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क्या मेड-इन-चाइना को बाजार से गायब कर देगा अमेरिका, क्या है डी-रिस्किंग, जिसका फायदा भारत को हो सकता है?

बीते तीन महीनों में कई अमेरिकी कैबिनेट मंत्री चीन पहुंचे. अक्सर ऐसा तब होता है, जब देशों के आपसी रिश्तों में गरमाहट हो, लेकिन चीन-अमेरिका का पेंच अलग है. अमेरिकी सरकार ने चीन के लिए डी-रिस्किंग टर्म का खुलकर इस्तेमाल किया, यानी इकनॉमिक रिश्तों को सीमित करना. ये एक तरह की आर्थिक पाबंदी है, जिसमें बाजार हटाए जाने लगते हैं.

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अमेरिका बार-बार चीन से अपने आर्थिक रिश्ते कम करने के संकेत दे रहा है. सांकेतिक फोटो (unsplash)
अमेरिका बार-बार चीन से अपने आर्थिक रिश्ते कम करने के संकेत दे रहा है. सांकेतिक फोटो (unsplash)

हाल ही में एक डेटा आया, जो दावा करता है कि इकनॉमिक मजबूती के मामले में चीन, अमेरिका से आगे निकल गया. वर्ल्ड ऑफ स्टैटिसटिक्स पर्चेसिंग पावर को देखकर ये बताता है. इसके मुताबिक, चीन की इकनॉमी 30.3 ट्रिलियन डॉलर जबकि अमेरिका की 25.4 ट्रिलियन डॉलर की है. इस तरह से चीन सुपरपावर अमेरिका से आगे दिख रहा है. लेकिन यही बात उसके लिए मुसीबत भी बन रही है. अमेरिका वो सारे जतन कर रहा है, जो उसे चीन से आगे बना दें. इन्हीं में से एक है डी-रिस्किंग. 

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क्या है डी-रिस्किंग

सबसे पहले मई में जी-7 शिखर सम्मेलन के दौरान ये टर्म सुनाई दी. अमेरिका ने माना कि ग्लोबल सप्लाई चेन पर अब चीन की सख्त पकड़ ढीली करने का समय आ चुका. जैसा कि समझ आ रहा है, इसका संबंध जोखिम घटाने से है. आमतौर पर बड़े वित्तीय संस्थान जब छोटे देनदारों को लेकर पक्का नहीं होते कि वे उधार चुका पाएंगे, तब वे डी-रिस्किंग करते हैं, यानी छोटे लेनदारों से संबंध घटा लेते हैं. ये रिश्ता पूरी तरह खत्म नहीं होता, लेकिन काफी सीमित हो जाता है. 

क्यों हो रहा है ऐसा

अमेरिका और चीन के बीच साल 1979 में डिप्लोमेटिक संबंध पक्के हुए. अमेरिकी बाजार को तो इससे फायदा हुआ, लेकिन चीन बेतहाशा नफे में रहा. अमेरिका से अच्छे संबंधों की वजह से बाकी देश भी चीन को अपने यहां एंट्री देने लगे. लगभग 4 दशक के इस रिश्ते में चीन ने अमेरिका के घरेलू बाजार पर भी कब्जा कर लिया. अमेरिका इसपर नाराज तो रहा, लेकिन संबंध खत्म करने का जोखिम नहीं ले पा रहा था. अब रूस-यूक्रेन युद्ध ने उसे इसका मौका दे दिया. 

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america and europe de risking strategy towards china benefits to india- photo Unsplash

किस बात पर अमेरिका को आया गुस्सा

इस युद्ध के दौरान दोनों ही प्रभावित देशों से चीजों की सप्लाई प्रभावित हुई. चीन ने एक चतुर व्यापारी की तरह प्रभावित जगहों पर अपना जाल फैलना शुरू किया. यहां तक कि वो डॉलर को हटाकर अपनी करेंसी को प्रमोट करने लगा. कई देश फिलहाल चीन से उसकी ही मुद्रा युआन में व्यापार कर रहे हैं. यहां तक कि एक्सपर्ट इसे डी-डॉलराइजेशन तक कहने लगे. यही रेड अलर्ट था. अमेरिका ने इसके बाद डी-रिस्किंग का फैसला कर लिया. 

कैसे है, संबंध पूरी तरह तोड़ने से अलग

वो धीरे-धीरे चीन से अपना आर्थिक लेनदेन कम कर सकता है. हालांकि ये पूरी तरह से खत्म नहीं होगा. पूरी तरह से इकनॉमिक निर्भरता खत्म करने को डी-कपलिंग कहते हैं. ये एक तरह की आर्थिक पाबंदी ही है, जैसे नॉर्थ कोरिया लगातार मिसाइल परीक्षण करता रहता है तो अमेरिका समेत कई देशों ने उसे डीकपल कर रखा है. वे इस देश से कोई लेनदेन नहीं रखते. इससे नॉर्थ कोरिया दुनिया से लगभग कट चुका और आर्थिक तौर पर खस्ताहाल है. अमेरिका अकेला नहीं, यूरोपियन यूनियन भी चीन के मामले में डी-रिस्किंग की बात कर रहा है. 

america and europe de risking strategy towards china benefits to india- photo Unsplash

तो क्या चीनी प्रोडक्ट्स की जरूरत खत्म हो जाएगी

अमेरिका अगर चीन से खानेपीने की चीजें, खिलौने और मोबाइल खरीद रहा है तो बाजार सीमित करने का मतलब ये नहीं कि अमेरिकी जरूरत खत्म हो जाएगी. अमेरिकी सरकार अपनी जरूरत किसी और देश से पूरा करेगा. यानी ये एक तरह से बाजार की शिफ्टिंग होगी. इसका फायदा भारत को भी मिल सकता है. फिलहाल चीन-अमेरिका खटास के बीच भारत से यूएस के संबंध मजबूत हुए हैं. ऐसे में भारत सप्लाई चेन में सेंध लगा सकता है. 

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क्या खतरे हैं डी-रिस्किंग के

यूएस ट्रेजरी डिपार्टमेंट के मुताबिक ये आर्थिक संबंध खत्म करना नहीं, बल्कि रिश्ते में थोड़ी दूरी लाना है. ये काम वो कई देशों के साथ करता रहा. जैसे सीरिया, अफगानिस्तान. ये सभी गृहयुद्ध और आतंक से प्रभावित देश हैं. अमेरिका का कहना है कि उसने आतंक की चेन को तोड़ने के लिए ऐसे कदम उठाए. वहीं मानवाधिकार संस्थाएं कुछ और ही कहती हैं. उनका कहना है कि डी-रिस्किंग के चलते जरूरतमंद लोगों पर भी असर हो रहा है. ये वैसा ही है, जैसा गेहूं के साथ घुन का पिस जाना.

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