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World Theatre Day पर जानिए मौजूदा दौर में कहां खड़ा है भारतीय रंगमंच

World Theatre Day 2024: इंडियन थिएटर की शुरुआत ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में हुई. शुरुआती दौर में भारतीय रंगमंच काफी हद तक भरत की कलम से निकले 'नाट्यशास्त्र' पर आधारित था. यह क़रीब उसी वक़्त के आस-पास हुआ, जब अरस्तू ने इस क्षेत्र में काम किया था.

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मौजूदा दौर में कहां खड़ा है भारतीय रंगमंच (फाइल फोटो)
मौजूदा दौर में कहां खड़ा है भारतीय रंगमंच (फाइल फोटो)

भारत में चार अहम परफ़ॉर्मिंग आर्ट्स पाए जाते हैं- नृत्य (Dance), संगीत (Music), रंगमंच (Theatre) और फिल्म (Films).  थिएटर यानी रंगमंच की बात करें तो देश में इसका गौरवशाली इतिहास रहा है. थिएटर में आर्टिस्ट किसी स्पेशल जगह पर दर्शकों के सामने वास्तविक या काल्पनिक घटनाओं पर आधारित कहानियों को परफ़ॉर्म करता है. 27 मार्च को विश्व थिएटर दिवस (World Theatre Day) मनाया जाता है. ऐसे में आइए जानते हैं कि भारतीय रंगमंच के शुरू होने और फूलने-फलने का सफ़र कैसा रहा. इसके साथ ही यह भी जानने की कोशिश करेंगे कि मौजूदा दौर में यह किस स्थिति में है.

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थिएटर क्या है?

मशहूर आइरिश लेखक और कवि ऑस्कर वाइल्ड (Oscar Wilde) कहते हैं कि मैं थिएटर को आर्ट के सभी रूपों में सबसे महान मानता हूं, यह सबसे तात्कालिक तरीक़ा है, जिससे एक इंसान दूसरे के साथ इंसान होने के सही मायने को समझ सकता है. 

विलियम शेक्सपियर (William Shakespeare) ने कहा है- पूरी दुनिया एक मंच है और सभी पुरुष और महिलाएं सिर्फ प्लेयर हैं. एक पर्सन अपने वक्त में कई भूमिकाएं निभाता है.

संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड से सम्मानित सीनियर थिएटर एक्टर ज़हूर आलम ''aajtak.in' से बातचीत में कहते हैं कि थिएटर एक जीवंत कला है और लोगों से बात करने का तरीका भी है, यह सभी कलाओं में सबसे बड़ी कला है. यह एक ऐसा ज़रिया है, जिससे एक्टर और दर्शक के बीच आंख में आंख मिलाकर बात होती है. ज़हूर आलम भरत के नाट्यशास्त्र के पहले श्लोक का ज़िक्र करते हैं, जो इस तरह है-
'न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला। 
नासौ योगो न तत्कर्म नाट्येडस्मिन यन्न दृश्यते।।

अर्थात दुनिया का जितना भी ज्ञान है, जितनी भी कलाएं, योग और कर्म हैं, वो सब नाटक में समाहित हैं. जो नाटक को समझ गया, दुनिया समझने में उसका नज़रिया बहुत बड़ा हो जाता है.

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World Theatre Day NSD
(फोटो- साकिब)

थिएटर एक्टर और डायरेक्टर एमके (महाराज कृष्ण) रैना कहते हैं कि थिएटर एक ऐसा माध्यम है, जिससे लोगों के दुख-दर्द की बात खुल कर की जाती है. 

नाटककार इरशाद ख़ान सिकंदर बताते हैं, 'मैं महसूस करता हूं कि थिएटर एक नशा, जादू और इस तरह का झूठ है, जो हमारे सामने रचा जाता है. लेकिन यह जानते हुए भी कि ये झूठ है, हम ख़ुद को ठगा नहीं महसूस करते हैं. इसके अलावा जो इसको रच रहा है (डायरेक्टर, एक्टर, परफ़ॉर्मर), वो इसको करने के बाद शर्मिंदा भी नहीं होता है. ख़ुद के अंदर जितनी भी संभावनाएं हैं, उसको हासिल कर पाना, थिएटर में ही मुमकिन हो सकता है.'

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भारत में थिएटर की शुरुआत कैसे हुई?

