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शाहिद कपूर की कबीर सिंह: झल्लाओ या खीझो, मगर फिल्म छोड़कर भाग नहीं सकते

फिल्म कबीर सिंह को लेकर हर तरफ बहस हो रही है. कोई नायक से खफा है तो कोई नायिका के किरदार पर सवाल उठा रहा है. कई लोग फिल्म में महिलाओं के चित्रण पर सवाल उठा रहे हैं और इसे पुरुषवादी फिल्म करार दे रहे हैं.

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कबीर सिंह का पोस्टर
कबीर सिंह का पोस्टर

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फिल्म कबीर सिंह को लेकर हर तरफ बहस हो रही है. कोई नायक से खफा है तो कोई नायिका के किरदार पर सवाल उठा रहा है. कई लोग फिल्म में महिलाओं के चित्रण पर सवाल उठा रहे हैं और इसे पुरुषवादी फिल्म करार दे रहे हैं. मगर कुछ तो ऐसा है कबीर सिंह में कि आप वो पूरी फिल्म देखे बिना हॉल से बाहर आ नहीं सकते.

फिल्म के पहले सीन की बात करें तो कबीर सिंह की दादी अपने पोते का घुमा-फिराकर इंट्रोडक्शन देती हैं. लेकिन यहां दादी कुछ भी ऐसा नहीं कहती जिससे आपकी नजर में वो हीरो अपने किरदार से जरा भी डगमगा जाए. फिर दूसरे सीन्स में आपके सामने आता है ऐसा आदमी जो फिल्म का हीरो है. लेकिन ये क्या.... वो हीरो जिस्मानी जरूरत के लिए महिलाओं की तलाश कर रहा है. तमाम कोशिशों के बाद जब उसके लिए औरत मुहैया नहीं हो पाती तो वो समाज की परवाह किए बिना अजीबोगरीब हरकतें करता है.

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अब इन दृश्यों से दर्शक अपने हीरो में इतनी बड़ी खामी देखकर उसे अपने पास से हटाकर कुछ-कुछ ग्रे शेड में रंगकर थोड़ा दूर रख देते हैं. फिर अगले कुछ सीन्स में दर्शकों को फिर पता चलता है कि वाह, उनका हीरो तो बहुत बड़ा सर्जन है. जो बहुत सफल है. वो एक बार फिर पुरानी वाली खटास छिटककर उसे अपनाने की कोशिश में लग जाते हैं. दर्शक डॉ. कबीर सिंह के वुमनाइजर वाले रूप को भुलाने लगते हैं. अब उन्हें अपने हीरो का सेंस ऑफ ह्यूमर, उसका ड्रेस सेंस, उसके पंगे, झगड़े, हिम्मत सब पसंद आ रहा होता है. कबीर सिंह के ये सब गुण युवा दर्शकों को जोड़ने लगते हैं. अपने हीरो के ज्यादा गुस्सा करने वाली आदत से चिंतित भी हो रहे हैं. इस तरह फिल्म का करीब एक घंटा उस हीरो को अपना हीरो मानने और न मानने की जंग में गुजर जाता है.

अब अगले पड़ाव में होती है एक्ट्रेस की एंट्री, ये एंट्री उस वक्त होती है जब सीनियर रेजिडेंट डॉक्टर कबीर सिंह आत्मसम्मान से भरे जिंदादिल हीरो के रूप में दर्शकों के काफी करीब आ चुका है. हालत ये है कि कॉलेज में सबका फेवरिट और फेमस हो चुका कबीर अपने आत्मसम्मान के कारण कॉलेज छोड़ने का भी डिसीजन तक ले चुका है. मगर उसका दिल उस सफेद सूट में अभी अभी कॉलेज आई सीधी-सादी भोली भाली लड़की पर आ जाता है. यहां वो कॉलेज छोड़ने का ख्याल दिल से निकाल देता है.

