घृणा की राजनीति और मॉब लिंचिंग की घटनाओं ने देशभर में किस तरह का माहौल तैयार किया है इसका जीता-जागता सबूत हमने थियेटर में देखा. महसूस किया कि बंटवारे की एक दीवार परस्पर अविश्वास की नींव पर कितनी मजबूत और ऊंची होती जा रही है. यह भी देखा कि पहनावा और रंग-ढंग चीजों को तय कर रहा है. कैसे?
दरअसल, इस वीकेंड हम कुछ दोस्त मिलकर सिनेमा देखने की योजना बना रहे थे. हमारे सामने बहुत सारे विकल्प थे. चार अच्छे विकल्प. एक ही हफ्ते में जब आपके पसंदीदा कलाकारों की कई फिल्म हो तो किसी एक फिल्म को चुनना काफी मुश्किल हो जाता है. हम दोस्तों के सामने भी ऐसे ही हालात थे. हमें अनिल कपूर-राजकुमार राव और ऐश्वर्या की "फन्ने खान" इरफान की "कारवां" और ऋषि कपूर-तापसी पन्नू के अभिनय से सजी मुल्क में से किसी एक को चुनना था.
मैं पेशे से एक पत्रकार हूं, स्वाभाविक तौर पर संवेदनशील चीजें प्रथमदृष्टया आकर्षित करती हैं. तीनों फिल्मों में जिस तरह से 'मुल्क' की चर्चा थी, हमने इसे ही देखने का फैसला लिया. हालांकि हमारे कुछ दोस्तों ने अपनी रुचियों के हिसाब से दूसरी फिल्मों को तरजीह दी. अपने एक मुस्लिम दोस्त के साथ ईस्ट दिल्ली के मल्टीप्लेक्स में 'मुल्क' देखने पहुंच गया. मेरे दोस्त ने जींस और शर्ट पहना हुआ था जबकि मैंने काले रंग का पठानी सूट. थियेटर में घुसने से पहले तक ऊपर बताई बातों के बारे में दूर-दूर तक कल्पना भी नहीं की थी. लेकिन अंदर जिस तरह का माहौल मिला, ड्रेस की वजह से एक आशंका को लेकर मैं लगभग असहज हो गया.
सिनेमा हॉल में लग रहे नारों से असहजता
हमने देखा कि थियेटर में 10-20 लड़कों का एक समूह भी फिल्म देखने पहुंचा था. राजधानी के पढ़े-लिखे लड़कों का समूह. मॉब लिंचिंग करने वाली कोई भीड़ नहीं. थियेटर में राष्ट्रगान बजा. हम दोनों ने भी कृतज्ञ नागरिक की तरह खड़े होकर राष्ट्रगान का सम्मान किया. फिल्म शुरू हुई. हमने पाया कि थियेटर में हमारी सीट के पीछे (सबसे पीछे) दो पुलिसवाले भी बैठे हैं. लगा- "हमारी तरह वो भी फिल्म देखने आए होंगे." जिन्होंने 'मुल्क' नहीं देखी है वो इसकी कहानी संक्षेप में जान लें . दरअसल, ये बनारस के एक ऐसे मुस्लिम परिवार की कहानी है जो आतंकवाद को लेकर धार्मिक आधार पर सामाजिक-प्रशासनिक प्रताड़ना झेल रहा है. रीति रिवाज, पहनावे और दाढ़ी कपड़ों को लेकर उसके पूरे वजूद पर ही सवाल खड़ा कर दिया जाता है. लेकिन आखिर में उनकी न्यायिक जीत होती है.
