जब जागो, तभी सवेरा. मेरा सवेरा बुधवार दोपहर 2.50 पर हुआ. इस वक्त मैं नोएडा के स्पाइस सिनेमा में सुपर डुपर टुकर टुकर फिल्म एमएसजी देखने के लिए दाखिल हुआ. फिल्म क्या है. एक रुहानी यात्रा है, जिसे हर इंसां को देखना चाहिए. 3 घंटा 17 मिनट बाद जब आप बाहर निकलते हैं. तो सब कुछ बदला हुआ लगता है. जैसे अभी अभी लव चार्जर से अनप्लग हुए हों. ये स्मार्टफोन की बैटरी के 100 फीसदी चार्ज होने का नोटिफिकेशन देखने की खुशी सा है.
बहरहाल, अब अपन फिल्म क्रिटिक के धर्म का निर्वहन करते हैं. हिंदी में आज तक तीन ही महान फिल्में हुई हैं. मुगल ए आजम, शोले और एमएसजी. पर चूंकि महान फिल्में भी इंसां ही बनाते हैं. तो उसमें कुछ कमी रहना लाजिमी है. ऐसी ही कुछ कमियां एएसजी में भी हैं. जिनकी तरह इशारा करने की इस लेख में विनम्र कोशिश की जाएगी.
1. प्रधानमंत्री का मजाक उड़ाना: फिल्म एमएसजी में एक भ्रष्ट नेता है. उसका नाम है चिलम खुराना. उसका चुनाव निशान है चिलम. वह वैसे तो गुरमीत राम रहीम इंसां को पिता जी कहता है, मगर असल में उनसे खुन्नस पाले रहता है. वह अपने माफिया नेटवर्क के जरिेए गुरुजी को मारने की कोशिश भी करता है. खैर, मसला ये है कि एक सीन में चिलम खुराना के समर्थक दिखाए जाते हैं. उन्होंने हाथ में नारों की तख्ती ले रखी है. और इस तख्ती पर लिखा है, सबका साथ, सबका विकास. अब ये तो सब जानते हैं कि ये बीजेपी नेता और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नारा है. और यह भी सब जानते हैं कि एमएसजी की रिलीज के दौरान हुए सारे विरोध और विवाद को धता बताते हुए हरियाणा की बीजेपी सरकार और केंद्र की मोदी सरकार ने दृढ़ निश्चय का परिचय दिया है. ऐसे में प्रधानमंत्री के इस नारे की खिल्ली बीजेपी समर्थकों को अखर सकती है.
2. शंकर और कृष्ण के साथ तुलना: फिल्म के शुरुआती सीन्स में से एक है यह. स्टेडियम में एक विराट रथ है. भक्त इसे खींचने की कोशिश करते हुए धराशायी हो जाते हैं. चहुंओर निराशा का माहौल है. तभी मोर पंखों के झुरमुटे के पीछे बाबाजी नजर आते हैं. वह अकेले ही रथ को खींचने लगते हैं. इस दौरान उनका बाना भी मोर मुकुट मकराकृत कुंडस सा है. इससे कृष्णभक्त आहत हो सकते हैं. इसी तरह एक जगह बाबाजी गुंडे बदमाशों से फाइट कर रहे हैं. और पृष्ठभूमि में भगवान शंकर की स्तुति बज रही है. इससे शिवभक्तों के रूठने की आशंका पैदा होती है. और ऐन उसी पल मुझे पीके को शंकर जी का मजाक उड़ाने वाली फिल्म बताने वालों का मासूम चेहरा याद आता है. कहां हैं आजकल ये लोग.
3. फिल्म में एक विशुद्ध तकनीकी खामी: सिनेमा में एक टर्म होता है कंटीन्यूटी. मसलन, हीरो पीला पैंट पहनकर पटरी पर भाग रहा है. भागते भागते वह एक गली में घुस
जाता है. तो जब वह गली से बाहर निकलेगा तो आप उम्मीद करेंगे कि उसकी पैंट पीली ही बनी रहे. मगर इस फिल्म में एक जगह नेता चिलम खुराना का साला ड्रेस की इस निरंतरता में
अवरोध पैदा करता है. साला मजाकिया स्वभाव का है. अंदर से बाबाजी का भक्त भी है. जब वह देखता है कि तमाम गुंडे बाबाजी के डेरे में मौजूद महिला तक बम नहीं पहुंचा पा रहे हैं.
