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ईरान में महिलाएं अपने बाल काट रहीं हैं. सुरक्षाबलों के सामने अपने हिजाब उड़ा रहीं हैं और उन्हें गिरफ्तार करने की चुनौती दे रहीं हैं. सरकार के खिलाफ नारेबाजी हो रही है. शहर के शहर जल रहे हैं. सरकार प्रदर्शनकारियों को दबाने के लिए लाठीचार्ज कर रही है. इन प्रदर्शनों में अब तक तीन लोगों के मारे जाने की भी खबर है. दर्जनों घायल हो चुके हैं. लेकिन प्रदर्शन रुक नहीं रहे हैं.
इन प्रदर्शनों की वजह 22 साल की महसा अमिनी हैं. महसा अमिनी अब इस दुनिया में नहीं हैं. 16 सितंबर को उनकी मौत हो गई.
महसा अमिनी को 13 सितंबर को पुलिस ने गिरफ्तार किया था. आरोप था कि तेहरान में अमिनी ने सही तरीके से हिजाब नहीं पहना था. जबकि, ईरान में हिजाब पहनना जरूरी है. अमिनी को गिरफ्तार कर पुलिस स्टेशन ले जाया गया. वहां तबीयत बिगड़ी तो अमिनी को अस्पताल ले जाया गया. तीन दिन बाद खबर आई कि अमिनी की मौत हो गई.
परिजनों का आरोप है कि पुलिस ने अमिनी के साथ बुरी तरह मारपीट की थी. इससे वो कोमा में चली गईं और अस्पताल में उनकी मौत हो गई. अमिनी की मौत के बाद से ईरान में जगह-जगह पर प्रदर्शन हो रहे हैं. सरकार के खिलाफ नारेबाजी हो रही है. महिलाएं खुद से अपने बाल काटकर विरोध जता रहीं हैं. सुरक्षाबलों के सामने हिजाब उड़ा रहीं हैं.
इस पूरी घटना के बाद ईरान में 'एंटी हिजाब' मूवमेंट तेज हो गया है. महिलाएं आजादी मांग रहीं हैं. पुरुष भी उनका साथ दे रहे हैं. इस सबने चार दशक पहले हुई 'इस्लामिक क्रांति' की यादें ताजा कर दीं हैं. तब खुलेपन के खिलाफ क्रांति हुई थी और अब उसी मांग को लेकर प्रदर्शन हो रहे हैं.
क्या है इसका इतिहास?
साल 1936 की बात है. तब ईरान में पहलवी वंश के रेजा शाह का शासन था. उन्हें हिजाब और बुर्का पसंद नहीं था. उन्होंने इस पर बैन लगा दिया. जो महिलाएं हिजाब या बुर्का पहनती थीं, उन्हें परेशान किया जाने लगा. महिलाओं की आजादी के मायने में ये कदम बहुत क्रांतिकारी था.
बाद में रेजा शाह को निर्वासन में जाना पड़ा. उनके बाद उनके बेटे मोहम्मद रेजा पहलवी को गद्दी पर बैठाया गया. 1949 में ईरान में नया संविधान लागू हुआ. 1952 में मोहम्मद मोसद्दिक प्रधानमंत्री बने, लेकिन 1953 में उनका तख्तापलट हो गया. इसके बाद रेजा पहलवी ही देश के सर्वेसर्वा बन गए.
हिजाब और बुर्के पर बैन के फैसले से कुछ लोग नाराज भी थे. नतीजा ये हुआ कि पुरुषों ने महिलाओं को घर से निकलना बंद करवा दिया. रेजा पहलवी ने इस नियम में थोड़ी छूट दी, लेकिन वो भी पश्चिमी सभ्यता के पक्षधर थे. उस समय रेजा पहलवी के विरोधी थे आयोतल्लाह रुहोल्लाह खौमेनी. 1964 में पहलवी ने खौमेनी को देश निकाला दे दिया.
