मैं तो बहुत छोटी थी. धुंधली धुंधली याद है. पर मेरी मां मुझे कहानी सुनाती है कि शाहरुख तो हमारे घर में भी जन्मा है. इस शाहरुख ने 80 से भी ज्यादा फिल्में नहीं की तो क्या, पर अपनी गर्लफ्रेंड को गुलाब देने से लेकर मां के आंसू तक पोंछे हैं. फिल्मी दुनिया के बादशाह तो वो ही शाहरुख हैं जो पद्मश्री के साथ 14 फिल्मफेयर अवॉर्ड जीतकर बैठा है. लेकिन बचपन से लेकर आज तक मैंने लाखों शाहरुख देखे हैं. गलियों में, स्कूल में और अब ऑफिस में. जानबूझकर हकलाकर मेरा नाम लेते हुए. थोड़ा चिपकू लेकिन पॉजिटिव रोल में. मेरे दुख में रोते, मेरी खुशी में हंसते और हरे भरे खेतों में नाचने को हमेशा तैयार.
ऐसा ही शाहरुख मेरे घर में भी बड़ा हुआ मेरे भाई के रूप में. मां को याद है 1992 को वो दिन फिल्म 'दीवाना' रिलीज हुई थी. फिल्म से इतना प्रेरित था मेरा भाई कि 'फौजी' सीरियल के पुराने एपिसोड जुटाने में लग गया था. फिर 1993 में 'डर' और 'बाजीगर' और 1994 में 'अंजाम' जैसी फिल्मों का कुछ ऐसा असर हुआ मेरे भाई पर कि उसे ये कहते सुना है 'वो या तो मेरी होगी या किसी की नहीं'. लेकिन किंग खान जैसे हीरो निगेटिव रोल में जी नहीं पाते. दिल के साथ. हिरोइन के लिए जान देने वाले टाइप. दुनिया से लड़ जाएंगे लेकिन तुम्हे पाकर रहेंगे. उधर पर्दे पर किंग खान सुधरे, और इधर घर में मेरा भाई.
लेकिन वो लड़का कभी तो इतना शेरदिल होता था कि सिमरन के बाप से अभी जाकर शादी की बात कर ले, और कभी इतना बिंदास के राहुल बनकर फ्लर्ट करता फिरे. मुझे लगता था कि मैं शाहरुख की फिल्में क्यों देखूं, जब मेरे घर में फ्री की एक नौटंकी 24 घंटे चल रही है. हालांकि 'कभी खुशी कभी गम' की तर्ज पर ना तो मेरे भाई ने घरवालों के खिलाफ शादी की और न ही 'देवदास' की तरह दारू पीकर मोहल्ले में हमारा नाम खराब किया.
फिर एक दौर था जब उमर ढलने लगी. उधर शाहरुख को कॉलेज ड्यूड वाले हीरो के रोल कम मिल रहे थे और घर पर मेरे भाई की शादी के रिश्ते आ रहे थे. रास्ता सिर्फ एक बचा था. दोनों ने ही देशभक्ति को चुना. 'स्वदेश' से लेकर 'चक दे इंडिया' और 'माई नेम इज खान' तक हमारे घर में भी शांति रही. लेकिन आईपीएल के मैच में कोलकाता नाइट राइडर्स की तरफ से चिल्लाते हुए खान साहब ने जब जब 'कोरबो लोड़बो जीतबो' चिल्लाया, शांति हमारे घर की गई. इधर शाहरुख ने अमिताभ बच्चन से 'कौन बनेगा करोड़पति' छीना, उधर मेरे भाई की मेरे पापा से तन गई.
लेकिन दिल दरिया से लेकर फौजी और सर्कस तक खान साहब ने हमेशा हमें गुदगुदाया. फिर फिल्म आई 'मोहब्बतें'. पर मेरे भाई और पापा के बीच की दूरियां ना मिट सकी. दूरियां मिटी भी तो 'वीर जारा' के बाद. तब मेरे पापा को भी भाई की सच्चाई दिखी. शाहरुख ने हमेशा एक शिक्षा दी कि अपना देश और वहां की लड़कियां तो सहज कर रखने के लिए हैं.
'जोश' में थोड़ी गुंडई हो गई लेकिन शाहरुख और उनके फैन्स कभी भी नुक्कड़ पर सिगरेट पीते नहीं पाए गए. राहुल बनकर फ्लर्ट तो खूब किया लेकिन बाल बढ़ाकर लफंडर दोस्तों के साथ मारपीट नहीं की. फिर जब इंडस्ट्री में नए नए हीरो आने लगी तो मेरी कॉलोनी में भी मेरे भाई को टक्कर देने और लड़के जवान होने लगे. लाजमी था कि शाहरुख के साथ साथ मेरे भाई ने भी 8 पैक एप्स बनाने शुरू कर दिए.
सफर लंबा था. पेचीदा. संघर्ष भरा. लेकिन एक क्लास हमेशा बनाए रखा. अपनी बादशाहत बरकरार रखी. इसलिए तो मैंने कहा कि इंडस्ट्री में तो सबने देखा है, लेकिन मैंने अपने घर में शाहरुख को रोज देखा है.