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अगले 30 सालों तक रेडियोएक्टिव पानी समुद्र में छोड़ता रहेगा जापान, कितना खतरनाक हो सकता है ये दुनिया के लिए?

जापान ने समुद्र में फुकुशिमा न्यूक्लियर प्लांट का पानी छोड़ना शुरू कर दिया है. ये प्रोसेस चौबीसों घंटे अगले 3 दशक तक चलता रहेगा. जापान सरकार भले ही कह रही हो कि पानी में अब रेडियोएक्टिव तत्व नहीं रहे, लेकिन पूरी दुनिया घबराई हुई है. रेडियोएक्टिव मटेरियल अपनी सबसे कम मात्रा में भी तबाही मचाने वाले साबित होते रहे हैं.

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जापान ने रेडियोएक्टिव वेस्ट पेसिफिक में छोड़ना शुरू कर दिया. सांकेतिक फोटो (Unsplash)
जापान ने रेडियोएक्टिव वेस्ट पेसिफिक में छोड़ना शुरू कर दिया. सांकेतिक फोटो (Unsplash)

जापान को लेकर चीन, दक्षिण कोरिया से लेकर तमाम देश हो-हल्ला कर रहे हैं, जिसकी वजह है उसका फुकुशिमा न्यूक्लियर प्लांट से पानी समुद्र में छोड़ना. वैसे तो इस पानी की जांच खुद यूनाइटेड नेशन्स की एटॉमिक एजेंसी IAEA कर चुकी और भरोसा भी जता चुकी कि उसमें खास जहर नहीं, लेकिन तब भी देश डरे हुए हैं. कहीं न कहीं इस खौफ का कारण भी है. पुराने रिकॉर्ड्स गवाह हैं कि रेडियोधर्मी तत्व एक बार मिट्टी या पानी में घुले तो वर्षों तक उसे जहर बनाए रखते हैं. 

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सबसे पहले जापान का मामला जानते चलें

साल 2011 में भूकंप और सुनामी के चलते वहां के फुकुशिमा न्यूक्लियर प्लांट में ब्लास्ट हो गया. तब से प्लांट बंद पड़ा है और उसे ठंडा रखने के लिए इस्तेमाल हुआ रेडियोधर्मी पानी हजारों स्टेनलेस स्टील के टैंकों में जमा है. जापान कई सालों से इस पानी को समुद्र में फेंकने की अर्जी लगा रहा था, जिस पर पड़ोसी देश अड़ंगा लगाते रहे. उनका कहना था कि इससे पानी जहरीला हो जाएगा, और सी-एनिमल्स समेत इंसानों की मौत हो सकती है. 

सीफूड खरीदने पर लगाया बैन

यूएन की हामी के साथ जापान आज से ये पानी समंदर में छोड़ना शुरू कर चुका. ये प्रोसेस लगभग 30 साल तक चल सकता है. इस पर देश लगातार परेशान हैं. काफी हद ये परेशानी वाजिब भी है क्योंकि रेडियोधर्मी पानी में 60 से ज्यादा किस्म के रेडियोएक्टिव मटेरियल होते हैं, जो मिट्टी-पानी-हवा सब में जहर घोल सकते हैं. इसी डर की वजह से हांगकांग ने जापान से सी-फूड खरीदने पर पाबंदी लगा दी. वहीं चीन और दक्षिण कोरिया भी इस तरह की बात कर रहे हैं. 

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fukushima radioactive waste disposal into pacific ocean japan photo AFP

क्या बाकी है पानी में

जापान ने कथित तौर पर पानी को ट्रीटमेंट से गुजारा, जिसके बाद उसमें केवल ट्राइटियम बाकी है. ये भी रेडियोएक्टिव ही है. बाकी तत्वों से कम खतरनाक होने के बाद भी कई स्टडीज कहती हैं कि इसके संपर्क में आने पर कैंसर का डर रहता है. दूसरी तरफ यूएन का कहना है कि पानी की इतनी सफाई हो चुकी कि वो इंटरनेशनल मानकों पर खरा उतरता है. इससे हल्का-फुल्का असर भले हो, लेकिन सीधा और गंभीर कुछ नहीं होगा. 

तब क्यों हो रहा है विरोध

एक्सपर्ट्स के एक खेमे का कहना है कि ट्राइटियम को जितना हल्का बताया जा रहा है, ये उतना है नहीं. इसके गंभीर साइड इफैक्ट्स जल्द ही दिखाई देने लगेंगे, लेकिन तब बात इतनी आगे जा चुकी होगी कि उसे ठीक नहीं किया जा सकेगा. यहां तक कि खुद फुकुशिमा के मछुआरे पानी को समंदर में छोड़ने पर विरोध करते रहे हैं. 

