जासूसी की बात करें तो आमतौर पर दिमाग में जेम्स बॉन्ड सरीखा चेहरा बनता है, जो हैट-कोट पहनकर कैमरा और पिस्टल लिए घूमता हो. लेकिन मॉडर्न जासूस इससे अलग हैं. वे पानी के जीव भी हो सकते हैं, या फिर मासूम लगने वाली बिल्ली भी. यहां तक कि वैज्ञानिक भी जासूसी की होड़ में शामिल हो चुके. वे असली पक्षी या कीड़े की तरह दिखने वाले उपकरण बना रहे हैं, जो आराम से कहीं भी पहुंच सकें और अपना काम करके चलते बनें.
ऐसे जीव-जंतुओं में सबसे पहला नाम है कबूतरों का
ये अकेला ऐसा पक्षी है, जो हर हाल में अपने मालिक (दाना खिलाने वाले) के पास लौटकर आता है. इन्हें प्रशिक्षण देना भी आसान होता है. कबूतरों की एक किस्म रेसिंग होमर कहलाती है, ये बहुत तेज उड़ते हैं, और अपना काम करके ही लौटते हैं. उनके पैरों पर कैमरा फिट किया जाने लगा ताकि दुश्मन के ठिकाने और तैयारियों की झलक मिल सके.
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सेना ने ढाई लाख के लगभग कबूतरों को नौकरी पर रखा था. इसके अलावा अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA ने पीजन मिशन शुरू किया, जिसका मकसद ही था कबूतरों को ट्रेंड करके उनसे जासूसी करवाना.
एनिमल ट्रेनर करते थे प्रशिक्षण देने का काम
इसके लिए एनिमल ट्रेनर काम करते थे. वे कबूतरों को जगहों, लोगों के चेहरे पहचानने की ट्रेनिंग देते. यहां तक कि वॉर के दौरान कई देशों ने इन्हें बायोलॉजिकल हथियार बनाने तक की तैयारी कर ली थी. काफी बाद में सीक्रेट दस्तावेज खुलने पर इस तैयारी की भनक लग सकी.
बिल्लियों का होने वाला इस्तेमाल
बिल्लियों को जासूस बनाने की कहानी बेहद खौफनाक है, जिसे 'ऑपरेशन एकॉस्टिक किटी' नाम दिया गया. CIA के पूर्व कर्मचारी विक्टर मर्चेटी ने एक बार कहा था- वे बिल्ली को बीच से काटते. उसके भीतर बैटरी डालते और उसे चलने-फिरने लायक बना देते. ऐसा लगता कि असल बिल्ली ही घूमफिर रही है, लेकिन वो होती जासूस.
स्मिथसोनियन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, कथित तौर पर इस जिंदा लगने वाली मुर्दा बिल्ली को बनाने में खुफिया एजेंसी को लगभग 5 साल लगे थे, और इसपर 1960 के दौर में लगभग 20 मिलियन डॉलर का खर्च आया था. ये शीत युद्ध का समय था, जब अमेरिका और रूस दोनों एक-दूसरे की जासूसी पर दिल खोलकर पैसे उड़ाते. ये क्लासिफाइड जानकारी नब्बे के दौरान लीक हो गई.
अंडरवॉटर स्पाईंग थोड़ी एडवांस चीज है
इसमें पानी में रहने वाले जीव-जंतु जासूसी करते हैं. चूंकि इसमें अंधेरे में देख सकने, और पानी में भी सब सुन सकने की ताकत होती है, लिहाजा ये किसी भी उपकरण से ज्यादा बेहतर हैं. 1960 के दौरान सोवियत संघ (अब रूस) ने सबसे पहले डॉल्फिन पर ये प्रयोग किया. उसने इन मछलियों को पानी के अंदर बारूदी सुरंगें खोजने का काम दिया. असल में सोवियत को अमेरिका पर शक था.
डॉल्फिनें एक और काम करतीं, वे बॉर्डर पुलिस की तरह सोवियत ब्लैक सी के चारों ओर घूमतीं और अगर कोई सीमा के भीतर आए तो इनसे तेज आवाज के साथ एक सिग्नल निकलता, जो सोवियत की नेवी को अलर्ट कर देता था.
अमेरिका का खौफनाक इरादा
रूस तो मछलियों से जासूसी करवा रहा था, लेकिन अमेरिका एक कदम आगे था. CIA का इरादा था कि वो इनकी मदद से दुश्मन देशों के जहाजों को डुबा दे. इस प्रोजेक्ट को ऑक्सीगैस नाम दिया गया था. स्पेशल ऑपरेशन्स डिवीजन की ये जानकारी साल 2019 में गलती से डीक्लासिफाई हो गई. इसके बाद ही ये ये खौफनाक इरादा सामने आया. अमेरिका ने डॉल्फिनों को इस तरह से तैयार किया था कि दुश्मन जहाज को पहचानकर उससे बारूद अटैच कर दें. ये टाइम बम की तरह कुछ समय बाद फट जाते. हालांकि कुछ अधिकारियों के एतराज जताने पर ये प्रोजेक्ट बीच में ही रोका गया.
अब बात करते हैं रशियन स्पाई व्हेल की
साल 2019 में एक बेलुगा व्हेल नॉर्वे के समुद्र में तैरती दिखी. वहां की घरेलू खुफिया एजेंसियों ने पाया कि व्हेल आम मछलियों से अलग है. वो नावों के करीब आने की कोशिश करती थी. यहां तक कि तेज आवाज से भी चौंकती नहीं थी. इनवेस्टिगेशन के बाद देश ने माना कि ये आम मछली नहीं, बल्कि ट्रेंड जासूस व्हेल है. हाल में इसी व्हेल का एक बार फिर आतंक मचा हुआ है. नावों को इसे बचकर रहने की सलाह दी जा रही है.
मकड़ियां और कीड़े करेंगे जासूसी!
फ्यूचर में जिंदा जीव-जंतुओं की बजाए उनके मुर्दा शरीर जासूसी के काम आ सकते हैं. देशों के इंटेलिजेंस पहले भी ये कोशिश करते रहे, लेकिन अब जाकर इसमें कामयाबी मिल रही है. इसे टैक्सीडर्मी कहते हैं. इसमें मुर्दा मकड़ियों को स्टफ करके या उनमें किसी तरह का द्रव्य भरकर उन्हें अपने मुताबिक चलाया-फिराया जा सकेगा. इनमें कैमरा भी होगा और ऑडियो उपकरण भी, ताकि नजर रखी जा सके. इनसे जासूसी का एक फायदा ये है कि अगर ये पकड़े जाएं तो भी इनसे कोई राज नहीं उगलवाया जा सकता.