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कम उम्र में टूटा दुखों का पहाड़, 'आतंक' का दर्द और तेजेश्वरी से प्यार... फिल्म जैसी है सुनील दत्त की रियल स्टोरी

जीवन के उतार चढ़ाव, एक बेहतरीन जीवन जीते-जीते अचानक मुफलिसी के दौर में आ जाना और वहां से ससम्मान निकल कर आना. अभिनेता से नेता बने सुनील दत्त के जीवन में कई ऐसी कहानियां हैं जिन्हें पढ़कर आने वाली पीढ़ियों को हौसला मिले. जिनमें से कुछ हमने यहां लिखने की कोशिश की है. आज उनके जन्मदिन पर हम उन्हें याद कर रहे हैं. वहीं संजय दत्त ने भी पुरानी तस्वीरों को शेयर कर अपने 'हीरो' पिता को याद किया है.  

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सुनील दत्त के जीवन में कई ऐसी कहानियां हैं जो किसी के भी लिए प्रेरणा बन सकती हैं.
सुनील दत्त के जीवन में कई ऐसी कहानियां हैं जो किसी के भी लिए प्रेरणा बन सकती हैं.

इतना ना मुझसे तू प्यार बढ़ा कि मैं इक बादल आवारा... साल 1961 में आई फिल्म 'छाया' में भले ही सुनील दत्त इस गाने को गाते नज़र आ जाते हों, लेकिन वो इस गाने की तासीर से कहीं अलग थे. जिस उम्र में बच्चे ठीक से चीज़ें याद नहीं रख पाते उस उम्र में सुनील घर के एक ज़िम्मेदार बेटे में तब्दील हो गए थे. उनके जीवन पर एक बार नज़र फिराएं तो, सुनील के शुरुआती जीवन ने ही उन्हें एक मज़बूत और भरोसेमंद इंसान बनाया, जो ना सिर्फ अपने परिवार बल्कि अपने दोस्तों और समाज के लिए हमेशा खड़ा रहा.

दीवान साहब

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संजय दत्त का जीवन जितने ऐश-ओ-आराम में बीता उतना ही उनके पिता सुनील दत्त का जीवन तकलीफ़ों भरा रहा. उथल पुथल भरे शुरुआती जीवन की रेखाएं हाथ में लिए पश्चिम पंजाब के खुर्द गांव के एक घर में सुनील यानी बलराज दत्त का जन्म हुआ. झेलम नदी से 14 किलोमीटर दूर बसे इस गांव में जन्मे बलराज के पिता गांव के रसूखदार ज़मींदार थे, नाम था रघुनाथ दत्त. गांव में लोग उन्हें 'दीवान साहब' के नाम से पुकारते थे. बड़े दिल वाले दीवान साहब. 

वो काला दिन

लम्बे चौड़े कद काठी वाले रघुनाथ अक्सर अलसुबह अपने कर्मचारियों से बातचीत करने और अपनी ज़मीन को देखने के लिए घर से निकल जाते थे. तमाम बैठकी भरे दिन के बाद रघुनाथ घर लौटकर अपने परिवार के साथ समय बिताते. लेकिन ऐसे ही एक दिन घर से निकले रघुनाथ फिर कभी घर नहीं लौटे. ये वो दौर था जब बलराज महज पांच साल के थे. बताते हैं कि उस दिन घर के बाहर खेल रहे बलराज और उनकी छोटी बहन रानी ने अचानक अपनी दादी के चीखने की आवाज़ सुनी. ऐसे में जब तक लोग आने वाली चीख की तरफ भागते तब तक सामने से दादी तेजी से भागती हुईं बलराज के पास आ गयीं.

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उन्होंने फटाफट नन्हे बलराज को एक तांगे में बिठाया और उनसे बस इतना ही बताया कि उनके पिता को कुछ हो गया है, उन्हें ढूंढने जा रहे हैं. एक पांच साल का बच्चा क्या ही कुछ समझेगा. हां बस इतना समझ रहा था कि उसकी दादी बदहवास होकर रोए जा रही थीं. इसी बीच गांव की एक चाय की दुकान पर लोगों की भीड़ दिखाई दी, पास जाने के बाद समझ आया कि भीड़ किसी आदमी को घेरे हुए है जो ज़मीन पर निस्तेज पड़ा हुआ है. यह आदमी कोई और नहीं बल्कि रघुनाथ दत्त यानी दीवान साहब थे.

अंतिम समय पिता का चेहरा ना देख पाने का मलाल

सुनील दत्त ने जब भी इस याद को किसी से साझा किया तो उन्होंने कहा कि मैं दूर खड़ा होकर सब कुछ देख रहा था. लोग मेरे पिता को उठाने की कोशिश कर रहे थे, और मेरे पिता जैसे एक कभी ना खुलने वाली गहरी नींद में जा चुके थे. और इस हादसे के बाद उनका बचपन भी उसी वक़्त दम तोड़ चुका था. उनका कहना था कि मुझे यह तो याद है कि पिता की मृत्यु के बाद मैंने उन्हें मुखाग्नि दी लेकिन उनका चेहरा नहीं याद. ना ही हमारे पास उनकी कोई तस्वीर थी, कि मैं उन्हें बाद में देख सकूं. उनकी एक तस्वीर के सहारे उन्हें याद कर सकूं. उन्हें उस रोज़ अपने पिता का चेहरा नहीं देख पाने का मलाल भी जीवन भर रहा.

