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ज्यादा वोटों के बावजूद कैसे कोई उम्मीदवार हार जाता है, क्या है US का इलेक्टोरल कॉलेज जिसमें जनता सीधे नहीं चुन सकती राष्ट्रपति?

अमेरिका को दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में गिना जाता है, लेकिन इसके नागरिक अपना राष्ट्रपति खुद नहीं चुन सकते. यह काम इलेक्टोरल कॉलेज के हिस्से है. इसकी वजह से कई बार ज्यादा वोटों के बावजूद कैंडिडेट पीछे रह गए, जबकि दूसरा उम्मीदवार इलेक्टोरल कॉलेज के चलते वाइट हाउस पहुंच गया. गुलाम प्रथा के दौर में बना ये सिस्टम आज भी चला आ रहा है.

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अमेरिका में इलेक्टोरल बॉडी राष्ट्रपति का चुनाव करती है. (Photo- Getty Images)
अमेरिका में इलेक्टोरल बॉडी राष्ट्रपति का चुनाव करती है. (Photo- Getty Images)

US में जनता अपना सुप्रीम लीडर यानी राष्ट्रपति खुद नहीं चुनती है, बल्कि ये काम इलेक्टोरल कॉलेज के पास है. ये इलेक्टोरल वोट्स हैं. कई राज्यों में ये वोट ज्यादा होता है, लिहाजा पॉपुलर वोट्स के ज्यादा होने के बाद भी डर रहता है कि उम्मीदवार हार सकता है. अमेरिका में जॉर्ज डब्ल्यू बुश से लेकर डोनाल्ड ट्रंप इसी वजह से जीत सके. 

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क्या है इलेक्टोरल कॉलेज

यह एक बॉडी है, जो जनता के वोट से बनती है ताकि अमेरिका में राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति चुने जा सकें. इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि जनता कुछ अधिकारियों को चुनती है, जो इलेक्टर्स होते हैं. ये मिलकर इलेक्टोरल कॉलेज बनाते हैं. 

फिलहाल कुल 538 इलेक्टर्स हैं. उम्मीदवार को बहुमत के लिए इनमें से 270 का साथ चाहिए होगी. ये सदस्य भी स्टेट की आबादी के अनुसार चुने जाते हैं. मतलब अगर किसी राज्य की आबादी ज्यादा है तो उसके इलेक्टर भी ज्यादा होंगे ताकि जनसंख्या की जरूरतों का प्रतिनिधित्व सही ढंग से हो. मसलन, कैलिफोर्निया से सबसे ज्यादा 54 इलेक्टर्स हैं, वहीं अलास्का और डेलावेयर जैसे छोटे राज्यों के पास 3 ही इलेक्टर हैं. 

electoral college system in usa amid donald trump and kamala harris america presidential election 2024 photo AP

क्या गुणा-भाग करती हैं पार्टियां

चूंकि जीत तय करने का काम जनता के वोट की बजाए इलेक्टोरल कॉलेज के पास होता है लिहाजा पार्टियां इसमें अलग गणित लगाती हैं. राष्ट्रपति पद के लिए 270 इलेक्टर्स का वोट काफी है. किसी भी स्टेट में जो भी पार्टी जीतती है, सारे इलेक्टर्स उसी के हो जाएंगे. यानी अगर पार्टी बड़े राज्यों पर फोकस करे तो जीत की संभावना बढ़ जाएगी. यही वजह है कि दोनों ही प्रमुख पार्टियां कुछ खास राज्यों को टारगेट करती और वहां के मतदाताओं को लुभाती हैं ताकि अगर वो जीतें तो इलेक्टोरल कॉलेज में उसकी मेंबर बढ़ जाएं. अमेरिका में 18वीं सदी से यही सिस्टम चला आ रहा है. 

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दासों को आम नागरिक से कम मानने के लिए बने इलेक्टर्स

अमेरिका में साल 1787 में इलेक्टोरल कॉलेज सिस्टम शुरू हुआ. इसके पीछे भी लंबी झिकझिक थी. संविधान बनाने वाले तय नहीं कर पा रहे थे कि प्रेसिडेंट चुनने का सही तरीका क्या हो, जिसमें सब पारदर्शी रहे. कुछ प्रतिनिधियों ने सुझाया कि राष्ट्रपति का सीधा चुनाव जनता करे, लेकिन ये प्रपोजल कई बार खारिज होता रहा. इसे नामंजूर करने का एक बड़ा कारण था, वो समझौता जिसमें पांच दासों को तीन वोट जितना समझा जाता था. बता दें कि तब अमेरिका में गुलाम प्रथा थी. दक्षिणी राज्यों में गुलाम ज्यादा थे. उत्तरी हिस्सा चाहता था कि दास वोटिंग से दूर रहें, जबकि दक्षिणी राज्य जोर लगाए हुए था कि उन्हें भी शामिल किया जाए ताकि दक्षिण के पास संसद में ज्यादा ताकत आ सके. 

आखिरकार तीन-पांचवा समझौता हुआ. इसमें पांच स्लेव्स के वोट तीन वोट जितने गिने जाते थे. अब गुलाम चूंकि ज्यादा थे, तो अमेरिकी प्रतिनिधियों को डर था कि संसद में उनका कोई प्रतिनिधि न पहुंच जाए. इसलिए ही इलेक्टोरल बॉडी बनाई गई. बाद में यही सिस्टम चलता रहा. 

electoral college system in usa amid donald trump and kamala harris america presidential election 2024 photo AFP

इस सिस्टम में चूंकि पॉपुलर यानी देशभर से ज्यादा वोटों की बजाए, इलेक्टोरल यानी राज्य-विशेष के वोट मायने रखते हैं इसलिए कई बार ज्यादा मतों से आगे रहता उम्मीदवार भी हार जाता है, अगर उसे बड़ी आबादी वाले राज्यों में जीत न मिली हो.

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साल 2000 में अल गोर को पॉपुलर वोट ज्यादा मिले, लेकिन जॉर्ज डब्ल्यू बुश के पास इलेक्टोरल वोट ज्यादा हो गए, लिहाजा वही राष्ट्रपति बने. इसी तरह से साल 2016 में हिलेरी क्लिंटन को पूरे देश में लगभग 3 मिलियन ज्यादा लोगों ने वोट दिया, लेकिन वे डोनाल्ड ट्रंप से हार गईं क्योंकि ट्रंप के पास बड़े राज्यों के इलेक्टोरल वोट थे. 

कई स्विंग स्टेट भी हैं, जो किसी एक पार्टी का गढ़ नहीं. यहां रिपब्लिकन्स या डेमोक्रेट्स दोनों के जीतने की संभावना रहती है, जो भी ज्यादा जोर लगा सके. चूंकि यहां वोटरों का रुझान बदलता रहता है, लिहाजा दोनों ही पार्टियां इनपर पूरा जोर लगाती हैं कि वोटर उनके पाले में चले आएं ताकि इलेक्टोरल वोट ज्यादा हो सकें. पेंसिल्वेनिया, अरिजोना, मिशिगन, नेवाडा और फ्लोरिडा जैसे राज्य अक्सर स्विंग रहते आए हैं. 

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