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किसी वक्त पर हजारों झीलों का शहर बेंगलुरु अब बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहा, क्या है वजह?

कर्नाटक के बेंगलुरु में गर्मियां आने से पहले ही पानी का संकट गहरा चुका है. हाल में बेंगलुरु वाटर सप्लाई एंड सीवरेज बोर्ड (BWSSB) ने पीने के पानी के गैरजरूरी इस्तेमाल पर पाबंदी लगाते हुए बड़ा जुर्माना तय कर दिया. इसके लिए एक नंबर भी जारी हो चुका, जिसपर पानी बर्बाद कर रहे लोगों की शिकायत की जा सकती है.

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शहर में भूमिगत पानी तेजी से खत्म हो रहा है. (Photo- AFP)
शहर में भूमिगत पानी तेजी से खत्म हो रहा है. (Photo- AFP)

फरवरी अभी बीती भी नहीं, जबकि बेंगलुरु में सूखा दिखने लगा है. यही हाल रहा तो गर्मियों में शहर में हाहाकार मच सकता है. इसपर काबू पाने के लिए कई उपाय किए जा रहे हैं, जैसे जुर्माना लगाना और लोगों से पानी बचाने की अपील. बेंगलुरु में हमेशा से यह हाल नहीं था. किसी वक्त यहां चारों तरफ झीलें और नदियां थीं, जो अब सूख चुकीं. तो क्या ये बेंगलुरु के रेगिस्तान बनने की शुरुआत है!

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अभी क्या स्थिति है

बेंगलुरु जल आपूर्ति और सीवरेज बोर्ड (BWSSB) के अध्यक्ष राम प्रसाद मनोहर के मुताबिक साउथ-ईस्ट, वाइटफील्ड और बाहरी इलाके में सबसे ज्यादा जल संकट हो सकता है. बता दें कि यह वे क्षेत्र हैं, जो ग्राउंड वॉटर पर निर्भर हैं. स्टडी में इसके अलावा ऐसे सारे हिस्सों की पहचान की गई, जहां गर्मियां शुरू होते ही त्राहिमाम मच सकता है. इसके बाद जल बोर्ड ने भूजल छोड़कर कावेरी कनेक्शन के पानी के ज्यादा इस्तेमाल की अपील की. साथ ही पानी की बर्बादी पर पांच हजार रुपए का फाइन भी लगा दिया. 

बता दें कि जल संकट को देखते हुए डिप्टी सीएम डीके शिवकुमार के कहने पर एक स्पेशल टास्क फोर्स बनाई गई थी, जिसने छह महीनों की स्टडी में बताया कि बेंगलुरु की ग्राउंड वॉटर पर निर्भरता लगातार बढ़ रही है और रोज 800 मिलियन लीटर पानी निकाला जा रहा है. लेकिन ऐसा क्या है, जो शहर में पानी की किल्लत बढ़ती चली जा रही है? ये समझने के लिए एक बार इतिहास में झांकते चलें. 

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bengaluru water crisis history and reasons photo Unsplash
बेंगलुरु में हमेशा से जल संकट नहीं था. (सांकेतिक तस्वीर)

शासकों ने बनवाईं झीलें

बेंगलुरु कुदरती तौर पर झीलों से समृद्ध इलाका नहीं था. ऐसे में इसे बसाने वाले शासकों ने पानी बचाने के लिए अलग-अलग बंदोबस्त किए. इसी में एक था झीलों का निर्माण. 16वीं सदी में विजयनगर साम्राज्य के एक शक्तिशाली सामंत नादप्रभु केंपेगौड़ा ने शहर की नींव रखी. बेहद ऑर्गेनाइज्ड ढंग से शहर बसाते हुए केंपेगौड़ा ने कई झीलें और तालाब बनवाए. अलग-अलग रिकॉर्ड्स दावा करते हैं कि तब यहां हजार से ज्यादा छोटी-बड़ी झीलें थीं. यहां तक कि उन्हें कनेक्ट करने के लिए नालों का एक नेटवर्क था. जैसे ही एक झील में पानी ज्यादा होता, वो अपने-आप दूसरे में चला जाता. इससे यहां सालभर पानी बना रहता था. 

लगातार हुआ अतिक्रमण

20वीं सदी के मध्य तक बेंगलुरु में 262 झीलें ही रह गईं. लेकिन वक्त के साथ ये भी तेजी से घटीं. बड़े-बड़े अपार्टमेंट, आईटी पार्क और सड़कें बनाने के लिए झीलों को पाटा जाने लगा. सत्तर के दशक के दौरान झीलों को भरकर कई बड़ी जगहें बनाई गईं, जैसे कोरमंगला झील स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स में बदल गई और  संपांगी झील की जगह आज कांतीरवा स्टेडियम है. जो झीलें बाकी रहीं, उनमें भी जान नहीं थी. गंदे पानी और प्लास्टिक से वे बजबजाने लगीं. अब यहां 20 से भी कम झीलें बाकी हैं, जिनमें बारिश में ही पानी दिखेगा. 

