'जाने भी दो यारों' जैसी यादगार फिल्म और 'नुक्क़ड़', 'वाग्ले की दुनिया' जैसे धारावाहिक बनाने वाले कुंदन शाह लंबे अरसे बाद बतौर डायरेक्टर दस्तक दे रहे हैं. वे इस बार एक वेश्या के राजनीति के शीर्ष तक पहुंचने की कहानी लेकर आए हैं. पेश है उनसे बातचीत के खास अंशः
इतने लंबे समय तक विराम की क्या वजह थी?
सही चीज करना मुश्किल है. भेड़ चाल में चलना आसान है. मैं कुछ अलग करना चाहता था.
आपको चार दशक हो गए फिल्म इंडस्ट्री में, इंडस्ट्री और फिल्में कितनी बदल गई है?
माहौल चेंज हो चुका है. आज सच बोलना गुनाह है. झूठ बोलना सच है. मेरी फिल्म में भी एक डायलॉग है, झूठ बोलो. ठोक के बोलो. ऐसे बोलो सब मंत्रमुग्ध हो जाएं. यही तो है आज की राजनीति.
दर्शक और उनकी पसंद कितनी बदली है?
दर्शक प्योर रहता है. दर्शक वाहियात नहीं होते. 'कोर्ट' जैसी फिल्म भी पसंद की जा रही है. इसलिए अच्छी फिल्मों के दर्शक तो हैं. हम लोग फिल्म सोसायटी चलाते हैं, गांवों में जाकर फिल्में दिखाते हैं, यहां 'बाइसिकल थीव्ज' और 'पाथेर पांचाली' जैसी फिल्में दिखाते हैं. यह फिल्में उन लोगों को दिखाई जाती है जिनका फिल्मों से पहले कोई वास्ता नहीं पड़ा होता. लेकिन वह इन्हें सराहते हैं. मुझे नहीं लगता कि दर्शक बदले हैं.
आखिर क्या बात थी जो 'पी से पीएम तक' बनाई?
आपको कुछ कहना है, कोई सही चीज कहनी है. बस, उसी बात को कहने के लिए मैं पिछले बीस साल से इंतजार रहा था और अब जाकर यह मौका मिला. इस बात को यूं समझें कि 'जाने भी दो यारों' में गटर का जिक्र है. वह मेरा खुद का सहा हुआ है. मैं एक सोसायटी का सेक्रेटरी हुआ करता था, जहां गटर के पानी से सभी लोग दुखी थी. वह गुस्सा फिल्म में निकला. इसी तरह फिल्में बनती हैं.
कहानी में क्या खास बात है?
सब कुछ खास है. राजनीति को लेकर आज कई सवाल उठ रहे हैं. कई बातें हो रही हैं. आज इसे बहुत बुरी चीज भी कहा जा रहा है. इसीलिए मैंने समाज में सबसे नीचे आने वाले वेश्या समाज को चुना ताकि अपनी बात को कह सकूं. मैं नेताओं की हकीकत दिखाने के लिए उनका इस्तेमाल किया. फिल्म की मेरी पात्र सिर्फ चार दिन में राजनीति के शीर्ष पर पहुंच जाती है.
आजकल तो आइटम नंबर वगैरह खूब डाले जाते हैं, आपने इस दिशा में क्या किया?
मैं आपको यह बोल सकता हूं कि हम अच्छी फिल्म नहीं बना सकते तो आइटम डाल देते हैं. यह कमजोर फिल्म को लेकर छिपा डर होता है. करोड़ों के बिजनेस को सेव करने के लिए वे ऐसा करते हैं. लेकिन मेरी फिल्म में कुछ सिर्फ परोसने के इरादे से नहीं है.
'पी से पीएम तक' यूएसपी क्या है?
ज्यादातर लोग बोलते हैं कि फिल्म को देखने के लिए दिमाग घर पर रखकर आओ, हम बोलते हैं कि दिमाग साथ लेकर आओ. आप कुछ साथ लेकर जाएंगे. हमने कोशिश की है कि आप फिल्म के बारे में सोचें.