भारतीय थिएटर की शुरुआत ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में हुई. शुरुआती दौर में इंडियन थिएटर काफी हद तक भरत की कलम से निकले 'नाट्यशास्त्र' पर आधारित था. यह क़रीब उसी वक़्त के आस-पास हुआ, जब अरस्तू (Aristotle) ने इस क्षेत्र में काम किया था. नाट्यशास्त्र ने आने वाली कई सदियों तक इंडियन थिएटर की तमाम शैलियों की नींव का काम किया. अंग्रेज़ी हुकूमत के आने के बाद इंडियन थिएटर मॉडर्नाइज़ हुआ. ऐसे में इंडियन थिएटर के तीन दौर हुए- शास्त्रीय (Classical), पारंपरिक (Traditional) और आधुनिक (Modern).

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मॉडर्न थिएटर की बात करें तो यह ब्रिटिश दौर से काफी हद तक इत्तेफाक रखता है, जो वेस्टर्न ड्रामों से प्रभावित है. सिर्फ ऐतिहासिक और धार्मिक मुद्दों के बजाय सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर भी एक्टिंग की गई. इंडियन थिएयर की मशहूर हस्तियों- शंभू मित्र, विजय तेंदुलकर, इब्राहीम अल्काज़ी, गिरीश कर्नाड और उत्पल दत्त ने नए-नए प्रयोग किए और इंडियन थिएटर को नए मुक़ाम तक पहुंचाया. आज इंडियन थिएटर यानी भारतीय रंगमंच 2,000 साल से ज़्यादा का वक़्त गुज़ार चुका है.

इंडियन थिएटर के पितामह

भारत में थिएटर की क्रांति लाने का क्रेडिट दिया जाता है, 1940 और 1950 के दशक के दौरान मुंबई के सबसे प्रमुख थिएटर कलाकारों की लिस्ट में शामिल इब्राहीम अल्काज़ी को. उन्हें भारतीय रंगमंच का पिता कहा गया है. अल्काज़ी ने 37 साल की उम्र में दिल्ली कूच किया और अगले 15 साल तक (1962 से 1977) तक नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा (NSD) के निदेशक रहे. एनएसडी के इतिहास में यह अब तक का सबसे लंबा कार्यकाल है. इब्राहीम अल्काज़ी ने पारंपरिक शब्दावली और आधुनिक मुहावरे के बीच संबंध स्थापित करके मॉडर्न इंडियन थिएटर को तराशने का काम किया.

Hindi Theatre national school of Drama
(फोटो- साकिब)

थिएटर ने भारतीय समाज को कितना बदला?

भारत में थिएटर और सोसायटी हमेशा एक-दूसरे से जुड़े रहे हैं. अंग्रेज़ों के दौर में भी थिएटर काफी हद तक राष्ट्रवाद और देशभक्ति पर आधारित था. इस तरह का पहला मशहूर नाटक 'नील दर्पण' था, जिसको लेखक और नाटककार दीनबंधु मित्र ने बंगाली में लिखा था. यह प्ले ब्रिटिश शासकों द्वारा देशी बागान मालिकों पर थोपी गई 'नील की जबरन खेती' मुद्दे पर आधारित था. इसके अलावा खद्रिन वर्दरी, देशेया कोटि, भारत दुर्दशा और अंधेर नगरी जैसे नाटकों में भी तत्कालीन भारत की दुर्दशा देखने को मिलती है.

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19वीं सदी के नाटकों में जाति व्यवस्था, अस्पृश्यता, दहेज और बाल विवाह जैसी तमाम सामाजिक बुराइयों और अंधविश्वासों को सिरे से नकारने का काम किया गया. ये वो दौर था, जब भारत के लेखकों का विदेशी भाषाओं के नाटकों से राबता हो चुका था. विलियम शेक्सपियर के कई नाटकों का असर भारतीय नाटकों में नजर आ जाता है. 

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1947 के बाद का भारतीय रंगमंच

आज़ादी के बाद के दौर में इंडियन थिएटर में कई बदलाव देखने को मिले. सिनेमा ने एंटरटेनमेंट थिएटर के लिए एक चुनौती पेश की और इस तरह थिएटर शौक़िया फला-फूला जबकि एंटरटेनमेंट थिएटर ने जनता को रोमांचित किया लेकिन इसको आलोचनाएं भी झेलनी पड़ीं. इससे साहित्यिक नाटक के रास्ते खुले. साहित्यिक ड्रामा के ऐसे ही एक शानदार नाटककार रवीन्द्रनाथ टैगोर को माना जाता है. 

थिएटर एक्टर ज़हूर आलम कहते हैं कि भारतीय रंगमंच को समाज से ऑक्सीजन मिलता है क्योंकि सभी कलाएं लोगों के लिए होती हैं. थिएटर को खाद, पानी और भोजन समाज से ही मिलता है और समाज जिस तरह का होगा, हमारी कलाएं वैसी ही होंगी या फिर हमारी कलाएं जैसी होंगी, वैसा ही हमारा समाज होगा.

