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आखिरी साँस तक गाना चाहती हूँ: आशा भोंसले

‘आखिरी साँस’ तक गाते रहने की चाहत प्रकट करते हुए सुप्रसिद्ध पार्श्व गायिका आशा भोंसले ने कहा है कि तकनीक के बढ़ते प्रभाव के कारण आज का फिल्म संगीत अपनी रूह खोज रहा है.

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‘आखिरी साँस’ तक गाते रहने की चाहत प्रकट करते हुए सुप्रसिद्ध पार्श्व गायिका आशा भोंसले ने कहा है कि तकनीक के बढ़ते प्रभाव के कारण आज का फिल्म संगीत अपनी रूह खोज रहा है.

वक्‍त के साथ संगीत में काफी फर्क आया है
राजधानी में एक कार्यक्रम में शिरकत करने आईं आशा ने विशेष बातचीत में कहा ‘मैं आखिरी साँस तक गाना चाहती हूँ.’ उनसे पूछा गया था कि कब तक गाते रहने का इरादा है. मजाकिया लहजे में उन्होंने कहा ‘एक ज्योतिषी ने मुझे बताया था कि मैं 8 साल और जीवित रहूँगी लेकिन गाने के बारे में पूछने पर उन्होंने कुछ नहीं कहा तो समझ लीजिए कम से कम आठ साल अभी और गाऊँगी.’ छह दशक में फिल्मी संगीत में आए बदलाव के बारे में उन्होंने कहा ‘वक्त के साथ संगीत में काफी फर्क आया है. ‘नया दौर’ से लेकर ‘रंगीला’ के बीच में संगीत में तकनीक का दखल काफी बढ़ गया है और वर्तमान समय का फिल्मी संगीत बिना रूह के इनसान की तरह हो गया है.’ उन्होंने कहा ‘आजकल का फिल्मी संगीत सुनकर ऐसा लगता है कि संगीत अपनी रूह को खोज रहा है. बेताल को ताल में ढाला जा रहा है और बेसुरे को सुर में ढाला जा सकता है लेकिन भावनाएँ किसी भी सूरत में नहीं ढाली जा सकती हैं.'

पढ़ाई के बिना कोई संपूर्ण नहीं सकता है
आशा ने कहा ‘वर्तमान संगीत को सुनकर बुजुर्ग से लेकर किशोर तक कोई भी इनसान थिरकने लगता है. नाचना अच्छा है, लेकिन हर वक्त नाचना अच्छा नहीं लगता है. खासतौर से मैं तो बिलकुल भी पसंद नहीं करती हूँ.’ राहुल देव बर्मन के बारे में आशा ने कहा कि उनका गाना सिखाने का तरीका सबसे अलग था. वे गायक को ‘नर्वस’ नहीं होने देते थे. उन्हें पता था कि गायक को किस तरह गवाना चाहिए और बड़े ही प्यार से गायक से गीत गवा लेते थे. अपने शौक के बारे में पूछे गए एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि पढ़ना उनका सबसे बड़ा शौक था. एक जमाना था कि वे पूरी-पूरी रात किताब पढ़ती रहती थीं. उन्होंने कहा कि पढ़ने से बुद्धि समृद्ध होती है और पढ़ाई के बिना कोई भी इनसान संपूर्ण नहीं हो सकता है. ज्ञान बहुत बड़ी दौलत होती है.

विदेश में करूंगी अपना एलबम रिलीज
उन्होंने कहा कि बिना स्कूल जाए उन्होंने आज जो कुछ भी हासिल किया है उसके पीछे उनके पढ़ने के शौक का बहुत बड़ा हाथ रहा है. अपने नए एलबम के बारे में उन्होंने कहा कि हिन्दुस्तान में टेलीविजन और रेडियो बेहतर संगीत को प्रसारित ही नहीं करता है इसलिए वे अपना एलबम विदेश में लाँच करेंगी. आशा ने कहा कि एक जमाने में सुख और दुःख, विरह और मिलन एवं वक्त के मुताबिक गीत लिखे जाते थे और उसी भावना से गाए भी जाते थे, लेकिन अब तो फिल्मी गीतों से कोई भाव निकालना बेहद मुश्किल हो गया है. अपनी गायकी के बारे में उन्होंने कहा ‘स्टूडियो में गाने के लिए जाने के पहले मैं साफ कह देती हूँ कि 3 से 4 घंटे के पहले बाहर नहीं आऊँगी. जल्दी बाहर आने से गाने का ‘ताँता’ टूट जाता है.’

आजकल ज्‍यादातर गीतों के बोल अच्‍छे नहीं होते
वर्तमान संगीतकारों के बारे में पूछे गए प्रश्‍न के उत्तर में उन्होंने कहा कि प्रीतम, मोंटी, शंकर-एहसान-लॉय अच्छा कर रहे हैं, लेकिन ये चाहें तो और भी अच्छा कर सकते हैं. फ्यूजन म्यूजिक के बढ़ते प्रभाव के बारे में उन्होंने कहा कि यह न तो अपना ही रहता है और न पराया ही रह जाता है. न तो भारतीय शास्त्रीय संगीत ही रह जाता है और न ही पश्चिमी संगीत का शुद्ध रूप रह जाता है. हालाँकि उन्होंने उम्मीद जताई कि उन्हें ऐसा लगता है कि आजकल के बच्चे अपने संगीत की तरफ वापस लौट रहे हैं. उनके घर में और परिचितों में कई बच्चे हैं, जो नृत्य और संगीत की हमारी सदियों पुरानी विरासत के वारिस बन रहे हैं. आधुनिक फिल्मी गीतों के बारे में टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि आजकल ज्यादातर गीतों के बोल अच्छे नहीं होते. हालाँकि लिखने वालों की कमी नहीं है, आज भी गुलजार, जावेद अख्तर और समीर जैसे कई अच्छे गीतकार बॉलीवुड में हैं.

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