लॉकडाउन में भले ही नए टीवी सीरियल्स पर ब्रेक लग गया है लेकिन रामायण के कारण लोगों का मनोरंजन जारी है. दूरदर्शन के बाद कलर्स और अब स्टार प्लस पर भी रामायण का प्रसारण शुरू हो चुका है. तो आइए जानें क्या रहा पिछला एपिसोड.
भाई भरत के कहने पर लक्ष्मण, श्रीराम को बताते हैं की भरत आपके लिए राज्याभिषेक की सामग्री लाए हैं क्योंकि वो यहीं आपका राज्याभिषेक करना चाहतें हैं. लेकिन श्रीराम कहते हैं कि भरत को ऐसी नीति विरुद्ध बात नहीं करनी चाहिए और हमें पिता के वचन का पालन करना चाहिए. ये सारी बातें भरत छुपकर सुनता है और उसके बाद गुरुदेव वशिष्ठ के पास अपनी पीड़ा लेकर आता है कि अब उन्हें ही राम को अयोध्या चलने और राजा की पदवी स्वीकारने के लिए मनाना होगा. भरत की पीड़ा देख गुरुदेव वशिष्ठ सभा बुलाने का निर्णय लेते हैं.
सभा में गुरुदेव वशिष्ठ, श्रीराम से कहते हैं कि भरत तुम्हारे पास एक प्रार्थना लेकर आया है जिसमें अयोध्या की पूरी सेना साथ है. ऐसे में तुम जैसे करुणा निधान को इनकी सहायता करनी चाहिए. श्रीराम कहते हैं कि आप जो आज्ञा देंगे वे वो पूरी करेंगे और प्रतिज्ञा लेते हैं कि गुरुदेव की आज्ञा का पालन करेंगे. तभी गुरुदेव वशिष्ठ, भरत को सभा के सामने अपने हृदय की बात कहने को कहते हैं. भरत घोषणा करते हैं कि श्रीराम ही अयोध्या के राजा हैं. श्रीराम से अपने साथ अयोध्या चल, अयोध्या का राज सिंहासन स्वीकारने को कहते हैं. परंतु श्रीराम अपने भाई भरत को मना कर देते हैं और पिता के वचन का पालन करने को कहते हैं.
रानी कैकयी को भी होता है पश्चाताप
रानी कैकयी भी राम से भरी सभा में क्षमा मांगती है और कहती हैं कि वो अपने वचनों को वापस लेकर उन्हें उन वचनों से मुक्त करती है. इसपर राम कहते हैं कि वचन वापस लेने का अधिकार सिर्फ पिताश्री का था और अब बहुत देर हो चुकी है. पिताश्री की मृत्यु के पश्चात हम ये वचन नहीं तोड़ सकते. बहुत मनाने पर भी श्रीराम नहीं माने और वनवास को त्यागने को तैयार नहीं होते हैं. इस बीच सभा में मिथिला का दूत आता है और कहता है की राजा जनक चित्रकूट की ओर निकल चुके हैं और जल्द ही वो यहां पहुंचेंगे. ऐसे में गुरुदेव वशिष्ठ, राजा जनक के आने तक सभा को स्थगित करते हैं.
जल्द ही राजा जनक अपनी रानी और अपनी सेना के साथ चित्रकूट पहुंचते हैं और राजा दशरथ की मृत्यु पर दुख जताते हैं. देवी सीता अपनी मां के साथ अपने पिताश्री से मिलने जाती है और उन्हें देखते ही अपने पिता के गले लगकर रोने लगती हैं. राजा जनक को अपनी पुत्री पर गर्व है कि सीता ने नारी धर्म का कीर्ति स्तंभ स्थापित कर दिया है. उधर भरत, रानी कौशल्या के पास आते हैं ये कहने कि कल की सभा में आपको मेरी बात का समर्थन करना होगा, उसपर रानी कौशल्या कहती हैं कि मैं दो पुत्रों के बीच फंसी हूं, ऐसे में मैं किसका साथ दूं? मैं राम से उसका धर्म का मार्ग छोड़ने को कैसे कह सकती हूं. राम की कर्त्तव्यनिष्ठा चट्टान की तरह मजबूत है इसलिए जो राम कहता है वही सत्य है.
