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क्या है अंटार्कटिक पार्लियामेंट, भारत कर रहा जिसकी मेजबानी, कैसे ये बर्फीला महाद्वीप पूरी दुनिया के लिए ला सकता है आफत?

भारत 46वें अंटार्कटिक संसद की मेजबानी कर रहा है. 30 मई तक चलने वाली इस बैठक में बर्फीले महाद्वीप से जुड़े कई मुद्दों पर बात होगी. फिलहाल वैज्ञानिक परेशान हैं क्योंकि अंटार्कटिक महासागर के भीतर धाराएं कमजोर पड़ रही हैं. डर जताया जा रहा है कि साल 2050 तक ये बहाव इतना कम हो जाएगा कि सांस लेने के लिए ऑक्सीजन घटने लगेगी.

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अंटार्कटिक संसद में इस बार वहां बढ़े टूरिज्म पर भी बात हो सकती है. (Photo- Getty Images)
अंटार्कटिक संसद में इस बार वहां बढ़े टूरिज्म पर भी बात हो सकती है. (Photo- Getty Images)

कोच्चि में 30 मई तक 46वीं अंटार्कटिक संधि परामर्शदात्री बैठक चलेगी, जिसे अंटार्कटिक संसद भी कहा जाता है. कुल 56 देश इसमें हिस्सा ले रहे हैं. ये मिलकर देखेंगे कि नो-मेन्स लैंड कहलाते अंटार्कटिक में क्या हो रहा है, और उसे बचाने के लिए क्या किया जाना चाहिए. इस बार खासतौर पर अंटार्कटिक टूरिज्म पर सख्ती की बात हो सकती है. 

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जब देश करने लगे महाद्वीप पर क्लेम

पचास के दशक में देश दूसरे वर्ल्ड वॉर से उबरे ही थे. कई देश अब भी अपनी सीमाएं बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे. अंटार्कटिक अब तक साबुत था. वहां शोध और खनन जैसी भारी संभावनाएं थीं. ये देखते हुए एक के बाद बहुत से देश अंटार्कटिक पर अपना दावा करने लगे. इसी कड़ी में अर्जेंटिना, ऑस्ट्रेलिया, चिली, फ्रांस, न्यूजीलैंड, नॉर्वे और यूके ने कंटिनेंट के कुछ हिस्सों पर अपना दावा कर दिया. ये दावे एक-दूसरे से टकरा रहे थे. ब्रिटेन ने अर्जेंटिना और चिली को मामला सुलझाने के लिए इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में जाने की सलाह की, जिसपर दोनों ने ही इनकार कर दिया. हर देश पक्का था कि अंटार्कटिका पर उसका ही क्लेम सही है. 

दो लड़ाइयों से गुजर चुकी दुनिया एक सूने महाद्वीप के लिए फिर से युद्ध में न चली जाए, इसके लिए संधि की कोशिश होने लगी. भारत ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई. उसने कोशिश की कि मामला यूनाइटेड नेशन्स जनरल असेंबली में ये मुद्दा उठ सके. हालांकि चिली और अर्जेंटिना के भारी विरोध के चलते लंबे समय तक कोई इंटरनेशनल संधि नहीं हो सकी. 

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antarctic treaty india kochi kerala agenda photo Pixabay

इन देशों ने की संधि

साल 1957-58 के बीच 12 देश साथ आए और तय किया कि अपने फसादों की वजह से अंटार्कटिका को तबाह नहीं होने देंगे. साथ ही ये भी पक्का हुआ कि वहां जॉइंट तौर पर रिसर्च चलते रहेंगे. दिसंबर 1959 में इन्हीं देशों ने अंटार्कटिक ट्रीटी पर साइन किया. साइन करने वालों में ऑस्ट्रेलिया, चिली, जापान, नॉर्वे, यूएसएसआर, संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, दक्षिण अफ्रीका, न्यूजीलैंड, फ्रांस, बेल्जियम और अर्जेंटीना शामिल थे. अस्सी की शुरुआत में और भी देश इससे जुड़े, जिनमें भारत भी शामिल था. 

संधि में शामिल 56 देशों में से 29 के पास कंसल्टेटिव पार्टी का अधिकार है, यानी ये फैसला लेने का काम करते हैं. भारत ने भले ही अस्सी के दशक में संधि पर हस्ताक्षर किए, लेकिन उसके पास भी ये हक है. 

क्या है संधि की बड़ी बातें

- अंटार्कटिका ट्रीटी में 14 अनुच्छेद मुख्य हैं, जो अलग-अलग हिस्सों पर फोकस करते हैं. 

- यहां किसी भी तरह की मिलिट्री प्रैक्टिस या बेस बना सकने की मनाही है. 