रेजा पहलवी को जनता अमेरिका के हाथों की 'कठपुतली' कहने लगे थे. खौमेनी ने जनता के इस गुस्से का फायदा उठाया और कर डाली इस्लामिक क्रांति.
फिर शुरू हुई ईरान में क्रांति...
वैसे तो ईरान में इस्लामिक क्रांति की शुरुआत 1978 में मानी जाती है, लेकिन इसके बीज 1963 में ही पड़ गए थे. तब ईरान के शासक रेजा पहलवी ने श्वेत क्रांति का ऐलान किया. आर्थिक और सामाजिक सुधार के लिहाज से ये बड़ा ऐलान था. लेकिन ये ईरान को पश्चिमी देशों के मूल्यों की तरफ ले जा रहा था. जनता में इसका विरोध होने लगा.
फिर आया साल 1973. अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों में गिरावट आने लगी. इसने ईरान की अर्थव्यवस्था को चरमरा दिया. लेकिन रेजा पहलवी श्वेत क्रांति को सफल बनाने के सपनों में लगे थे. ईरान के मौलवियों ने इसे इस्लाम पर चोट बताया.
1978 का सितंबर आते-आते जनता का गुस्सा फूट पड़ा. रेजा पहलवी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन होने लगे. इन प्रदर्शनों का नेतृत्व मौलवियों ने संभाल लिया. इन मौलवियों को फ्रांस में बैठे आयोतल्लाह रुहोल्लाह खौमेनी से निर्देश मिल रहे थे. 1964 में देश निकाला मिलने के बाद खौमेनी फ्रांस चले गए थे.
इस बीच रेजा पहलवी के खिलाफ गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था. लोगों को शांत करने के लिए देश में मार्शल लॉ लगा दिया गया. जनवरी 1979 आते-आते ईरान में गृहयुद्ध के हालात बन गए. एक ओर लोग खौमेनी की वापसी की मांग कर रहे थे तो दूसरी ओर सेना उन पर गोलियां चला रही थी.
हालात बेकाबू होने के बाद 16 जनवरी 1979 को रेजा पहलवी अपने परिवार के साथ अमेरिका चले गए. अमेरिका जाने से पहले रेजा पहलवी ने विपक्षी नेता शापोर बख्तियार को अंतरिम प्रधानमंत्री बना दिया.
ईरान में बन गए दो प्रधानमंत्री
शापोर बख्तियार ने खौमेनी को ईरान वापस लौटने की इजाजत तो दे दी, लेकिन एक शर्त भी रखी. ये शर्त थी कि खौमेनी वापस आ भी जाएंगे तो भी प्रधानमंत्री बख्तियार ही रहेंगे. फरवरी 1979 में खौमेनी फ्रांस से अपने देश लौट आए.
राजधानी तेहरान में खौमेनी ने 'सरकार गठन' करने का ऐलान कर दिया. बताया जाता है कि उनके इस भाषण को सुनने के लिए एक लाख से ज्यादा लोगों की भीड़ जुटी थी.
रेजा पहलवी के भागने के बाद भी सरकार के खिलाफ प्रदर्शन रुक नहीं रहे थे. इस बीच खौमेनी ने मेहदी बाजारगान को अंतरिम प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया. अब ईरान में दो प्रधानमंत्री हो चुके थे. एक बख्तियार और दूसरे बाजारगान. धीरे-धीरे सरकार के खिलाफ प्रदर्शनों को खौमेनी ने धार्मिक रंग दे दिया.
सरकार कमजोर होती जा रही थी और खौमेनी ताकतवर. सेना में भी फूट पड़ चुकी थी. 20 फरवरी को तेहरान में रेजा पहलवी के वफादार इंपीरियल गार्ड्स ने वायुसेना पर हमला कर दिया. प्रदर्शन अब हिंसक हो चले थे. धीरे-धीरे सेना भी खौमेनी के समर्थन में झुकती चली गई.
रातोरात बदल गया ईरान!