दूसरी ओर रानी कैकयी, राम से मिलने आती हैं और कहती हैं कि वो उन्हें दंड नहीं देते तो माफ भी नहीं करते. राम कहते हैं कि वो उन्हें दोषी ही नहीं मानते. रानी कैकयी कहती हैं कि अगर तुम मुझे सच में अपनी मां मानते हो तो लौट चलो अयोध्या. इस बात पर राम, कैकयी से कहते हैं कि आप मां का मोल मांगने आई हो? अगर आप चाहती हैं कि मैं जिसे धर्म को मानता हूं उसे भंग कर दूं, आपकी यही आज्ञा है तो मैं मान लेता हूं, परंतु मेरा जीवन रण से भागे एक कायर की तरह रह जाएगा. राम की ये बात सुनकर रानी कैकयी उन्हें मना करके वहां से चली जाती हैं. अगली सुबह फिर एक बार सभा बैठती है जिसमें गुरुदेव वशिष्ठ, राजा जनक से कहते हैं कि एक ओर राम की मर्यादा है तो दूसरी ओर भरत का प्रेम. इसमें किसकी जीत हो इसका निर्णय राजा जनक को ही लेना हैं, जो निर्णय वो करेंगे सभी उसे मानेंगे. राजा जनक कहते हैं कि श्रीराम और भरत में से कौन महान है इसका फैसला मैं भी नहीं कर सकता हूं, इसका निर्णय लेना बहुत ही मुश्किल है.
राजा जनक, विष्णु भगवान का आशीर्वाद लेकर उनसे प्रेरणा की प्रार्थना करते हैं और कहते हैं कि धर्म ही सबसे बड़ी शक्ति है. तीनों लोक में धर्म से बड़ा कुछ भी नहीं, लेकिन इसके साथ ही प्रेम भी ऐसी नीति है जो सब धर्मों के ऊपर है. इसलिए इस समय भरत का पलड़ा भारी है, भरत का प्रेम निस्वार्थ है, और राजा जनक फैसला भरत के हक में देते हैं. परंतु वो ये भी कहते हैं कि प्रेम अगर निस्वार्थ है तो ऐसा प्रेम कुछ नहीं मांगता बल्कि जिससे वो प्रेम करता है उसकी इच्छा पूरी करता है और भरत से कहते हैं कि अब भरत को निर्णय करना है कि वो अपने भाई राम को क्या दे सकते हैं. और कहते हैं कि राम जो कहते हैं वो भरत को मानना होगा.
14 वर्षों के वनवास के लिए राम आगे बढ़ते हैं
भरत को प्रेम की परिभाषा समझ में आती है और भरत अपने भाई राम से कहते हैं कि आज्ञा दीजिये. जो वो कहेंगे वही होगा. श्रीराम भरत से कहते हैं कि वो अयोध्या के राज्य को स्वीकारते हैं परंतु पिताश्री का वचन न टूटे इसलिए राजा का कार्यभार राम की गैर मौजूदगी में 14 वर्ष के लिए भरत को ही संभालना होगा. वनवास से लौटकर राम अपनी राजगद्दी संभल लेंगे. भरत अपने भैया राम की बात मान लेते हैं परंतु ये भी कहते हैं कि अगर 14 वर्ष के बाद राम ने आने में एक दिन की भी देरी की तो वो भरत की चिता जलते देखेंगे. इसपर राम अपने भाई को वचन देते हैं कि वो 14 वर्ष के बाद जरूर लौटेंगे और एक दिन की भी देरी नहीं करेंगे.
भरत अपने भाई राम से उनके चरण पादुका की मांग करते हैं, ताकि वो राज सिंघासन पर राम की चरण पादुका रख सके और खुद एक सेवक की तरह अयोध्या का राज, राम की छत्रछाया में संभालें. श्रीराम हंसते हंसते चरण पादुका पर अपने चरण रखतें है और वो चरण पादुका भरत अपने सिर पर रख लेते हैं. श्रीराम का आशीर्वाद समझकर, अपने भाई राम की ये निशानी लेकर भरत अयोध्या की ओर निकल पड़ते हैं. उधर देवी सीता के माता पिता भी अपनी बेटी से विदा लेते हैं और जाने से पहले माता कौशल्या अपने पुत्र राम के गले लगकर खूब रोती हैं और राम से विदा लेती हैं. सभी लोग श्रीराम, सीता और लक्ष्मण से विदा लेकर वहां से चले जाते हैं.