स्थान जवेरी बाजार, मुंबई. रोज तरह मुंबई के ओपरा हाउस इलाके के जवेरी बाजार में सब कुछ सामान्य था. रोज की तरह दुकानों के शटर खुल रहे थे और चाय की गुमटियों पर हमेशा की तरह भीड़ लगी थी. अचानक एक जौहरी की दुकान में सीबीआई का छापा पड़ा.
लेकिन तब कौन जानता कि सीबीआई और इनकम टैक्स के नाम से पड़ा ये छापा नकली था. कहते हैं दो तीन घंटे तक ना तो कोई दुकान के अंदर जा पा रहा था और ना दुकान के बाहर आ पा रहा था. सीबीआई और इनकम टैक्स के छापे के नाम पर चोर लुटेरों ने दुकान खाली कर दी.
अक्षय कुमार, अनुपम खेर मनोज बाजपेयी जैसे सितारों से सजी फिल्म 'स्पेशल 26' इसी घटना से प्रेरित है. 'अ वेडनेसडे' जैसी फिल्म बनाने वाले डायरेक्टर नीरज पांडे की ये फिल्म स्पेशल इसलिए है क्योंकि आज तक दुनिया ये नहीं जान पायी कि वो कौन 26 लोग थे जिन्होंने छापा मारा और आजतक उनमें से किसी का सुराग नहीं मिला.
'स्पेशल 26' की इस कहानी की पड़ताल करने के लिए आज तक की टीम पहुंच गई उस इलाके में जहां पर ये फर्जी छापा पड़ा था और खोज निकाला उन लोगों को जिन्होंने करीब 25 साल पहले देखा था 'स्पेशल 26' लाइव. ये वो लोग है जिन्होंने उन सुपर ठगों को अपनी आंखों से देखा है जिन्हें आज परदे पर अक्षय कुमार, अनुपम खेर और उनकी टीम निभा रही है. यकीन मानिए इलाके को लोगों को हवा तक नहीं लगी थी. उन्हें अगले दिन अखबार और टेलीविजन देखकर पता चला उनके इलाके का जौहरी लुट गया.
छापा मारने वाले 26 लोग थे. सारे के सारे फर्जी. लेकिन कमाल का तालमेल था एक भी कमजोर कड़ी किसी के हाथ नहीं लगी. ठगी के इतिहास में इतना शातिर ठग कि दुनिया को आजतक उसकी सूरत तो छोड़िए उसका नाम तक नहीं पता.
25 साल हो गये अब उन सुपर ठगी को. अब तो सिर्फ बातें ही बची हैं. सिर्फ किस्से सुनाये जाते है उन ठगों के. तो क्या उस वारदात का कोई भी पुलिस रिकॉर्ड नहीं है? 25 साल पुराना केस है. मुंबई के डीबी मार्ग पुलिस स्टेशन में अब उस 'स्पेशल 26' केस की फाइल का कोई पता नहीं.
पुलिस कहती है हमारे पास इस वक्त सिर्फ 20 साल पुराना रिकॉर्ड ही है. लेकिन हां ये सच है कि आईपीसी की धारा 420, 471 और 34 जैसी कई संगीन धाराओं के तहत अज्ञात लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया था. पहले इस मामले की तफ्तीश पुलिस ने की और फिर मामला 1987 को सीबीआई को ट्रांसफर कर दिया गया. और मामले की जांच का जिम्मा दिया तब के सीबीआई क्राइमब्रांच के आफीसर सोनार को.
सीबीआई भी हवा में हाथ पैर चला कर रह गई. लेकिन शातिर ठगों की गंध भी नहीं मिली. जाहिर है पुलिस अब उस बारे में बात करे तो क्या करे. लेकिन हां उसने ये ज़रूर बता दिया 19 मार्च 1987 की इस फर्जी रेड की फाइल को ए श्रेणी में रखा गया है यानी कि केस दर्ज हुआ लेकिन जांच किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी.
सुपर ठगों ने पूरी तैयारी कर रखी थी. उनके पास उन नेताओं और कारोबारियों की लिस्ट थी जिनके पास जमकर कालाधन था. शायद यही वजह है उनके सिर्फ तेरह मामले ही सामने आ पाये .बाकी कितने लोगों को उन्होंने लूटा ये तो वही जाने.
80 का दशक कालेधन रखनेवाले राजनेता और कारोबारियों के लिए किसी मुसीबत से कम नहीं था क्योंकि ठग अच्छी तरह जानते थे उनके करतूत की शायद ही कोई पुलिस में शिकायत करे. उन ठगों के बारे में सिर्फ अंदेशा ही था कि उन स्पेशल 26 में कोई ना काई ज़रूर सीबीआई का रिटायर्ड अधिकारी रहा होगा. कोई रिटार्यड इनकम टैक्स ऑफिसर. वर्ना किसे पता किसके पास कितना नकद मिलेगा और कितने की संपत्ति. हड़कंप इतना मच गया कि सरकार कालाधन निकालने के तरीके खोजने लगी थी.
स्पेशल 26 का सबसे दिलचस्प किस्सा ये है कि एक बार ठगी में उन्होंने असली पुलिस अधिकारी को भी अपने ऑपरेशन में शामिल कर लिया था. और जब तक असली पुलिसवालों को ये पता चलता कि ठगों ने उससे भी अपने अपराध में शामिल किया था तब तक उसके पांव के नीचे से जमीन खिसक चुकी थी.
चौंकानेवाली बात तो ये थी कि स्पेशल 26 के लिए जो टीम बनाई गई थी उसके लिए बाकायदा अखबार में विज्ञापन दिया गया था. कहते हैं जिन लोगों को उस सुपर ठग ने अपने ऑपरेशन में शामिल किया उनको तक इस बात की भनक नहीं थी कि सीबीआई के नाम पर उनसे फर्जी छापा मरवाया जा रहा था.
नेता हो या कारोबारी. जो चोर होगा वही डरेगा. उसी डर को ठगों ने अपना हथियार बना लिया और धड़ाधड़ उनकी नापाक दौलत को अपने नाम कर लिया और एक ऐसी दुनिया में जाकर छुप गये जहां तक पहुंचने की हिम्मत किसी ने नहीं की. और अगर करते तो पता नहीं और क्या-क्या राज खुल जाते. शायद यही वजह है कि अस्सी के दसक की ठगी के वो मामले आज भी ए श्रेणी में हैं यानी कि जिनका कोई नतीजा नहीं निकला.
तो हिंदुस्तान का सिनेमा बदल रहा है. रियल किस्से अब रील का हिस्सा बन रहे हैं. तोता-मैना की कहानी पुरानी हो रही है. सिनेमा आइना बन कर सामने आ रहा है.