पिछले साल 7 अक्टूबर को आतंकी गुट हमास ने इजरायल पर हमला करते हुए न केवल हजारों जानें लीं, बल्कि लगभग ढाई सौ लोगों को बंधक भी बना लिया. तब से इजरायल हमास को मिटाने पर तुला है. दोनों की लड़ाई का असर गाजा पट्टी पर हो रहा है, जो हमास का हेडक्वार्टर है. तब से अब तक कई देश बीचबचाव की कोशिश कर चुके, लेकिन अब UNSC बीच में आया है. उसने सीजफायर के पक्ष में वोटिंग की. सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य अमेरिका पहले सीजफायर के खिलाफ वीटो लगा चुका था, जबकि इस बार वो मतदान से दूर बना रहा.
क्या हुआ सोमवार को
सुरक्षा परिषद ने इजरायल और हमास- दोनों पक्षों से युद्ध पर तत्काल और स्थाई रोक की बात की. साथ ही हमास से बंधकों को छोड़ने के लिए कहा. चूंकि पांच स्थाई सदस्यों में से एक- अमेरिका ने वोटिंग ही नहीं की, लिहाजा ये प्रस्ताव पास हो गया. यहां बता दें कि स्थाई सदस्यों के पास वीटो पावर है. अगर एक मेंबर भी किसी प्रपोजल को मना कर दे तो वो अटक जाता है.
क्या इजरायल अब सुरक्षा परिषद की बात मानने के लिए मजबूर है?
इसे समझने के लिए पहले हमें UNSC की ताकत को समझना होगा. यूएन में कई सब-ग्रुप हैं. इसी में से एक है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, जो यूएन की सबसे पावरफुल शाखा है. इसपर अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा पक्की करने के साथ-साथ यूएन चार्टर में किसी भी बदलाव को मंजूरी देने की जिम्मेदारी है. ये बहुत बड़ी बात है क्योंकि इसका सीधा असर दुनिया के हर देश पर होता है.
आसान भाषा में समझें तो सुरक्षा परिषद के पास असीम ताकत है. वो अगर किसी देश पर पाबंदी लगाना चाहे तो यूएन के सदस्य देश उसे मानेंगे ही. या फिर काउंसिल अगर चाहे तो सीजफायर भी करवा सकता है. ये ताकत दूसरी किसी भी इंटरनेशनल बॉडी के पास नहीं.
कौन से देश हैं हिस्सा
UNSC की मेंबरशिप दो तरह की होती है- स्थाई और अस्थाई. केवल पांच ही देश इसके परमानेंट सदस्य हैं. इसके अलावा अस्थाई सदस्यता भी है, जो 10 देशों को मिलती है. ये हर दो साल में बदलते रहते हैं. स्थाई सदस्यों के पास सारी ताकत है. यह भी कह सकते हैं कि यही देश इस ग्रुप के कर्ता-धर्ता हैं. फिलहाल स्थाई सदस्यों में ब्रिटेन, चीन, फ्रांस, रूस और यूनाइटेड स्टेट्स हैं. ये सारे वो देश हैं जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद ताकत की तरह उभरे.
यूएन चाहे तो क्या कर सकता है?
- UN उन दो देशों को एक मेज पर ला सकता है, जिनके बीच विवाद चल रहा हो, साथ ही उन्हें समझौता करने कह सकता है.
- वो यह सलाह भी दे सकता है कि विवाद को इंटरनेशनल कोर्ट ले जाया जाए.
- अगर शांति से कहने पर बात न बने तो आक्रामक देश पर आर्थिक बैन लगाने का भी उसे अधिकार है.
- प्रस्ताव न मानने पर फॉलोअप रिजॉल्यूशन लाया जा सकता है.
- इसमें कई बातें हो सकती हैं. जैसे मेंबर देशों की मदद से हिंसक देश में सेना भेजना.
तो क्या इजरायल ये प्रस्ताव मानेगा
चूंकि इजराइल UNSC का स्थाई या अस्थाई सदस्य नहीं, लिहाजा वो रिजॉल्यूशन को मानने के लिए मजबूर नहीं है. इस केस में सुरक्षा परिषद इतना भर कर सकती है कि इनकार करने पर इजरायल पर कई आर्थिक पाबंदियां लगा दे. लेकिन इसके लिए भी सदस्य देशों की मंजूरी जरूरी है. अगर परमानेंट सदस्यों में से किसी एक ने भी इसपर वीटो लगाया तो परिषद ये नहीं कर सकेगा.
क्या अमेरिका ने इजरायल का साथ छोड़ दिया
अमेरिका भले ही इजरायल पर दबाव बनाने वाले मतदान में शामिल नहीं हुआ, लेकिन प्रस्ताव आने के बाद उसने अपरोक्ष रूप से इजरायल को सपोर्ट जरूर किया. यूएस स्टेट डिपार्टमेंट के प्रतिनिधि मैथ्यू मिलर ने कहा कि यह एक नॉन-बाइंडिंग प्रस्ताव है. मतलब इसे मानने की अनिवार्यता नहीं. वहीं वाइट हाउस के टॉप अधिकारी जॉन किर्बी ने कहा कि इजरायल को लेकर अमेरिका के रुख में कोई बदलाव नहीं आया है. वो हथियारों से उसकी मदद करता रहेगा.
पहले कब युद्ध रुकवा सका है यूएनएससी
ये जानने के लिए थोड़ा पीछे चलते हैं. पहला मामला है इजरायल-फिलिस्तीन विवाद का. साल 1948 में यहूदी स्टेट बनने के बाद से लगातार इजरायल और फिलिस्तान के बीच तनाव बना रहा. अगले तीन सालों के भीतर हजारों फिलिस्तीनी नागरिक मारे गए, और लगभग 2 मिलियन की आबादी में से 7 लाख लोग शरणार्थी बन गए. यूनाइटेड नेशन्स की सिक्योरिटी काउंसिल ने कई बार वीटो पावर लगाई, कितने ही प्रतिबंध लगाए लेकिन तनाव और बीच-बीच में झड़पें रुक नहीं सकीं.
सोमालिया में हुई थी खासी परेशानी
सोमालिया का गृहयुद्ध भी ऐसा ही एक उदाहरण है. ये सिलसिला जनरल सियाद बर्रे की तानाशाही वाले दौर से शुरू हुआ. साल 1991 में बर्रे के निजाम के ढहने के साथ ही सोमालिया गृहयुद्ध की गिरफ्त में चला गया. अलग-अलग कबीले आपस में लड़ने लगे. सबको देश पर अपना राज चाहिए था. तब यूएन ने खास सोमालिया के लिए एक मिशन चालू किया. इसका मकसद था, सिविल वॉर को रोकना और भूख से मरते लोगों को बचाना.
यूएनएससी ने यहां 43 मिलियन डॉलर लगाए थे लेकिन मिशन फेल हुआ, यहां तक कि सोमालियन जनता यूएन के दफ्तरों पर ही हमले करने लगी थी. इस देश की सरकारी वेबसाइट पर भी इसका जिक्र है. खुद सोमालिया की सेना भी सुरक्षा परिषद के आदेश मानने में टामलटोल करती थी.