scorecardresearch
 

कितना क्रूर था औरंगजेब... संगीतकारों को दरबार से निकाला, बोला- कब्र गहरी खोदना

1658 के बाद की तारीख़ कहती है कि हिंदुस्तान की सरज़मीं पर दौरे-ए-मुग़ल कायम था और सल्तनत-ए-तैमूरिया के तख़्त पर औरंगज़ेब बैठ चुका था. अपने बाप शाहज़हां को क़ैद कर उसने अपने परबाबा अक़बर की सारी दीनपनाही, दीन-ए-इलाही की इस छ्ठे मुग़ल ताजदार ने मट्टीपलीत कर दी थी. इसके बाद वही सिलसिला शुरू हो गया जिसे रोकने के लिए कभी नए-नए तुर्क हुए अक़बर ने बैरम खां को जबरन ही हज करने भेज दिया था.

Advertisement
X
औरंगजेब को संगीत से थी नफरत, संगीतकारों को दरबार से हटाया
औरंगजेब को संगीत से थी नफरत, संगीतकारों को दरबार से हटाया

औरंगजेब आलमगीर... तकरीबन 450 साल पहले का वो मुगलिया बादशाह, भारतीय सियासत में जिसके चर्चे किसी बोतलबंद जिन्न की मानिंद जब-तब बाहर निकल आते हैं. ऐसा ही कुछ हाल इन दिनों भी हो रखा है. एक फिल्म आई है 'छावा'. मराठा क्षत्रपति शिवाजी महाराज के शेर बेटे क्षत्रपति संभाजी राजे की जीवन गाथा से प्रेरित है.

Advertisement

संभाजी महाराज की इस जीवन गाथा में भी औरंगजेब एक खास किरदार बनकर निकलता है. इतिहास में औरंगजेब के जो भी वाकये दर्ज हैं, वह इस ओर इशारा करते हैं कि वह एक क्रूर बादशाह रहा होगा, लेकिन हाल के दिनों में इसी बात पर विवाद चल रहा है. 

संगीत से नफरत करता था औरंगजेब
औरंगजेब को लेकर एक बात और मशहूर है कि वह मौसिकी पसंद बिल्कुल नहीं था. उसे साज-संगीत से खूब परहेज था. वैसे ऐसा कई जगह लिखा मिलता है कि औरंगजेब को साहित्य पसंद आते थे, लेकिन इतालवी इतिहासकार मनूची लिखते हैं कि उसे सिर्फ धार्मिक साहित्य पसंद थे और वह भी इस्लामिक. अपने बड़े भाई दाराशिकोह से दूरी और उससे नफरत की एक वजह यह भी थी. दाराशिकोह हर धर्म में रुचि रखने के साथ कविता, कला, साहित्य और संगीत का भी प्रेमी था, लेकिन औरंगजेब इससे बिल्कुल उलट तबीयत वाला था. 
 
उसने बादशाह बनते ही शाही दरबार से संगीतकारों-शाइरों को बाहर का रास्ता दिखा दिया और उन्हें मिलने वाले भत्ते-वेतन भी रोक लिए. औरंगजेब ने अपने दौर में संगीत पर ऐसी पाबंदी लगाई जो मुगलों के इतिहास में कभी नहीं हुआ. इतालवी पर्यटक मनूची ने इस बात का जिक्र अपने संस्मरण में किया है. उन्होंने इस वाकये को बहुत दिलचस्प अंदाज में दर्ज किया है.

Advertisement

दीनपनाही और दीन-ए-इलाही से अलग थी औरंगजेब की राहें
1658 के बाद की तारीख़ कहती है कि हिंदुस्तान की सरज़मीं पर दौरे-ए-मुग़ल कायम था और सल्तनत-ए-तैमूरिया के तख़्त पर औरंगज़ेब बैठ चुका था. अपने बाप शाहज़हां को क़ैद कर उसने अपने परबाबा अक़बर की सारी दीनपनाही, दीन-ए-इलाही की इस छ्ठे मुग़ल ताजदार ने मट्टीपलीत कर दी थी. इसके बाद वही सिलसिला शुरू हो गया जिसे रोकने के लिए कभी नए-नए तुर्क हुए अक़बर ने बैरम खां को जबरन ही हज करने भेज दिया था.