और क्या विकल्प हो सकता था

जापान इस पानी को समंदर में छोड़ने की बजाए उसे भाप बनाकर उड़ा भी सकता था. उसने इस प्रोसेस पर काम भी शुरू किया, लेकिन ये काफी खर्चीला लगा. समुद्र में पानी छोड़ने पर करीब 23.3 मिलियन डॉलर लगेंगे, जबकि वाष्पीकरण में इससे 10 गुना से भी ज्यादा खर्च आएगा. यही वजह है कि फिर भाप बनाने की योजना ड्रॉप कर दी गई. 

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fukushima radioactive waste disposal into pacific ocean japan photo AFP

क्या है रेडियोधर्मी तत्व

रेडियोएक्टिव तत्व वे हैं, जिनसे खतरनाक अदृश्य विकिरणें निकलती हैं. ये लंबे समय तक मौजूद रहते हैं, इसका सबूत अमेरिका का मार्शल द्वीप है. यहां साल 1946 से 1958 तक यूएस ने कई न्यूक्लियर टेस्ट किए. ये समय दूसरे वर्ल्ड वॉर के बाद का था. अमेरिका अपनी पूरी तैयारी रखना चाहता था, जिसके लिए उसने प्रशांत महासागर में इस छोटे से द्वीप समूह को चुना. इसे ऑपरेशन क्रॉसरोड्स नाम दिया गया.

कितने लंबे समय तक टिकते हैं

इंडस्ट्रीज जैसे माइनिंग, परमाणु संयंत्र, रक्षा, साइंटिफिक प्रयोगों और मेडिसिन में भी कई प्रक्रियाओं के दौरान रेडियोधर्मी वेस्ट निकलते हैं. इसके कई प्रकार होते हैं, जो खत्म होने में कुछ दिनों से लेकर सैकड़ों साल भी ले सकते हैं. इसमें सबसे खतरनाक हाई लेवल वेस्ट है, जिसका असर जाने में हजारों साल लग जाता है. फिलहाल हम इनका असर जानने के शुरुआती दौर में ही हैं. यही वजह है कि जापान को लेकर बाकी देश बार-बार आगाह कर रहे हैं. 

इस द्वीप पर मची तबाही से लगा सकते हैं अनुमान

प्रशांत महासागर स्थित मार्शल आइलैंड पर अमेरिका ने चालीस के दशक से लेकर अगले 10 सालों तक लगातार न्यूक्यिलर टेस्ट किए. ये आइलैंड तब अमेरिकी प्रशासन के तहत आता था. असल में साल 1945 में दूसरे वर्ल्ड वॉर के खत्म होते हुए ही अमेरिका ने जापान के अधीन रहे आइलैंड पर कब्जा कर लिया था. द्वीप से उसे खास मतलब नहीं था. यहां किसी तरह का विकास करने की बजाए उसने न्यूक्लियर टेस्ट शुरू कर दिया. दुनिया का पहला हाइड्रोजन बम, जिसे आइवी माइक नाम दिया गया था, उसकी जांच भी यहीं हुई. इसके बाद कई हाइड्रोजन बम टेस्ट हुए. ये हिरोशिमा पर गिरे परमाणु बम से हजार गुना से भी ज्यादा घातक थे. 

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fukushima radioactive waste disposal into pacific ocean japan photo Getty Images

इतना खतरनाक था विस्फोट 

10 सालों के भीतर हुए इन परमाणु टेस्ट्स को हर दिन के हिसाब से बराबर-बराबर बांटा जाए तो मान सकते हैं कि आइलैंड पर पूरे दशक में लगभग 1.6 गुना हिरोशिमा-विस्फोट रोज होता रहा. मिट्टी जहरीली होने लगी और बहुत सी मौतें होने लगीं. तब सेना ने लोगों को जबर्दस्ती उठाकर दूसरी जगहों पर भेज दिया.

अब भी बाकी है असर

आखिरकार साल 1986 में अमेरिका ने मार्शल आइलैंड को आजादी दी. साथ में 150 मिलियन डॉलर का मुआवजा भी दिया गया. इसके बाद यहां लोग बसने लगे, लेकिन बिकिनी और रॉजेनलैप द्वीप अब भी खाली पड़े हैं. यहां की मिट्टी के बारे में वैज्ञानिक मानते हैं कि उसमें चेर्नोबिल से 10 से हजार गुना ज्यादा रेडियोएक्टिव तत्व हैं. इनमें प्यूटोनियम, यूरेनियम और स्ट्रोन्टियम 90 शामिल हैं. इन तत्वों के चलते यहां रहने वाले लोग ब्लड कैंसर और बोन कैंसर की चपेट में आ रहे हैं.

 

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