घरेलू कपड़ों में वह नितांत स्वाभाविक थी. और इसलिए ओस में भीगी श्यामा तुलसी सी. सांवली सी पवित्र और हाथ की पहुंच के भीतर लग रही थी. जिस दिन सिनेमा के सितारों को हमने पहुंच के भीतर ला दिया. उस दिन सुंदर और चमत्कारी दिखने का दबाव कम हो जाएगा. सिनेमा पर भी. समाज पर भी.
एक आखिरी बात. इसे माध्यम की ताकत कहें या हमारी कमजोरी. फिल्म सनन हो या सिलबिल्ली. हीरो जब गुंडा बदमासों को थुरता है. खासतौर पर लड़की की खातिर. वह भी यूं ही बिना जान पहचान के. तो भीतर से असीस बरसता है. एक ऐसा भाई नजर आता है, जो हम होना चाहते थे. मगर हो न पाए. जिसे छेड़खानी देख गर्दन यूं करीने से घुमानी पड़ी. गोया हमने ये अन्याय होते देखा ही न हो. देख लेते तो पिंटू की तरह मार हाकी बल्लम फेंट देते वहीं.