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अब, एक बार फिर दर्शकों में कबीर सिंह की वो छवि दस्तक देती है, जिसमें वो महिलाओं के मामले में इस हद तक पागलपन पर उतारू दिखता है कि शुरुआती एक दृश्य में अपने फ्रेंड से फोन पर कहता है कि उसको (लड़की) मेरे पास घर पर भेज दो जो (कभी एक दिन) तुम्हारी क्लीनिक में मेरी तारीफ कर रही थी. कुल मिलाकर यहां फिर दर्शकों की सोच के एकदम उलट होता है. वो हीरोइन से प्यार तो करता है, मगर वासना से ऊपर उठकर. यहां के कुछ दृश्यों में वो कुछ मिनटों तक खोल से बाहर आने की कोशिश में फिर से इंडियन हीरो की इमेज में घुस जाता है.

अब बात करते हैं हीरोइन की. हीरोइन से परिचय की जिज्ञासा भी दर्शकों में अगले तमाम दृश्यों की तलाश बढ़ा देती है. अगले दृश्यों में दर्शक के तौर पर वो सोच रहे हैं कि उनका हीरो आज के युग का हीरो है. ऐसा हीरो जो आज के युवाओं के एटीट्यूड और डे‍यरिंग रवैये को भी मात देता दिख रहा है. अब  दर्शक उस हीरोइन में बहुत कुछ उम्मीद तलाशता है. मसलन कबीर सिंह जब कैंपस में ये घोषणा करता है कि ये (हिरोइन) मेरी बंदी है. दूसरे लड़के जो कबीर के दोस्त हैं वो भी उस लड़की की ओर इशारा करके दूसरों को बताते हैं कि वो कबीर की बंदी है. लेकिन मजाल है कि वो लड़की पलटकर प्रतिकार कर दे.

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हर आने वाले दृश्य में लोग अपनी हीरोइन में कुछ 'आग' ढूंढ़ रहे हैं. या शायद हमें इसकी आदत ही पड़ गई है कि हम हीरोइनों में पलटकर बोलने की फितरत देखने के आदी हो गए हैं. लेकिन ये कहने में कोई गुरेज नहीं कि फिल्म यहां भी कैरेक्टर में झांकने की मंशा और नई स्टोरी की तलाश में बंधी हुई है.

फिर तीसरे घंटे में खुशी, रोमांस, प्यार के लम्हों के बाद बारी हीरो-हीरोइन की स्टोरी को नया मोड़ देने की आती है. वहां भी दर्शक मन शायद किसी बड़े यू टर्न की सोच रहा था, लेकिन नहीं यहां भी उनका हीरो फेल होता दिख रहा है. वो हीरो अब दर्शकों के बीच अजीबोगरीब तराजू पर बैठा नजर आ रहा है. लड़की पर पूरी तरह हावी वो लड़का सामाजिक तानेबाने से हार जाता है. अब अगले दृश्यों में उस हीरों में कभी दर्शक एक गुस्सैल, बदतमीज और नशेड़ी छिछोरा लड़का देखते हैं तो कभी अपनी खराब आदतों से परेशान वो होनहार आदमी जो उनके आसपास के उदाहरणों में वो देख चुके हैं.

हीरोइन के कहीं और शादी कर लेने के बाद लोग समझ नहीं पाते कि वो कबीर सिंह से सहानुभूति करें या ये कहें कि अच्छा हुआ कि लड़की इससे नहीं ब्याही गई. खैर, कहानी कैसी भी हो, लोग कुछ भी कहें लेकिन सच्चाई यही है कि फिल्म में हीरो के बदलते शेड से लेकर फिल्म का मसाला जैसे कि गीत संगीत, फिल्मांकन, रोमांस सबकुछ ऐसा बराबर मात्रा में मिलाया गया है कि आप पूरी फिल्म देखे बिना बाहर नहीं आ सकेंगे. हां बाहर आकर भले ही सोच सकते हैं कि बताओ कैसा हीरो है जिसने पूरी फिल्म में अपनी नई भाभी से 'हैलो' तक नहीं किया.

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कैसा हीरो है जो अपने इतने प्यारे दोस्त को कुछ नहीं समझता. कैसा हीरो है जो हीरोइन के डेडिकेशन को समझता ही नहीं, कितना नॉन सोशल है हमारा हीरो.

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