- इस महाद्वीप पर न्यूक्यिलर वेस्ट का निपटान नहीं हो सकता, न ही न्यूक्लियर टेस्ट हो सकेंगे. 

- यहां हो रही वैज्ञानिक खोजें या रिसर्च आपस में साझा किए जाएंगे, और जरूरत पड़ने पर आपसी मदद की जाए. 

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क्यों इस महाद्वीप का सुरक्षित रहना है जरूरी

दक्षिणध्रुवीय महासागर, जिसे अंटार्कटिक महासागर भी कहते हैं, उसे लेकर नई चिंता जताई जा रही है. ग्लोबल वार्मिंग के कारण वहां की बर्फ तेजी से पिघल रही है, ये बात तो कई बार कही जा चुकी. लेकिन अब जो चेतावनी आ रही है, वो डराने वाली है. बर्फ इतनी तेजी से पिघल रही है कि इससे महासागर के भीतर स्लोडाउन के हालात बन रहे हैं. समुद्र के भीतर का बहाव हल्का पड़ता जा रहा है. इससे दुनियाभर के पानी के स्त्रोतों में ऑक्सीजन की कमी होने लगेगी.

antarctic treaty india kochi kerala agenda photo Pixabay

क्या कहती है स्टडी

पिछले साल मार्च में वैज्ञानिक जर्नल नेचर में छपी स्टडी में इस बारे में विस्तार से बताया गया. यूनिवर्सिटी ऑफ न्यू साउथ वेल्स के शोधकर्ताओं ने स्टडी में बताया कि कैसे अंटार्कटिका में बर्फ पिघलने का असर डीप ओशन करंट्स पर पड़ेगा. इसके लिए उन्होंने उस डेटा की मदद ली, जिसमें 35 मिलियन कंप्यूटिंग घंटों, और कई तरीकों से अंटार्कटिका पर नजर रखी गई.

समंदर के भीतर का प्रवाह कम होगा

हर रोज और लगातार अंटार्कटिका में बर्फ का अंबार, जो नमक और ऑक्सीजन से भरपूर होता है, पिघलता है. इससे जो वॉटर करंट बनती है, वो प्रशांत, हिंद और अटलांटिक महासागर तक पहुंचती है. ये करंट सतह से और भी न्यूट्रिएंट्स लेकर ऊपर की तरफ आती है और प्रवाह बंट जाता है. जब बर्फ ज्यादा पिघलेगी तो अंटार्कटिका का पानी पतला और कम नमक वाला हो जाएगा. इससे गहरे समुद्र के भीतर का बहाव धीमा पड़ जाएगा.

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भीतरी प्रवाह कम होते ही 4 हजार मीटर से ज्यादा गहराई वाले हिस्सों में पानी का बहना ही रुक जाएगा. ये एक तरह के दलदल जैसी स्थिति होगी, जिसमें पानी एक निश्चित दायरे में जम जाता है. धाराओं के जरिए ही मछलियों और बाकी समुद्री जीवों तक पोषण और ऑक्सीजन पहुंचता है. इसमें कमी आने से पोषण में भी कमी आने लगेगी. इससे फूड चेन बुरी तरह से अस्त-व्यस्त हो जाएगी.

antarctic treaty india kochi kerala agenda photo Getty Images

सबसे बड़ी बात कि इससे पानी में ऑक्सीजन सप्लाई पर असर होगा, जो समुद्र के भीतर उठापटक मचा देगा. इसका असर बाहर भी पड़ेगा. चूंकि समुद्र के ऊपर की परतें कमजोर पड़ जाएंगी तो ये कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित नहीं कर पाएंगी, जिससे वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा भी बढ़ जाएगी. ये अपने-आप में डूम्सडे होगा. 

इस बार क्या है एजेंडा

अंटार्कटिक बैठक में पहली बार वहां हो रहे टूरिज्म पर बात होगी.इस महाद्वीप पर टूरिज्म भी तेजी से बढ़ रहा है. वैज्ञानिक मान रहे हैं कि पहले से ग्लोबल वार्मिंग की जद में रहते इस हिस्से पर टूरिज्म का बुरा असर होगा. बाकी मुद्दों के साथ इसके रेगुलेशन पर भी बात की जाएगी. बता दें कि साल 2019 से एक साल के भीतर 74 हजार से ज्यादा टूरिस्ट अंटार्कटिका घूमने जा चुके. 

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नेचर कम्युनिकेशन्स जर्नल में छपी एक रिसर्च में 100 से ज्यादा शोध के बाद ये माना गया कि अंटार्कटिका पर जाने वाले हरेक टूरिस्ट की वजह से 83 टन से ज्यादा बर्फ पिघलती है. ऐसे में दसियों हजार टूरिस्ट का वहां पहुंचना कितना खतरनाक हो रहा होगा, इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता.

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