 

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सुनील दत्त के जवानी के दिनों की एक तस्वीर

एक ज़मींदार का राजकुमार जैसा बेटा पिता के चले जाने के बाद घर का 'जिम्मेदार बेटा' बन चुका था. तमाम जिम्मेदारियों के बीच बलराज के जीवन में अभी मुश्किलें आना बाकी थीं. 1947 में देश विभाजन जैसी एक बर्बादी ने हर तरफ उत्पात मचा दिया था. इस दौरान बलराज का गांव खुर्द पाकिस्तान के हिस्से चला गया और बलराज अपने पिता के एक सबसे खास दोस्त याकूब की मदद से भारत आ गए.  

विभाजन और तंगहाली के दिन

विभाजन के बाद बलराज ने अपने परिवार को शरणार्थी कैंप में ढूंढने में जमीन आसमान एक कर दिया. महीनों बीतने के बाद उन्हें अपना परिवार अंबाला में मिला. इस समय तक बलराज अपनी पुश्तैनी संपत्ति खो चुके थे. तंगहाली के दौर में बलराज और उनका परिवार शरणार्थी कैंप में ही अपने दिन बिताने लगा. विभाजन से मिली चोट के कारण ही दत्त साहब खुद को ताउम्र रिफ्यूजी बताते रहे. जैसे तैसे हालत सुधरी और एक समय बाद बलराज दत्त नाम का यह लड़का मुंबई पहुंच गया. सपनों के इसी शहर में उनको उनकी मुहब्बत मिली जिसका नाम था- तेजेश्वरी. 
 

सुनील दत्त और नरगिस दत्त

फातिमा अब्दुल रशीद उर्फ़ तेजेश्वरी मोहन

फातिमा अब्दुल रशीद जिनका एक नाम तेजेश्वरी मोहन भी था, लेकिन फ़िल्मी दुनिया के लोगों ने इन दो नामों वाली एक लड़की को सिर्फ नरगिस के नाम से पहचाना. कहते हैं कि नरगिस की मां जद्दनबाई जवाहर लाल नेहरू की 'राखीबंद' बहन थीं. मतलब उन्होंने नेहरू को राखी बांधकर अपना भाई बना लिया था. जद्दनबाई ने अपनी उम्र से चार साल छोटे मोहन बाबू नाम के शख्स से मुलाकात के बाद उनसे शादी रचा ली थी. मोहन ने शादी के बाद इस्लाम धर्म अपना लिया और बाद में अपना नाम अब्दुल रशीद रख लिया. ऐसे में जब 1 जून 1929 को उनके घर बेटी ने जन्म लिया तो उसके दो नाम रखे गए. फातिमा अब्दुल रशीद उर्फ़ तेजेश्वरी मोहन. लेकिन फ़िल्मी दुनिया ने इस लड़की को एक नया नाम दिया, जो था- नरगिस.

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यूं तो नरगिस राज कपूर से शादी करना चाहती थीं, लेकिन ऐसा हो ना सका. एक समय तक नरगिस यह अच्छे से समझ चुकी थीं कि शादीशुदा राज अपने परिवार को नहीं छोड़ेंगे, तो उनसे शादी का ख्वाब बस एक ख्वाब ही बन कर रह जाएगा. ऐसे में उन्होंने राज कपूर से हर रिश्ता तोड़ लिया और गुस्से में राज कपूर के प्रतिद्वंदी महबूब खान की फिल्म साइन कर ली. और इसी फिल्म में उनको अपना जीवन साथी मिला, यानी कि सुनील दत्त. यह फिल्म थी मदर इंडिया. हालांकि ये वो दौर था जब नरगिस सुपरस्टार हुआ करती थीं और सुनील एक स्ट्रगलिंग एक्टर. लेकिन फिर भी प्यार ये सब कहां देखता है. फिल्म के सेट पर एक एक्सीडेंट और उसी एक्सीडेंट में सुनील ने एक हीरो की तरह नरगिस के जीवन में एंट्री कर ली.
 

नरगिस को आग से बचाने के दौरान सुनील दत्त काफी घायल हुए थे. तब नरगिस ने उनका बहुत ख़याल रखा था.



बलराज दत्त को सुनील नाम मिलने के पीछे भी एक छोटी सी कहानी है कि उस दौरान एक्टर्स को नए नाम के साथ फ़िल्मी पर्दे पर उतारा जाता था. फ़िल्मी दुनिया में बलराज साहनी पहले से ही एक बड़ा नाम थे, तो ऐसे में बलराज नाम के दो शख्स नहीं हो सकते थे. तब बलराज दत्त को नया नाम मिला जो था- सुनील दत्त. और उनकी पहली फिल्म थी 'रेलवे प्लेटफॉर्म' जो काफी चर्चा में भी रही. 

