70 के जिस दशक में सिनेमा का सितारा समीकरण बदल रहा था, विनोद खन्ना की एंट्री ऐसे नायक के तौर पर हुई, जिसकी पहचान उसकी कद-काठी उसके रूप-रंग और मोहक मुस्कान की बदौलत बनती है. इस दौर में दिलकश अदाओं के सबसे बड़े हीरो राजेश खन्ना बनकर उभरे थे. धर्मेन्द्र तब के ही-मैन थे, तो शशि कपूर उस दौर के सबसे खूबसूरत हीरो. लेकिन विनोद खन्ना की खूबसूरती के साथ उनके अंदाज में बात कोई गजब थी. 1968 में पहली फिल्म मन का मीत आई, तो उसके आगे पीछे निर्माताओं की कतार लग गई. तब एक हफ्ते में ही 15 फिल्में साइन कर ली थी विनोद खन्ना ने.
उन्हीं 15 फिल्मों में से एक थी मेरा गांव मेरा देश. जिसमें निभाया डाकू जब्बर सिंह का किरदार उन्हें फिल्म से भी ज्यादा मशहूर कर गया. जबकि उस फिल्म में हीरो उस दौर में सुपरहिट धर्मेन्द्र जैसे अभिनेता थे. डाकू जब्बर सिंह के रूप में विनोद खन्ना का किरदार इतना चर्चित हुआ, कि इसके बाद डकैत कथाओं पर फिल्मों का चलन शुरु हो गया. शोले जैसी फिल्म और डाकू गब्बर सिंह का किरदार इसकी एक मिसाल है. खलनायक के रूप में विनोद खन्ना की शोहरत आसमान पर थी, लेकिन दिल से कहें तो अदाकारी का ये रंग उन्हें कतई रास नहीं आता था. अभिनेता संजय खान कहते हैं कि वो पहला आदमी था जो विलेन से हीरो बना.
उस हीरो को अदाकारी का नया रंग 1971 में आई गुलजार की फिल्म मेरे अपने से मिला, जिसमें नेक इरादों के साथ अंदाज भी तेवराना था. शत्रुघन सिन्हा के साथ उस फिल्म ने विनोद खन्ना को भी फिल्म इंडस्ट्री में बतौर अदाकार स्थापित कर दिया. तब विनोद खन्ना सिर्फ इसलिए नहीं खुश थे कि फिल्मों में संयोग से शुरू हुई उनकी पारी कामयाब रही, बल्कि सुकून इस बात का था कि अब उन्हें फिल्मों की दुनिया छोड़नी नहीं पड़ेगी. फिल्मों में नाकाम हुआ तो फेमिली बिजनेस में लौट आऊंगा, ये करार विनोद खन्ना ने अपने पिता से किया था.