मौजूदा दौर में इंडियन थिएटर

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थिएटर के मौजूदा दौर की बात करते हुए एमके रैना कहते हैं कि अगर हम दिल्ली के थिएटर की बात करें, तो यहां पर इसका इन्फ्रास्ट्रक्चर ज़ीरो है. दिल्ली में एक भी वर्ल्ड क्लास थिएटर नहीं है, जो भी रंगमंच हो रहा, लोग अपने बूते पर कर रहे हैं. 

'अन्य राज्यों के मुक़ाबले हिंदी थिएटर'

एमके रैना कहते हैं कि हिंदी थिएटर में कोई नया और अच्छा काम नहीं आ रहा है, जबकि एक-दो दशक पहले हिंदी से ही रंगमंच की दिशा-दशा तय होती थी और काफ़ी कुछ नया होता था. आज कल वैसा नहीं हो पा रहा है लेकिन हिंदी थिएटर एक्टिव बहुत है. वे आगे कहते हैं कि महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक और बंगाल जैसे राज्यों में थिएटर के लिए बहुत अच्छा काम हो रहा है लेकिन हिंदी में सिर्फ कदमताल किया जा रहा है. नई भाषा, नया व्याकरण और नया रूप नहीं नज़र आता है. इसके अलावा हिंदी थिएटर में ऑडिएंस की बहुत कमी है, इसकी वजहें ये हैं कि कुछ ही जगहों पर थिएटर करने के साधन हैं और उन पर सरकार की मोनोपॉली है. 

ज़हूर आलम कहते हैं कि भारतीय रंगमंच को लेकर कई बार कहा जाता है कि इसके लिए यह बहुत अच्छा दौर नहीं है लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता हूं क्योंकि समाज में उताड़-चढ़ाव हर जगह होते हैं. अगर हम इंडियन थिएटर को ब्रॉड नज़रिए से देखें तो नए-नए प्रयोग हो रहे हैं, लोग इसे रोज़ी-रोटी का ज़रिया भी बना रहे हैं. ख़ासतौर से भारत के दक्षिण, पश्चिम और पूरब के इलाक़ों में थिएटर आत्मनिर्भर हुआ है.

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theatre day national school of drama
(फोटो- साकिब)

थिएटर ने हिंदी सिनेमा को क्या दिया?

हिंदी सिनेमा को थिएटर से मिले योगदान की बात करते हुए ज़हूर आलम कहते हैं कि नाटक ने फिल्मों को बहुत कुछ दिया है, इसी ने ही पाल-पोशकर बड़ा किया है. पृथ्वीराज कपूर से लेकर तमाम नाटक से जुड़े एक्टर, डायरेक्टर, प्रोड्यूसर, गीतकार फ़िल्म का दौर आने पर उसमें काम करने लगे. मौजूदा सिनेरियो की बात करते हुए वो कहते हैं कि आज फ़िल्में जिस स्थिति में हैं, उसको बनाने वालों में नाटक का ज़बरदस्त हाथ रहा है. और यह सिर्फ हिंदुस्तान की बात नहीं है, दुनिया भर में ऐसा हुआ है, नाटक से जुड़े तमाम लोग फ़िल्मों में काम करते हैं और सितारा बनकर उभरते हैं.

थिएटर की दुनिया में आने वाले नए लोग क्या करें?

थिएटर की दुनिया में आने की कोशिश करने वाले लोगों के लिए एमके रैना कहते हैं कि थिएटर एक सीरियस बिज़नेस है, इसमें दो-चार साल तक घिसने के बाद कुछ निकलता है. बहुत जल्दबाज़ी में कुछ नहीं मिलता, इसमें सिर्फ काम चलता है, कोई शॉर्टकट नहीं है. इसके लिए साहित्य पढ़ना है और सब्र के साथ अच्छी तैयारी करना बहुत ज़रूरी होता है. 

ज़हूर आलम कहते हैं कि नए लोगों के लिए सबसे ज़रूरी सीखना है, उनमें तुरंत हीरो बनने की तमन्ना नहीं होनी चाहिए. थिएटर में ईमानदार मेहनत और पागलपन की ज़रूरत होती है, जब तक किसी भी कला के लिए दीवानगी नहीं होगी, उसमें कोई काम नहीं किया जा सकता है. थिएटर के लिए सबसे ज़रूरी बात ये है कि इसके लिए पढ़ना बहुत ज़रूरी है- समाज को पढ़ना, दुनिया को पढ़ना और किताबों को पढ़ना. 

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काम तो है दीवानेपन का,
लेकिन करना होश में है सब.

- इरशाद ख़ान सिकंदर

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