इस साल की शुरुआत में चीन ने कई देशों को राजी कर लिया कि वे उसके साथ डॉलर की बजाए चीनी मुद्रा में व्यापार करें. ब्राजील, अर्जेंटिना समेत कई अफ्रीकी देश चीन के पाले में आ गए. इधर रूस भी अपनी करेंसी को मार्केट में लाने की फिराक में है. खुद भारत इस तरह के संकेत दे चुका. ये तो हुई देशों की अपने स्तर पर कोशिश, लेकिन अगर ब्रिक्स जैसा मजबूत संगठन ऐसा करेगा तो डॉलर के सिर से ताज उतरना तय है.
कैसे डॉलर ने दुनिया पर कब्जा कर लिया?
सेकंड वर्ल्ड वॉर के बाद का समय था. अमेरिका को छोड़कर ज्यादातर देशों में भयंकर तबाही मची थी. इमारतें, सड़कें, पुल सारा सिस्टम खत्म हो गया था. युद्ध खत्म होने के बाद देश खुद को सुधारने में लगे, लेकिन उनके पास पैसे तो थे ही नहीं. ऐसे में अमेरिका ने उन्हें मदद दी, बदले में देश एग्रीमेंट करने लगे कि इतने समय के भीतर वे इतना गोल्ड देंगे. अमेरिका ने देखा कि लोहा गरम है तो उसने अपना दांव खेला. वो देशों से कहने लगा कि गोल्ड की बजाए, वे अमेरिकी डॉलर में सौदा करें तो ज्यादा बढ़िया रहेगा.
अमेरिका के पास सबसे बड़ा गोल्ड भंडार
तब न्यू हैम्पशर के ब्रेटन वुड्स में विकसित देश मिले और उन्होंने अमरीकी डॉलर के मुकाबले सभी मुद्राओं की विनिमय दर तय की. उस समय अमरीका के पास दुनिया का सबसे बड़ा गोल्ड रिजर्व था. ये मान लीजिए कि पूरी दुनिया का तीन-चौथाई सोना उसके पास था. इससे उसकी बात और उसकी मुद्रा दोनों की मजबूती पक्की हो गई.
मुद्रा से पहले क्या था?
इससे ठीक पहले कोई तय इंटरनेशनल मुद्रा नहीं थी. जबकि और पहले की बात करें तो कोई करेंसी ही नहीं थी. तब बार्टर सिस्टम से काम होता था, यानी बकरी देकर मुर्गियां खरीद लीजिए, या टमाटर के बदले साग खरीदिए. जिसके पास जो होता, और जिसे उसकी जरूरत होती, दोनों अपनी चीजें अदल-बदल कर लेते. करीब 5 हजार ईसा पूर्व मेटल को मनी के तौर पर यूज करना शुरू कर दिया गया. यहीं से सिक्के बने, और फिर कागजी मुद्रा आई. अपने-अपने गोल्ड रिजर्व के आधार पर दुनियाभर के देश अपनी करेंसी छापने लगे.
क्या हम अपनी खुद की मुद्रा ला सकते हैं?
हां. अगर लोग उसे करेंसी मानने को तैयार हों और उसके बदले कीमती चीजें दे सकें तो आप अपनी खुद की मुद्रा बना सकते हैं. लेकिन जितना लग रहा है, ये उतना आसान नहीं. इसके लिए पूरी प्लानिंग की जरूरत होती है, और प्राइवेट करेंसी लीगल भी नहीं. ये वैसा ही है, जैसे एक देश के बीचोंबीच अपना देश खड़ा कर देना. ये दुनिया से कटने की तरह है, जबतक कि इसे कानूनी और लोगों की सहमति नहीं मिल जाती.
बार्टरिंग सिस्टम शुरू करने की बात होती भी रही
अर्जेंटिना में साल 2001 के दौरान मुद्रा की वैल्यू बहुत कम हो गई. तब ग्लोबल बार्टर क्लब नाम से एक संस्थान बना. ये बार्टरिंग सिस्टम पर काम करता था, यानी एक चीज के बदले दूसरी का लेनदेन. लेकिन जल्द ही ये सिस्टम बंद करना पड़ा. लोन लेकर अर्जेंटिना ने दोबारा सामान्य स्टेट में लौट सका.
क्यों नहीं हो सकता ऐसा?
साल 2008 की मंदी के दौरान भी कई देशों ने बार्टर सिस्टम शुरू करने की बात की थी, लेकिन करेंसी के आने के बाद ये उतना आसान नहीं. बार्टरिंग के फेल होने का भी डर है क्योंकि पहले आसपास के लोग आपस में लेनदेन करते थे, जबकि अब देशों के स्तर पर इंपोर्ट-एक्सपोर्ट होता है. साथ ही गोदाम और क्वालिटी चेक भी मुद्दा हैं. कुल मिलाकर, बार्टरिंग या नई करेंसी की बात जरा मुश्किल ही है. इसमें सबसे बड़ी बात है भरोसा और ग्लोबल इंपोर्ट-एक्सपोर्ट, जो करेंसी के बगैर संभव नहीं.
इस द्वीप पर है स्टोन करेंसी का चलन
प्रशांत महासागर से घिरे यप द्वीप में छोटे साइज से लेकर इंसानी आकार के सिक्के चलते हैं. लगभग सौ स्क्वायर किलोमीटर में फैले इस द्वीप में लगभग 12 हजार लोग रहते हैं, जो कई गांवों में बंटे हैं. हर गांव और हर परिवार के पास कुछ सिक्के होते हैं. जिसके पास जितने ज्यादा और जितने भारी पत्थर होंगे, वो उतना ही अमीर माना जाएगा. भारी पत्थरों के बीच एक बड़ा छेद रहता है ताकि जिसे वो करेंसी दी जाए, वो उसे ठेलकर अपने घर तक ले जा सके.
पहले सीप भी हुआ करती थी मुद्रा
स्टोन करेंसी की शुरुआत के बारे में कहीं खास जानकारी नहीं मिलती कि इसकी शुरुआत क्यों और कैसे हुई. माना जाता है कि इसकी एक वजह यप पर किसी भी तरह की बहुमूल्य धातु या कच्चे माल का न मिल पाना है. यहां न तो सोना है, न कोयला. ऐसे में सदियों पहले इन्होंने चूना पत्थर को ही करेंसी की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया होगा. कुछ सालों पहले समुद्र में मिलने वाली सीपियां भी यहां पैसों की कीमत रखा करती थीं.