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आग उगलते ज्वालामुखी धरती पर ला सकते हैं हिमयुग, क्या है ग्लोबल कूलिंग पीरियड जो पहले भी आ चुका?

आइसलैंड में एक के बाद एक लगातार ज्वालामुखी फटने की घटनाएं हो रही हैं. इस बीच ये चर्चा भी उठी कि ताकतवर वॉल्केनिक इरप्शन से तपती हुई धरती का तापमान कम हो सकता है. इसे ग्लोबल कूलिंग पीरियड कहते हैं, जो पहले भी कई बार दिख चुका है. एक्सपर्ट मानते हैं कि बेहद ताकतवर ऐसे ही किसी विस्फोट के चलते आखिरी हिमयुग जाते-जाते ठहर गया होगा.

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वॉल्केनिक विस्फोट से कई बार धरती का टेंपरेचर कम हो चुका. (Photo- Unsplash)
वॉल्केनिक विस्फोट से कई बार धरती का टेंपरेचर कम हो चुका. (Photo- Unsplash)

द्वीपदेश आइसलैंड में शनिवार को काफी शक्तिशाली ज्वालामुखी विस्फोट के बाद इमरजेंसी लगी हुई है. वहां का आसमान धुएं और धूल से अटा पड़ा है. इस बीच कई सर्विसेज रोक दी गईं ताकि लावा और धुएं से कोई खतरा न आ जाए. साथ ही प्रभावित इलाके के आसपास के कस्बे खाली कराए जा चुके हैं. वैसे ज्वालामुखी का फटना कुदरती आपदा तो है, लेकिन इस मुसीबत के बारे में साइंस ये भी कह रहा है कि काफी ताकतवर विस्फोट दुनिया को ग्लोबल वार्मिंग से भी बचा सकता है. 

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नब्बे के दशक में हो चुकी एक घटना

15 जून 1991 को फिलीपींस के माउंट पिनातुबो में एक विस्फोट हुआ, जो इतना भयंकर था कि लावा समेत गैस और राख 40 किलोमीटर से भी आगे तक चली गई. लेकिन आने वाले कुछ हफ्तों में कुछ और भी हुआ. धूल और धुआं फैलता रहा और वातावरण की उस परत तक पहुंच गया, जिसे स्ट्रेटोस्फियर कहते हैं. इसके बाद ये दुनिया में फैल गया. तब से लेकर अगले कई महीनों तक ग्लोब का तापमान 0.5 डिग्री सेल्सियस तक कम रहा. 

रहस्यमयी विस्फोटों से तापमान हुआ था काफी कम

19वीं सदी की शुरुआत से लेकर कई सालों तक इंडोनेशिया के माउंट तंबोरा में कई विस्फोट हुए थे. इन्हें रहस्यमयी इरप्शन कहा जाता है क्योंकि इनके बारे में खास जानकारी कभी नहीं मिल सकी. लेकिन ये इतने स्ट्रॉन्ग थे कि धरती का तापमान थोड़ा-बहुत नहीं, बल्कि सीधे 1.7 डिग्री सेल्सियस तक घट गया.  पहले भी ऐसी कई घटनाएं हो चुकीं. ज्वालामुखी के फटने के कुछ समय के भीतर तापमान कम होने को लेकर कोई तो संबंध था. वैज्ञानिक इसपर काम करने लगे, और जल्द ही नतीजों तक पहुंच गए. 

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how super volcanic eruption can slow down global warming photo AP

कैसे होता है ऐसा

ज्वालामुखी के बेहद ताकतवर विस्फोट से लावा ही नहीं निकलता, साथ में भारी मात्रा में सल्फर गैस भी निकलती है. ये वायुमंडल की दूसरी गैसों के साथ मिलकर एरोसोल बना लेती है. यह छोटी-छोटी तरल बूंदों की घनी परत है, जो ऊपर की तरफ इस तरह छा जाती है कि सूरज की किरणें सीधी धरती पर न आ सकें. इससे दुनिया ठंडी हो जाती है. ये ठंडापन कितने दिन या कितना ज्यादा होगा, यह इसपर तय करता है कि सुपर वॉल्केनो में विस्फोट कितना भयंकर था. इस समय को ग्लोबल कूलिंग पीरियड कहते हैं. कई बार ज्वालामुखी के आसपास के इलाकों पर ही ये असर दिखता है. 

ग्लोबल वार्मिंग कम करने के लिए कितने विस्फोट 

ये तो पक्का है कि इरप्शन हाई इंटेंसिटी का होना चाहिए. जैसे माउंट पिनातुबो की घटना इसी कैटेगरी की थी. इसमें धुआं और धूल ऊपर की तरफ 25 किलोमीटर या उससे ज्यादा तक चली जाती हैं. इसमें कई बिलियन टन सल्फर गैस होती है, जो पूरे वायुमंडल को घेर सके. ऐसी घटना हर कुछ दशकों में होती रहती है. हालांकि नब्बे में इस जगह जो हुआ, वो सदी का सबसे बड़ा विस्फोट माना जाता है. 