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लेकिन क्या झीलों से सूखने से शहर सूख रहा है

यही अकेली वजह नहीं. लगभग 13 मिलियन की आबादी वाले शहर की पानी की आधी जरूरत ग्राउंड वॉटर से पूरी होती है, जबकि बाकी पानी कावेरी नदी से लाया जाता है. चूंकि नदी का पानी लाना काफी खर्चीला होता है और हर जगह इसकी उपलब्धता भी नहीं, लिहाजा लोग बोरवेल करवाने लगे. आबादी बढ़ने के साथ जरूरत भी बढ़ी, जिसका असर पानी पर पड़ा. अब हालात ये हैं कि यहां बहुत जगहों पर 1500 फीट गहरे बोरवेल भी हैं, ताकि पानी मिल सके. लेकिन बारिश कम होने से जमीन के बहुत गहरे ये पानी भी सूखता जा रहा है. 

bengaluru water crisis history and reasons photo PTI

क्यों होती है यहां कम बारिश 

बेंगलुरु समुद्र से काफी ऊंचाई पर स्थित है. चूंकि ये तटीय शहर तो है नहीं, लिहाजा मॉनसून यहां कमजोर पड़ जाता है. बारिश की कमी का सीधा असर भूजल पर होता है. लेकिन फिर सवाल आता है कि बारिश तो कई राज्यों में कम होती है, फिर यहां जैसा जल संकट क्यों नहीं दिखता? तो कर्नाटक में ग्राउंड वॉटर की प्रकृति बाकी जगहों के मुकाबले कुछ अलग है. मसलन, यहां की जमीन पथरीली है, जो पानी की सोख नहीं पाती. इससे थोड़ा पानी गिरने पर ही फ्लड जैसी स्थिति आ जाती है और जल्द ही ये पानी गायब भी हो जाता है. 

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शहर को दो तरीकों से पानी मिलता है

कावेरी पाइपलाइन के जरिए, और बोरवेल से. भूजल चूंकि सूख रहा है, लिहाजा बोर पर निर्भर आबादी गर्मियां आते ही किल्लत में आ जाती है. यहां तक कि भारी कीमत पर भी टैंकरों से पानी नहीं मिल पाता. पिछले साल डिप्टी सीएम ने ये बयान तक दे दिया था कि उनके खुद के घर में बोरवेल सूख चुका. अलजजीरा की एक रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्र ने साल 2018 में आशंका जताई थी कि दशक खत्म होने तक बेंगलुरु की 40 फीसदी आबादी को पीने का पानी नहीं मिल सकेगा. 

bengaluru water crisis history and reasons photo Reuters

तो क्या डे-जीरो की शुरुआत हो चुकी

डे-जीरो का मतलब है कि जब किसी जगह पर पानी पूरी तरह खत्म होने की कगार पर पहुंच जाए. तब वहां की आबादी को छोटी से छोटी जरूरत के लिए भी जूझना पड़ता है. साल 2018 में दक्षिण अफ्रीका का केपटाउन दुनिया का पहला शहर था, जो डे-जीरो के करीब पहुंच चुका था. यहां पानी का संकट ऐसा गहराया कि लोगों को रोज के हिसाब से निश्चित पानी दिया जाने लगा.

तब की एक दिलचस्प घटना है. जनवरी की बात है, जब अफ्रीका और भारत के बीच वहां क्रिकेट मैच था. पानी की सख्त पाबंदी के बीच वहां होटलों और स्टेडियम में भी नियम लागू हो गए. प्लेयर्स को नहाने के लिए भी सीमित पानी सप्लाई होता था. होटल में स्विमिंग पूल और लॉन्ड्री बंद हो गई थी. भारी पाबंदी और मशक्कत के बाद केपटाउन इससे बाहर निकल सका. लेकिन अब हमारा ही शहर इसकी जद में है. 

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क्या रेगिस्तान बन सकता है बेंगलुरु

जब किसी इलाके में पानी की कमी और पेड़ों का कटाव बढ़ने लगता है, तो ये आशंका बढ़ जाता है. इस प्रोसेस को डेजर्टिफिकेशन कहते हैं. शहर के मामले में भी इस डर से इनकार नहीं किया जा सकता. वैज्ञानिकों के मुताबिक, जिस इलाके में साल में 25 सेंटीमीटर से कम बारिश दर्ज होती है, उसे रेगिस्तान मान लिया जाता है. भारत में औसत बारिश 120 सेमी है, जो अलग-अलग महीनों को मिलाकर बनती है. जहां एवरेज रेन घटकर कुछ ही प्रतिशत बाकी रहे, वो रेगिस्तानी इलाका कहलाने लगता है.

इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं, जो हरे-भरे इलाके मरुस्थल में बदल गए. सहारा को ही लें तो हजारों साल पहले यहां हरियाली थी, लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के चलते ये जगह दुनिया के सबसे रेगिस्तान में बदल गई. उज्बेकिस्तान के अराल सागर को दुनिया की चौथी सबसे बड़ी झील माना जाता था लेकिन जरूरत से ज्यादा खेती और पानी के रिसोर्सेज के गलत इस्तेमाल झील रेत का मैदान बनकर रह गई. 

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