1962 का इंडिया-चाइना वॉर और सुनील दत्त

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सुनील दत्त का शुरुआती जीवन चाहे जैसा रहा हो, लेकिन नरगिस के आने के बाद उनका जीवन एकदम खिल उठा. सुनील एक नेकदिल इंसान थे. इसका उदाहरण उनके राजनीतिक जीवन में भी देखने को मिलता है. एक समाजसेवी के रूप में भी सुनील की अपनी अलग पहचान थी. सुनील ने कभी भी समाज के लिए किये गए अपने कार्यों का प्रचार नहीं किया और ना ही कभी पसंद किया कि समाज के प्रति उनकी जिम्मेदारी को गली गली गाया जाए.

1962 का वो दौर जब भारत-चीन के बीच वॉर हुआ और भारत को उसमें शिकस्त देखनी पड़ी, तब सुनील दत्त ने अपनी फिल्मों की कमाई का हिस्सा हमारे देश के वीर शहीदों और सैनिकों के घरों में देना शुरू कर दिया. सुनील भारत की अलग अलग सीमाओं पर जाकर सैनिकों से मिलते थे. उनके इन्हीं सब कार्यों के चलते उन्हें 1968 में पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा गया.
 

सुनील दत्त हमेशा एक जननेता के तौर पर देखे गए. हर बार चुनाव जीतना इस बात का उदहारण था कि जनता उन्हें कितना प्यार करती है


सद्भावना-शांति पदयात्रा का ऐलान 

सुनील साल 1984 में पूरी तरह से राजनीति के मैदान में आ गए. अपनी छवि और जनता से मिलने वाले प्यार के चलते सुनील ने हर चुनाव में जीत हासिल की. इतना ही नहीं बेख़ौफ़ सुनील दत्त ने 1987 में एक ऐसी पदयात्रा का ऐलान किया जिसके चलते आतंकवादियों तक ने उन्हें निशाने पर ले लिया था. 

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दरअसल उन्होंने मुंबई से अमृतसर तक एक पदयात्रा का ऐलान किया. सद्भावना-शांति को लेकर निकाली जाने वाली इस पदयात्रा को लेकर उन्हें आतंकियों की तरफ से जान से मार देने तक की धमकियां मिलने लगीं. लेकिन सुनील जितने बड़े समाजसेवी थे उतने ही बड़े देशभक्त और निडर व्यक्ति भी थे, उन्होंने तमाम धमकियों के बाद भी अपनी यात्रा ना सिर्फ शुरू की बल्कि उसे पूरा भी किया.  

     
जब इस वजह से सुनील दत्त ने नहीं लड़ा था चुनाव  

सुनील दत्त के लिए सबसे बड़ी तकलीफ उनके बेटे संजय की गिरफ़्तारी बन गई. एक देशभक्त, समाजसेवी और सम्मानित अभिनेता का बेटा जब आतंकवादी हमले में शामिल हुआ तो सुनील दत्त के कद में कुछ कमी आई और इसकी टीस उन्हें हमेशा खलती रही. लेकिन उस मुश्किल समय में बॉलीवुड ने सुनील दत्त का साथ नहीं छोड़ा. वो सम्मानित व्यक्ति थे और उनका सम्मान उनके बेटे की गलतियों से बड़ा रहा.

 

सुनील अपने बेटे संजय को बेहिसाब चाहते थे. लेकिन संजय पर लगे आरोपों ने सुनील दत्त को अंदर से तोड़ कर रख दिया था.

जब संजय जेल में रहे तो उस दौरान आने वाले चुनाव में सुनील ने हिस्सा नहीं लिया. उन्हें लगता था कि ऐसा करना ग़लत होगा कि एक तरफ उनका बेटा देश विरोधी आरोपों से घिरा है और वो चुनाव लड़ें. लेकिन संजय के जेल से आने के बाद सुनील ने चुनाव में अपनी दावेदारी पेश की और दावेदारी भी ऐसी कि न सिर्फ इस चुनाव में उन्हें बड़ी जीत हासिल हुई बल्कि उन्हें केंद्रीय मंत्री का दर्जा भी हासिल हुआ.

यादों में सुनील दत्त...

जीवन के उतार चढ़ाव, एक बेहतरीन जीवन जीते-जीते अचानक मुफलिसी के दौर में आ जाना और वहां से ससम्मान निकल कर आना. अभिनेता से नेता बने सुनील दत्त के जीवन में कई ऐसी कहानियां हैं जिन्हें पढ़कर आने वाली पीढ़ियों को हौसला मिले. जिनमें से कुछ हमने यहां लिखने की कोशिश की है. आज उनके जन्मदिन पर हम उन्हें याद कर रहे हैं. वहीं संजय दत्त ने भी पुरानी तस्वीरों को शेयर कर अपने 'हीरो' पिता को याद किया है.  


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