तो वह इस कार्य को संपादित करने का फैसला करता है. इसके लिए वह बाबाजी की एक गोद ली हुई बेटी के शादी समारोह में साड़ी पहनकर जाने का निश्चय करता है.
मगर ये क्या. बाबाजी की बेटी तो स्टोरी को फ्लैशबैक में ले गई. यहां वह अपनी दुखभरी कथा सुना रही है बाकी बहनों को. कि कैसे वह एक कोठे में कैद थी. उससे वेश्यावृत्ति कराई जाती थी. मगर बाबाजी उसे और तमाम लड़कियों को बचाकर ले आए. लेकिन बाबा के इस महान कृत्य को बदमाशों से मिले कुछ टीवी चैनल उलटे ढंग से दिखाते हैं. वह दिखाते हैं कि कैसे बाबा रेडलाइट एरिया में देखे गए. टीवी पर यह सीन देखकर चिलम और उसके गुर्गों के चेहरे पर खुशी का करंट दिखने लगता है. और यहां मौजूद साले ने साड़ी पहन रखी है. मगर ये सब तो बीती हुई बातें हैं. जिन्हें कन्या सहेलियों को सुना रही थी. और साले को साड़ी आज के दिन पहननी है. जो कि वह पहनता भी है.
4. फिल्म को किस तरह से देखा जाए: प्योर वर्क ऑफ फिक्शन की तरह. जिसकी सूचना किसी भी फिल्म की शुरुआत से पहले स्क्रीन पर आती है. या फिर सत्य तथ्य कथा की तरह. फिल्म में गुरमीत राम रहीम इंसा के कराए काम दिखाए बताए जाते हैं. ब्लड डोनेशन कैंप. पांच करोड़ फॉलोअर्स का दावा. सिरसा में आश्रम. आश्रम में अन्न दान. पर इसके साथ ही बाबा को कई अलौकिक काम करते हुए भी दिखाया जाता है. मसलन, हाथ से करेंट छोड़ना. सर्जेई बुबका से भी कई गुना ऊंची जंप लगाकर दीवार के पार जाना. या फिर गुरुत्वाकर्षण को धता बताकर बाइक समेत हवा में ऊंचा, बहुत ऊंचा उड़ना. अगर कोई सुपरहीरो यह काम करता तो कहानी उसे उसी तरह बयां करती. मगर बाबाजी तो खुद ही कहते हैं. कि वह इंसां हैं. इस गुत्थी का जवाब आखिर में मिलता है. जब सब फिल्म खत्म हो जाती है. क्रेडिट वाली लिस्ट भी निपट जाती है. तब स्क्रीन पर लिखकर आता है कि फिल्म में जो चमत्कार दिखाए गए हैं. उनका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है. पर अफसोस, तब तक जनता जा चुकी होती है. मैं अकेला जूते का फीता बांधने के फेर में पीछे छूटा इंसा स्क्रीन पर आई इस सूचना को देख स्तब्ध रहता हूं.
चूंकि एमएसजी का दूसरा हिस्सा भी जल्द आने वाला है. इसलिए मैं एक अच्छे इंसा की तरह यह उम्मीद करता हूं कि अगला चार्जर ज्यादा दुरुस्त होगा. पर दूसरों की क्या कहूं. अपने प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल की एक बात याद आ रही है. कि भारत आहत होने वालों का देश है. यहां तो आहत भावनाओं के लिए एक आयोग बना देना चाहिए. हर चीज, ख्याल और काम की कसौटी यही आयोग होना चाहिए. क्या इस आयोग में बाबाजी की यह फिल्म ठहर पाएगी.