यूनाइटेड नेशन्स के क्लाइमेंट चेंज कॉफ्रेंस की सालाना बैठक दुबई में चल रही है. यहां जलवायु परिवर्तन पर बात करने की बजाए इस बार बड़े फैसले लिए जा सकते हैं. माना जा रहा है कि चूंकि यहां करीब-करीब सारे देश मौजूद होंगे, इसलिए रूस-यूक्रेन युद्ध या हमास-इजरायल की लड़ाई पर भी बातचीत हो सकती है. हालांकि असल फोकस क्लाइमेट चेंज और ग्रीन हाउस गैसों को कम करने पर ही रहेगा.
क्या नया हुआ समिट में
गुरुवार को बैठक के पहले दिन एक बड़ा एलान हुआ. इसमें लॉस एंड डैमेज फंड की बात हुई. ये मदद उन देशों तक पहुंचाई जाएगी, जहां क्लाइमेंट चेंज की वजह से आपदाएं आईं.
क्यों जरूरी है ये बैठक
ग्लोबल अलायंस ऑन हेल्थ एंड पॉल्यूशन के मुताबिक, दुनिया में अब तक हुए सारे युद्धों से 15 गुना ज्यादा, और AIDS, टीबी, मलेरिया जैसी बीमारियों से 3 गुना ज्यादा खतरनाक है पॉल्यूशन. प्रदूषित देशों में हो रही हर 4 में से 1 मौत की वजह प्रदूषण ही है. ऐसे में इसपर चर्चा और फैसले जरूरी हो चुके.
कौन सा देश सबसे ज्यादा प्रदूषण कर रहा
ग्लोबल पॉल्यूटर्स में चीन सबसे ऊपर है. ये देश अकेला ही कई देशों से ज्यादा पॉल्यूशन फैलाता है, यहां तक कि सेकंड नंबर पर सबसे ज्यादा प्रदूषण करने वाले देश अमेरिका का ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन भी इससे आधा से कम है. चीन से सालाना लगभग 13 बिलियन मैट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड पैदा होती है. साल 1850 से अब तक ये मुल्क करीब 3 सौ बिलियन टन जहरीली गैसें उत्सर्जित कर चुका.
अमेरिका में प्रति व्यक्ति औसत है ज्यादा
अमेरिका चूंकि पहले से इंडस्ट्रीज शुरू कर चुका इसलिए उसका कुल कार्बन उत्सर्जन चीन से ज्यादा है. थिंक टैंक रोडियम ग्रुप का कहना है कि एक औसत अमेरिकी सालभर में लगभग साढ़े 17 टन जहरीली गैसों का उत्सर्जन करता है, जबकि चीनी लोग 10 टन पर हैं. तो ऐसे में देखा जाए तो अमेरिका और चीन की वजह से दुनिया में सबसे ज्यादा पॉल्यूशन फैल रहा और क्लाइमेट चेंज की वजह बन रहा है.
न केवल अमीर देश, बल्कि अमीर लोग भी ग्रीनहाउस गैसों के निकलने का कारण बन रहे हैं. वे क्या पहनते हैं, कैसे रहते और कैसे यात्रा करते हैं, इससे जहरीली गैसें कम या ज्यादा होती हैं. मसलन, कोई व्यक्ति पब्लिक ट्रांसपोर्ट से सफर करे और कोई अकेले ही पूरा याच या प्लेन बुक करके चले तो जाहिर बात है कि ज्यादा पॉल्यूशन दूसरे केस में हो रहा है.
एक्सपर्ट मानते हैं कि अमीर देश और सिर्फ कुछ अमीर ही अगर अपना फुटप्रिंट कुछ छोटा कर सकें तो ग्लोबल वार्मिंग की रफ्तार पर बड़ा ब्रेन लग सकेगा. पेरिस में एक संस्था है, वर्ल्ड इनइक्वैलिटी लैब. (WIL) ये इसी चीज पर काम करती है कि कौन कितना प्रदूषण फैला रहा है. इसके मुताबिक दुनिया के सिर्फ 10 प्रतिशत अमीर लोग ही 50% से ज्यादा कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं. बाकी 90 प्रतिशत आबादी उनके किए का खामियाजा भुगत रही है. ये कार्बन इनइक्वैलिटी है. समिट में इसपर भी बात हो सकती है.
खतरनाक है ये गैर-बराबरी
अमीर देश फ्यूल का धड़ल्ले से इस्तेमाल करके लगातार और अमीर हो रहे हैं. जबकि गरीब देश क्लाइमेंट चेंज के सबसे बड़े एग्रीमेंट पेरिस समझौते के तहत खुद को रोके हुए हैं. इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि कतार में कहीं पीछे लगा व्यक्ति लाइन तोड़ने में यकीन नहीं रखता लेकिन लोगों की धक्का मुक्की की वजह से, और बाद में आए लोगों के लाइन में घुस आने की वजह से वो व्यक्ति और पीछे रह जाए.
क्या प्रदूषण पर कोई टैक्स भी है
ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर कंट्रोल के लिए कार्बन टैक्स लगाया जाता है. ये वो टैक्स है जो प्रदूषण के बदले देना होता है. इसका मकसद है कि धीरे-धीरे जहरीली गैसों का बनना रोका जा सके. सरकारें कार्बन के उत्सर्जन पर प्रतिटन मूल्य तय करती हैं और फिर इसे बिजली, गैस या तेल पर टैक्स में बदल देती हैं. चूंकि इस टैक्स की वजह से ज्यादा कार्बन पैदा करने वाला फ्यूल महंगा हो जाता तो लोग टैक्स देने से बचने के लिए कार्बन के कम उत्सर्जन वाले तरीके खोजते हैं.
कई लूपहोल्स हैं एग्रीमेंट में
ये टैक्स ग्लोबल तौर पर एक्टिव नहीं. वहीं यूएन की बैठकों में केवल ग्रीनहाउस गैसें पैदा करने वाले देशों को डेडलाइन दी जाती रही कि वे फलां साल तक इसपर कंट्रोल कर लें. यानी सबकुछ देशों के विवेक पर छोड़ दिया गया है, जिसका खामियाजा छोटे देश उठा रहे हैं.
भारत इसमें कहां खड़ा है
भारत को भी टागरेट मिला है कि वो साल 2030 तक कार्बन उत्सर्जन 45% तक कम कर ले. हम वैसे तो कार्बन एमिशन में तीसरे नंबर पर हैं, लेकिन आबादी के लिहाज से देखें तो हमारा पर कैपिटा उत्सर्जन काफी कम है. फिलहाल हमारी सरकार ने वादा किया है कि वो साल 2070 तक इस उत्सर्जन को नेट जीरो तक ले जाएगी. ये वो अवस्था है जब किसी देश की वजह से कोई भी जहरीली गैस नहीं निकलती है.