कनाडा के एक खास आयोग ने वहां की सरकार से इलेक्शन्स में भारत द्वारा संभावित छेड़छाड़ की जानकारी मांगी है. कमेटी को खुद पीएम जस्टिन ट्रूडो ने ही पिछले साल सितंबर में बनाया था. लेकिन ट्रूडो सरकार जब खुद चुनी गई है तो उसे भला जांच कमेटी बनाने की क्या जरूरत? तो इसका जवाब भी मौजूदा पीएम के लिए बढ़ते असंतोष में है.
क्या है ताजा मामला
असल में हुआ ये कि बीते कुछ समय से ट्रूडो के खिलाफ उनके अपने ही देश में हवा बन रही है. उनके काम के तौर-तरीकों पर सवाल होती रहा. साथ ही विपक्ष को ये संदेह भी है कि उनके चीन के साथ संबंध देश को गलत दिशा में ले जाएंगे. विपक्ष के इन्हीं आरोपों का जवाब देने के लिए ट्रूडो को कमेटी बनानी पड़ी. इसके सदस्य जांच करेंगे कि चीन, रूस, भारत या दूसरे किसी भी देश ने कनाडाई चुनावों पर कितना असर डाला है. ये जांच साल 2019 और 2021 के इलेक्शन पर होगी.
अमेरिका पर चुनावी दखल का सबसे ज्यादा आरोप
कनाडा का चुनाव पारदर्शी रहा हो या नहीं, इस पड़ताल होती रहेगी, लेकिन ये बात जरूर है कि बहुत से देश अपने पड़ोसियों या दुश्मन देशों के चुनाव में दखल देते रहे. इसमें सबसे ऊपर अमेरिका रहा. एक किताब मेडलिंग इन द बैलट बॉक्स के लेखक डव एच लेविन कहते हैं कि साल 1946 से लेकर 2000 के भीतर देशों में कुल 939 इलेक्शन हुए. इसमें अमेरिका ने 81 फॉरेन इलेक्शन के नतीजों पर असर डाला. वहीं रूस (तब सोवियत संघ) ने 36 चुनावों से छेड़खानी की. यानी कुल मिलाकर हर 9 में से 1 देश के चुनाव पर अमेरिका या रूस का असर रहा.
सीधे-सीधे असर नहीं डालता है
कोई भी देश फॉरेन इलेक्टोरल इंटरवेंशन सीधे-सीधे नहीं करता ताकि उसकी इमेज खराब न हो. वो चुपके से चुनावों पर असर डालता है. ये भी दो तरीकों से होता है. जब विदेशी ताकतें तय करती हैं कि उन्हें किस एक का साथ देना है. दूसरे तरीके में विदेशी शक्तियां लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव के लिए देशों पर दबाव बनाती हैं.
क्या फायदे हैं इसके
दूसरे देश के फटे में टांग अड़ाने से वैसे तो सारे देश बचते हैं लेकिन चुनाव अलग मुद्दा है. इसमें जो सरकार चुनकर आती है, उसकी फॉरेन पॉलिसी सिर्फ उसे ही नहीं, पड़ोसियों से लेकर दूर-दराज को भी प्रभावित करती है. वो किससे क्या आयात करेगा, क्या एक्सपोर्ट करेगा, किसका साथ देगा, या किसका विरोध करेगा, ये सारी बातें इसपर तय करती हैं कि वहां सेंटर में कौन बैठा है. ये वैसा ही है, जैसे पावर सेंटर पर किसी दोस्त का होना.
तनावपूर्ण रिश्तों वाले देशों में भी कोई न कोई पार्टी ऐसी होती है, जो विरोधियों से साठगांठ कर ले. यही कारण है कि बहुत से ताकतवर देश, अपने पड़ोसियों, दुश्मन देशों से लेकर लगभग सभी के चुनावों पर खास नजर रखते हैं. हमारे यहां कौन पीएम बन रहा है, इसका अमेरिका के लिए भी मोल है, और चीन के लिए भी.
किन तरीकों से चुनाव में लगती हैं सेंध
इसमें सबसे ऊपर है इंफॉर्मेशन मैनिपुलेशन. इसके तहत सूचनाओं से छेड़छाड़ करके उसे किसी एक पार्टी के पक्ष, और दूसरे के खिलाफ माहौल बनाया जाता है. टूलकिट जैसे टर्म इसी का हिस्सा हैं. इसके तहत किसी एक सरकार को निकम्मा या घूसखोर बताया जाता है.
वोटर अगर कम जानकार है तो उसे गलत बातों से तुरंत प्रभावित किया जा सकता है. कुल मिलाकर भ्रम पैदा करके अपने पक्ष में माहौल बनाया जाता है. बहुत से फेक अकाउंट बन जाते हैं, जो ट्रोलिंग करते या फेक न्यूज को फैलाते रहते हैं.
एक और तरीका साइबर डिसरप्शन है
इसके तहत खुफिया एजेंसियां अपने हैकर्स के जरिए चुनाव की बड़ी जानकारियां हैक कर लेते हैं. इसके बाद उसमें सेंध लगाना आसान हो जाता है. सिक्योरिटी ब्रीच के बाद गलत प्रेस रिलीज जारी हो सकती है, या फिर डेटा से छेड़छाड़ कर दी जाती है.
फॉरेन फंडिंग भी होती रही
कैंपेन फाइनेंसिंग भी चुनावों को हैक करने का एक तरीका रहा. इसमें विदेशी ताकतें किसी एक पार्टी या मेन चेहरे को चुपके से फंड करती हैं ताकि वो अपने पक्ष में माहौल बना सके. यही वजह है कि देश इलेक्शन फंडिंग में पारदर्शिता के लिए अलग-अलग तरीके बना रहे हैं ताकि पैसों की आवाजाही का पता लग सके.