आने वाली 8 फरवरी को पाकिस्तान में आम चुनाव होंगे. इस बीच निर्वाचन आयोग ने आदेश दिया कि राजनीतिक दल सामान्य सीटों से कम से कम 5 प्रतिशत महिला उम्मीदवार भी लाएं. इसके तुरंत बाद ही पाकिस्तान पीपल्स पार्टी ने वो एलान किया, जिसकी चर्चा लगातार हो रही है. उसने हिंदूअल्पसंख्यक समुदाय की डॉ. सवीरा प्रकाश को खड़ा कर दिया, वो भी खैबर पख्तूनख्वा से, जहां से माइनॉरिटी पर हिंसा की खबरें अक्सर आती रहती हैं.
आजाद पाकिस्तान में 20 प्रतिशत से ज्यादा अल्पसंख्यक थे, जिनकी आबादी अब घटकर करीब 3 प्रतिशत रह गई है. इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि वहां माइनॉरिटी किन हालातों में रह रही होगी. हालांकि पाकिस्तान दावा करता है कि उसके यहां सबको बराबरी मिली हुई है.
यहां अल्पसंख्यकों में हिंदुओं के अलावा सिख और क्रिश्चियन्स भी शामिल हैं. इन सबके लिए राजनीति में अलग प्रावधान और आरक्षण है. साल 2018 में जब पाकिस्तान में चुनाव हुए थे तो माइनोरिटी वोटरों की संख्या 30% तक बढ़ गई थी, लेकिन इससे खास फर्क नहीं पड़ा, बल्कि हिंसा की खबरें आती ही रहीं.
राजनीति में भी वो अल्पसंख्यकों का हक बनाए रखने की बात करता है. लेकिन उसके ही कुछ नियम इस क्लेम की पोल खोल देते हैं. मसलन, अहमदिया मुसलमान अगर खुद को वोटर भी मानना चाहें तो ऐसा मुमकिन नहीं. इसके लिए उन्हें इलेक्टोरल कॉलम में अपना धर्म बताना होगा. चूंकि उनके धार्मिक यकीन बाकी मुस्लिमों से अलग हैं, इसलिए उन्हें मुसलमान ही नहीं माना जाता. अगर वे खुद को नॉन-मुस्लिम कहें तो ये भी उनके मजहब के खिलाफ जाता है.
ऐसे में 5 लाख से ज्यादा अहमदिया आबादी को वोट करने का भी अधिकार नहीं. वो स्थानीय या नेशनल इलेक्शन का हिस्सा नहीं बन सकते हैं.
पॉलिटिक्स में सीधे जुड़ाव की बात की जाए तो भी पाकिस्तान दावा करता है कि वो माइनॉरिटी को बराबरी दे रहा है. वहां के संविधान में आर्टिकल 51(4) में इसके लिए कोटा है. इसके तहत अल्पसंख्यकों के लिए 10 असेंबली सीट्स होती हैं. प्रांत के चुनावों में नॉन-मुस्लिम के हक के लिए आर्टिकल 106 में प्रावधान है. यहां 23 सीटें आरक्षित हैं. पाकिस्तान की संसद
इस देश में कई राजनैतिक पार्टियां हैं, लेकिन लगभग सारी छुटपुट हैं. मुख्य पार्टियों की बात करें तो फिलहाल तीन ही पार्टियों ऐसी हैं जो सत्ता के करीब नजर आती हैं. ये हैं- पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ (पीटीआई), पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज (पीएमएल एन) और पाकिस्तान पीपल्स पार्टी यानी (पीपीपी). डॉ सवीरा खैबर से पीपीपी की कैंडिडेट बनकर खड़ी हो रही हैं. पेशे से मेडिकल प्रोफेशन डॉ. सवीरा के पिता भी राजनीति से जुड़े रहे.
पाकिस्तान के मानवाधिकार संस्थानों का कहना है कि माइनोरिटी को हक दिलाने में सबसे ज्यादा नुकसान अलग इलेक्टोरल सिस्टम से हुआ. सत्तर के दशक से इस देश में अल्पसंख्यकों की संख्या तेजी से घटी. इसके बाद साल सैन्य शासक जिया-अल-हक के दौर में तय किया गया कि अल्पसंख्यक सीधे चुनाव के जरिए अपने 10 मेंबर चुन सकते हैं, लेकिन आम चुनाव में हिस्सा नहीं ले सकते.
इससे अल्पसंख्यक अपने-आप ही बहुसंख्यकों से कट गए. बाद में इसमें बदलाव हुआ और जॉइंट इलेक्शन होने लगे, लेकिन इसके बाद भी नॉन-मुस्लिम आबादी का प्रतिनिधित्व उतना नहीं हो सका. आरोप लगता है कि पार्टियां माइनॉरिटी में भी उन्हीं को चुनती हैं, जो 'यस-मैन' की तरह काम कर सकें.