औरंगजेब चारों ओर नंगी तलवारें लिए घोड़े दौड़ा रहा था और बेधड़क खून बहाना उसकी शग़ल में था. उसने हर उस मौके-दस्तूर को सल्तनत की अपनी दीवानगी की राह में फना कर डाला जो वक़्त-ज़रूरत पर कभी मोहब्ब्त के मुकाम बन सकते थे.

महफ़िलें तन्हा कर दी गईं, शाइर चुप करा दिए गए और सुखन लिखने वालों की कलमें तोड़कर स्याही यमुना में बहा दी गई. लिहाजा आगरे से लेकर दिल्ली के जिन किलों में कभी शेर और सुखन से मुंडेर-मीनार मस्त रहते थे वहां विरानी बसने लगी और तमाम कलाम कहने वाले, गजल गुनगुनाने वाले भूखे-बेबस होने लगे. इल्म में है कि जिस किसी चीज को जितना दबाओ वह उतनी ही जोर मारती हुई ऊपर आती है.

Advertisement

यह भी पढ़ेंः जलील किया, सिर काटकर शाहजहां को भेजा... संभाजी ही नहीं भाई दाराशिकोह के साथ भी औरंगजेब ने की थी क्रूरता

संगीतकारों ने निकाली साज का जनाजा
ऐसी ही किसी आधी रात को दिल्ली के सारे साजिंदे, शाइर, ग़ज़ल गाने वाले और सुखनवीर इकट्ठा हुए और उन्होंने बादशाह की इस नामुराद हरक़त को लानतें भेजीं. इतने पर भी बस तो न होता था तो सबने तय किया कि चलो अपने साज़-कलम, पोथी ये सारा कुछ कब्र में दबा आएं, सुपुर्द-ए-खाक कर आएं. मशविरा उठा और जल्द ही अमल कर लिया गया. सबने अपने इल्मी साज़ो-सामान का जनाजा बनाया और दिल्ली की गलियों से मातमी जनाजा निकलने लगा.

इधर, औरंगजेब के कानों में रोने-पीटने की बेसब्र आवाज पड़ी तो कारिंदे बुलवाए. हुक़्म किया, पता करो, इतनी रात को कौन मर गया, किस अमीर का जनाजा यूं शोर-शराबे और मातम से जा रहा है. कारिंदे लौटे और मुंह दुबकाये हुज़ूर के सामने खड़े हो गए. औरंगजेब चीखा- बोलते क्यों नहीं... उसकी तानाशाही चीख के बाद एक कारिंदा डरते हुए बोला- हुज़ूर, ये शाइरी करने, ग़ज़ल-तरन्नुम गाने वालों की भीड़ है. कहते हैं कि कभी रहीम खानखाना के छंद और तानसेन की तानों से सजे इस मुगल दरबार में अब हमारी जगह नहीं रही, हम सड़कों पर आ गए और बादशाह औरंगजेब आलमगीर ने हमें कहीं का न छोड़ा. इसलिए वे अपने साज-सामान कब्र में दफ़न करने जा रहे हैं.

Advertisement

औरंगजेब बोला- जाओ कह दो, कब्रें गहरी खोदें
एक पल की चुप्पी के बाद औरंगज़ेब थोड़ा हंसा और बोला, जाओ उनसे कह दो, कब्रें जरा गहरी ही खोदें. एक साजिंदे ने यह सुना तो बोल पड़ा कि कब्रें गहरी ही खोदेंगे और इतनी गहरी खोदेंगे कि जब वक़्त आये हो तो ये साज़ ऐसा विस्फोट बनकर बाहर आएं कि मुगलिया सल्तनत को तितर-बितर कर दें. साल दर साल बीत गए. ज़माना बदला तो सल्तनत शाह रंगीला के हाथ आई. बादशाह रंगीला शेरो-सुखन में ऐसा फंसा कि नादिरशाह उसकी पगड़ी तक उतार कर ले गया और कोहिनूर के जाने के साथ ही मुगल तख़्त का नूर भी चला गया. औरंगजेब को संगीत और संगीतकारों से क्या चिढ़ थे, इतिहास में इसके अलग-अलग तर्क मौजूद हैं, लेकिन ये वाकया भी इसकी तस्दीक करता है कि मुगल बादशाह औरंगजेब कितना क्रूर था.

Live TV

Advertisement
Advertisement