भारतीय हॉकी प्रेमी यदि ओलंपिक में हॉलैंड के खिलाफ पहले मैच में टीम के प्रदर्शन से दुखी हैं तो वे गलत नहीं हैं. हॉलैंड के खिलाफ 3-2 का स्कोर पूरी दास्तान बयां नहीं करता है.
हॉलैंड को इस मैच से पूरे तीन अंक मिले और भारत को सिफर. इससे भी अहम बात थी कि भारतीय किस तरह से खेले या नहीं खेले.
भारतीय किस्मत के धनी रहे कि दूसरे हाफ में उन्हें कुछ मौके मिले और वे इनमें से दो को भुना सके. लेकिन यह वृहत तस्वीर का एक हिस्सा भर है.
भारतीय हॉकी प्रेमी अपनी टीम के खेल से निराश होंगे जो आठ साल बाद ओलंपिक में लौटी है. भारत के सिर्फ दो खिलाड़ी इससे पहले ओलंपिक (एथेंस 2004) खेल चुके हैं. बाकी सभी के लिये यह ओलंपिक में पहला मैच था लेकिन पूरी टीम वह कैसे भूल गई जो पिछले कई महीने की तैयारियों में सीखा था.
पहले हाफ में तो टीम कहीं नजर ही नहीं आई. भारतीय टीम ने सिर्फ 14-15 मिनट प्रतिस्पर्धी हॉकी खेली.
पहला गोल काफी आसान था. डच स्ट्राइकर राबर्ट वान डेर होर्स्ट ने भारतीय डिफेंस को पूरी तरह चकमा दे दिया. भारतीय कप्तान और गोलकीपर भरत छेत्री को वह गोल बचाना चाहिये था. अपना पैड बायीं ओर अड़ाकर इसे रोका जा सकता था. बाकी दो गोल हालैंड ने पेनल्टी कार्नर पर किये और दिखा दिया कि ताइके ताकेमा की जगह लेने के लिये नये ड्रैग फ्लिकर तैयार हैं. ताकेमा चोट के कारण ओलंपिक से बाहर है.
मनप्रीत सिंह ने नीचे की ओर जाता रोड्रिक व्यूस्टाफ का शॉट लगभग बचा लिया था लेकिन गेंद पर नियंत्रण बरकरार नहीं रख सके.
दूसरे हाफ में हालात कुछ बदले हुए दिखे. भारत ने अपना स्वाभाविक खेल दिखाया और बदलाव साफ नजर आया. भारतीय खिलाड़ी दबाव हटाने में कामयाब रहे. मुझे लगता है कि भारत एक गोल और कर सकता था. किस्मत ने थोड़ा और साथ दिया होता तो यह मैच ड्रा रहता.
भारत और हॉलैंड ने लंबे समय से कोई मैच नहीं खेला था. ओलंपिक में एक ही पूल में रहने के बाद यह अच्छी रणनीति थी कि यूरोप दौरे पर भारत ने उनसे कोई अभ्यास मैच नहीं खेला.