भारतीय सिनेमा जगत के पहले शो मैन राजकपूर बेहद प्रगतिशील सोच रखने वाले ऐसे महान फिल्मकार थे जिनमें तीन घंटे के शो में जिंदगी के फलसफे को पर्दे पर उतारकर दर्शकों को सोचने पर मजबूर करने की अद्भुत क्षमता थी. भारतीय सिनेमा को कई कालजयी फिल्में देने वाले इस फिल्मकार ने दर्शकों को हंसाया रुलाया और उन्हें अपने ही इर्द गिर्द की ढकी छुपी सच्चाइयों और दिल में दबी भावनाओं से रु-ब-रु कराया.
राजकपूर ने अभिनेता, निर्माता-निर्देशक, कथाकार और कई अन्य रूपों में योगदान किया. वह एक सम्पूर्ण फिल्मकार और सच्चे अर्थों में शो मैन थे. उन्हें संगीत की भी बहुत अच्छी समझ थी. महज 24 साल की उम्र में आर. के. फिल्म्स के अपने बैनर तले आग फिल्म बनाकर शुरुआत करने वाले राजकपूर ने भारतीय सिनेमा को आवारा, श्री 420, बरसात, संगम, मेरा नाम जोकर, बॉबी, सत्यम शिवम सुन्दरम, प्रेम रोग और राम तेरी गंगा मैली जैसी संदेशपूर्ण और प्रेरणादायी फिल्में दीं. इन फिल्मों को भारतीय सिनेमा के मास्टर पीस होने का शरफ हासिल है.
राजकपूर की एक अन्य महान फिल्मकार गुरुदत्त से तुलना की जाती है लेकिन बुनियादी सोच के लिहाज से वह गुरुदत्त से अलग थे. भारतीय सिनेमा के दूसरे शो मैन कहे जाने वाले निर्माता निर्देशक सुभाष घई ने कहा कि एक फिल्मकार के रुप में राजकपूर का विद्रोह गुरुदत्त की तरह नाउम्मीद नहीं था. घई ने कहा कि राजकपूर एक ऐसे विचारक फिल्मकार थे जिनकी सोच में दुनिया की तमाम ऊंच नीच के बावजूद उससे जुड़े रहने की इच्छा साफ नजर आती थी. उन्होंने कहा कि राजकपूर सही मायनों में शो मैन थे. आज वह हमारे बीच भले ही मौजूद न हों लेकिन अपनी फिल्मों के रुप में वह हमारे बीच हमेशा रहेंगे.
राजकपूर की सोच उनकी फिल्मों के रुप में दुनिया के सामने आ चुकी है. फिल्म जिस देश में गंगा बहती है उनकी शांतिवादी रुमानियत के विद्रोही रुप में तब्दीली की कहानी है वहीं मुख्य रुप से आवारा, श्री 420 और संगम इंसान के जमीर के पहलुओं को टटोलती हैं. राजकपूर ने अपनी फिल्मों में नारी को खास तरजीह दी. चाहे संगम में प्रेम त्रिकोण का भंवर बनी राधा हो, मेरा नाम जोकर में बार बार नायक का दिल तोड़ने वाली नारी हो, बॉबी में जवानी की दहलीज पर कदम रखने वाली उमंगों से भरी लड़की हो या फिर प्रेम रोग तथा राम तेरी गंगा मैली में वक्त और सामाजिक कुरीतियों की मारी स्त्री हो उन्होंने नारी के विभिन्न रुपों को नए ढंग से उकेरा.
राजकपूर ने दर्शकों द्वारा दर्शकों के लिय के फलसफे पर अमल किया. उन्होंने एक बार कहा था कि हमारे लोग बड़े मेहरबान हैं, वो सिनेमा जाने के लिये हर मुश्किल सहते हैं, एक अदद टिकट के लिये लम्बी लम्बी कतारों में खड़े होकर अपनी बारी का इंतजार करते हैं. चाहे जितनी हटो बचो हो, सख्त धूप हो या जोरदार बारिश हो. उन्हें बेवकूफ मत बनाइये उन्हें बस यूं ही मत लीजिये. उनके लिये यही चीज मायने रखती है कि वो यहां सिर्फ मनोरंजन के लिये आए हैं.
पेशावर के समन्दू कस्बे में 14 दिसम्बर 1924 को जन्मे राजकपूर का परिवार वर्ष 1929 में मुम्बई आ गया था. उनके पिता पृथ्वीराज कपूर का भी बेहतरीन अभिनेताओं में शुमार किया जाता था. राजकपूर ने अपने करियर की शुरुआत क्लैप ब्वाय के रुप में की थी. वर्ष 1935 में 11 साल की उम्र में वह पहली बार फिल्म इंकलाब में नजर आए. उन्हें पहला बड़ा ब्रेक वर्ष 1947 में बनी किदार शर्मा की फिल्म नील कमल में मिला. उन्होंने नरगिस के साथ जोड़ी बनाकर कई मशहूर फिल्में दीं.
राजकपूर को संगीत की भी खासी परख थी और उनकी फिल्मों का संगीत न सिर्फ देश बल्कि विदेश खासकर रुस में भी लोकप्रिय हुआ. कुछ फिल्मों में राजकपूर की अदाकारी को देखते हुए फिल्म इतिहासकारों ने उन्हें भारतीय चार्ली चैपलिन भी कहा था. भारतीय सिनेमा में उत्कृष्ट योगदान करने के लिये राजकपूर को वर्ष 1987 में दादासाहब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया गया था. फिल्म जगत को अपनी फिल्मों से समृद्ध करने वाले इस शो मैन ने दो जून 1988 को दुनिया से विदा ले ली.