फिल्म में इलाहाबाद में हुए एक ब्लास्ट को दिखाया जाता है. पेशे से वकील मुराद अली (ऋषि कपूर) के परिवार के लड़के शाहिद मोहम्मद (प्रतीक बब्बर) का एनकाउंटर कर दिया जाता है. जिस वक्त ये सीन दिखाया गया थियेटर में 'भारत माता की जय', 'पाकिस्तान मुर्दाबाद' जैसे नारे लगे. मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कि आख़िरी बार राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के किसी मल्टीप्लेक्स में कोई फिल्म देखते हुए थियेटर में इस तरह की हूटिंग से मेरा सामना हुआ हो. मेरा खूबसूरत क्लीनशेव्ड दोस्त, लड़कों की नारेबाजी से परेशान था. मैं भी. क्योंकि, 'हम फिल्म देखने आए थे न कि अपनी निजी देशभक्ति का प्रदर्शन करने.' हमें नारों से आपत्ति नहीं थी, लेकिन इसकी वजह से फिल्म के साथ जो निरंतरता टूट रही थी वो ज्यादा परेशान करने वाली थी.
हमने तो आपत्ति नहीं कि पर थियेटर में मौजूद दूसरे लोगों ने इस पर नाराजगी जाहिर की. टोका भी. चूंकि फिल्म ऐसे विषय पर थी जो एक बड़े रूढ़ और कट्टर समूह की वैचारिकता के खिलाफ थी इस वजह से अंत तक मनाही का कोई असर नहीं हुआ और जब भी उन्हें किसी फ़िल्मी सीन के जरिए निजी देशभक्ति का प्रदर्शन करने की जरूरत महसूस हुई, उन्होंने बेपरवाह होकर की.
किस बात का डर जो सुरक्षा के लिए मौजूद थी पुलिस?
जब इंटरवल हुआ, हम कौतुहलवश कोने में बैठे दो पुलिसकर्मियों के पास पहुंच गए. हमने पूछा- क्या आप लोग भी फिल्म देखने आए हैं? उनका जवाब था- 'नहीं. हम यहां सुरक्षा के लिहाज से हैं. कोई ऊँच-नीच न हो इसलिए हमारी ड्यूटी लगी है.' हमने सवाल किया- फिर आपको लोगों को नारेबाजी रुकवानी चाहिए? उनका सीधा जवाब था- "हमने तो कोई नारेबाजी सुनी नहीं. हमारा काम किसी लड़ाई-झगड़े की घटना को रोकना है."
पुलिसकर्मियों से बातचीत के बाद हम यही सोचते रहे कि - क्या मुल्क इतनी संवेदनशील फिल्म है जिसे दिखाने के लिए पुलिसकर्मियों की जरूरत पड़ रही है? मेरा दोस्त मुस्लिम जबकि मैं हिंदू. लेकिन पहनावे की वजह से मैं निजी तौर पर ज्यादा परेशान था. अफवाहों से उपजने वाला डर. एक आशंका. खौफ मेरे काले पठानी सूट का. चिंता- चेहरे पर हल्की बढ़ी मेरी दाढ़ी-मूंछ. इस माहौल में पहनावे की वजह से मेरा दोस्त मुझे ज्यादा सुरक्षित लग रहा था. जबकि वो मुस्लिम था. इस फिल्म को देखते हुए मुझे ऐसा लगा देश में किस तरह से 'पहचान' एक संकट के तौर पर पुख्ता हो चुका है.
मुझे डर इस बात का लग रहा था कि अगर मैं शोर-शराबे और नारेबाजी जिसके निशाने पर मुल्क के मुस्लिम चरित्र हैं, आपत्ति करूंगा तो बिना मेरी पहचान जाने मेरे साथ मारपीट या अभद्र व्यवहार किया जा सकता है. अंत में इस कोर्ट रूम ड्रामा ने उन तमाम सवालों का माकूल जवाब दिया जो नारेबाजी के शोर में भी पूछे जा रहे थे.
मुल्क इस तरह की संवेदनशील फिल्म नहीं बल्कि आज का समय और राजनीति है जो इसे दिखाने के लिए पुलिसकर्मियों की जरूरत पड़ रही है. देश में डर का कोहरा घना हो रहा है.