ठहर गया था जाते-जाते हिमयुग

ज्वालामुखी का विस्फोट कैसे दुनिया को ठंडा कर सकता है, इसकी एक मिसाल तीन साल पहले एक रिसर्च में मिली थी. टैक्सास ए एंड एम यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों को टैक्सास के पहाड़ी इलाकों की गुफाओं में कई ऐसे संकेत मिले, जो बताते हैं कि आज से कुछ 13 हजार साल पहले आखिरी हिमयुग चल रहा था. दुनिया से बर्फ पिघल ही रही थी कि तभी किसी वॉल्केनिक विस्फोट से आइस एज और हजार साल के लिए आगे सरक गई. 

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how super volcanic eruption can slow down global warming photo Pixabay

क्या हुआ होगा उस समय

विस्फोट के साथ ही सल्फर के कण ऊपर की तरफ जाकर वायुमंडल की बाकी गैसों से मिल गए होंगे. इससे घनी परत बनी और दुनिया ठंडी होती चली गई. इस दौरान तापमान 3 से 4 डिग्री तक गिर गया होगा, ऐसा माना जाता है. इस दौर को यंगर ड्रायस भी कहा जाता है, जो आर्कटिक के एक फूल ड्रायस ऑक्टोपेटाला के नाम पर रखा गया. इससे घटा तापमान लगभग 13 सौ सालों तक वैसा ही बना रहा था. 

पहले माना गया था कि धरती से किसी बाहरी पिंड के टकराने से आइस एज लौटी होगी. हालांकि वॉल्केनिक इरप्शन थ्योरी भी चलती रही, जिसे तीन साल पहले टैक्सास यूनिवर्सिटी के शोध ने बल दिया. लगभग एक दशक पहले यूनिवर्सिटी ऑफ कोलाराडो ने भी यही बात की थी कि एरोसोल्स के हवा में फैलकर परत बनाने की वजह से सूरज की गर्मी धरती तक पहुंचना बंद हो गई और हिमयुग बना रह गया. 

तो क्या इंसान ऐसा विस्फोट करवा सकते हैं

वॉल्केनो कब फटेगा, अब तक साइंस को इसका भी अंदाजा नहीं हो सका. यूएस जियोलॉजिकल सर्वे लंबे समय से कुदरती आपदाओं पर काम कर रहा है, जिसके बाद भी कई बार उसकी चेतावनी फेल होती रही. ऐसे में इस बात की कोई संभावना नहीं कि इंसानी कोशिश से इरप्शन हो सके. इसके लिए जिस ताकत की जरूरत होती है, फिलहाल वो हमारे बूते का नहीं. 

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how super volcanic eruption can slow down global warming photo Unsplash

चाहिए एक्सट्रीम टेंपरेचर और प्रेशर

मिशिगन टेक्नॉलॉजिकल यूनिवर्सिटी ने भी इसपर रिसर्च की. लेकिन पाया गया कि ज्वालामुखी कोई पानी से भरा हुआ गुब्बारा या सोडा की बोतल नहीं है. उसकी प्रोसेस अलग ही है, जिसका पूरा-पूरा पता तक अभी नहीं लग सका. इसके लिए एक्सट्रीम टेंपरेचर और प्रेशर एक साथ चाहिए होगा, जो चट्टानों को भी पिघला सके. फिलहाल ऐसी तकनीक हमारे पास नहीं. 

ज्वालामुखी के फटने ने दी नई सोच

ज्वालामुखी की एरोसोल्स से सूरज की गर्मी रुकने की घटना ने वैज्ञानिकों को अलग ही दिशा दे दी. फिलीपींस के माउंट पिनेतुबो के विस्फोट और उससे कम हुए तापमान से एक थ्योरी को बल मिला, जिसे सोलर रेडिएशन मॉडिफिकेशन कहते हैं. उन्होंने सोचा कि अगर सूरज और वायुमंडल के बीच किसी चीज की एक परत खड़ी कर दी जाए तो सूरज की किरणें हम तक नहीं पहुंचेंगी.

इसके लिए स्ट्रैटोस्फेरिक एरोसोल इंजेक्शन बनाए जाएंगे. सूरज की धूप को कम करने की ये तकनीक कुछ वैसे ही काम करेगी, जैसे गर्म चीज पर किसी छिड़काव से वो जल्दी ठंडी होती है. इस प्रोसेस में साइंटिस्ट बड़े-बड़े गुब्बारों के जरिए वायुमंडल के ऊपर हिस्से पर सल्फर का छिड़काव करेंगे. इसमें वो गुण हैं, जो सूर्य की तेज किरणों को परावर्तित कर दे. माना जा रहा है कि इससे धरती को तेज धूप से छुटकारा मिल सकेगा. हालांकि इसका भारी विरोध भी हो रहा है.

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