1980 के दशक से पहले ईरान में उतना ही खुलापन था, जितना पश्चिमी देशों में था. महिलाओं को अपनी पसंद के कपड़े पहनने की आजादी थी. वो पुरुषों के साथ घूम सकती थीं. लेकिन इस्लामिक क्रांति ने ईरान को पूरी तरह बदल दिया. इसने 'खुले' ईरान को 'बंद' कर दिया.
1979 के मार्च के आखिर में जनमत संग्रह हुआ. इसमें 98 फीसदी से ज्यादा लोगों ने ईरान को इस्लामिक रिपब्लिक बनाने के पक्ष में वोट दिया. इसके बाद ईरान का नाम 'इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान' हो गया.
खौमेनी के हाथों में सत्ता आते ही नए संविधान पर काम शुरू हो गया. नया संविधान इस्लाम और शरिया पर आधारित था. विपक्ष ने इसका विरोध किया, लेकिन खौमेनी ने साफ कहा कि नई सरकार को '100% इस्लाम' पर आधारित कानून के तहत काम करना चाहिए. लाख विरोध के बावजूद 1979 के आखिर में नए संविधान को अपना लिया गया.
नए संविधान के बाद ईरान में शरिया कानून लागू हो गया. कई सारी पाबंदियां लगा दी गईं. महिलाओं की आजादी छीन ली गई. अब उन्हें हिजाब और बुर्का पहनना जरूरी था. 1995 में वहां ऐसा कानून बनाया गया, जिसके तहत अफसरों को 60 साल तक की औरतों को बिना हिजाब निकलने पर जेल में डालने का अधिकार है. इतना ही नहीं, ईरान में हिजाब न पहनने पर 74 कोड़े मारने से लेकर 16 साल की जेल तक की सजा हो सकती है.
वो घेराबंदी, जिसने अमेरिका को कमजोर कर दिया
इस्लामिक क्रांति के बीच एक ऐसी घटना भी हुई, जिसने अमेरिका जैसे ताकतवर देश को कमजोर बना दिया था. हुआ ये था कि लोग रेजा पहलवी की वापसी की मांग कर रहे थे. उनका कहना था कि रेजा पहलवी को ईरान वापस लाया जाए और सजा दी जाए. उस समय अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने रेजा पहलवी को न्यूयॉर्क आकर कैंसर का इलाज कराने की अनुमति दे दी थी. इससे गुस्सा और बढ़ गया.
4 नवंबर 1979 को तेहरान में स्थित अमेरिकी दूतावास के बाहर इस्लामी छात्र जमा हो गए. उन्होंने अमेरिकी दूतावास की घेराबंदी कर ली. खौमेनी ने भी इस घेराबंदी का समर्थन किया. प्रदर्शन करने वाले अमेरिका से रेजा पहलवी को वापस भेजने की मांग कर रहे थे, लेकिन अमेरिका ने इसे ठुकरा दिया.
दिन गुजरते जा रहे थे, लेकिन प्रदर्शनकारी दूतावास से हटने को राजी नहीं हो रहे थे. संयुक्त राष्ट्र ने भी पहल की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. दूतावास में उस समय 52 अमेरिकी बंधक थे.
इस घेराबंदी के लगभग एक साल बाद रेजा पहलवी का मिस्र में निधन हो गया. उन्हें वहीं दफना दिया गया. लेकिन दूतावास की घेराबंदी जारी रही. अमेरिका ने अपनी पूरी ताकत आजमा ली. अमेरिका में ईरानी लोगों की संपत्तियां भी जब्त कर ली गईं, लेकिन कुछ काम नहीं आया.
आखिरकार अमेरिका में चुनाव हुए और रोनाल्ड रीगन नए राष्ट्रपति बने. फिर अल्जीरिया में अमेरिका और ईरान में समझौता हुआ. तब जाकर बंधक रिहा हुए. प्रदर्शनकारियों ने अमेरिकी दूतावास के अधिकारियों को 444 दिन तक बंधक बना रखा था.
क्या फिर इतिहास दोहरा रहा है ईरान?
ईरान में अब आयोतल्लाह रुहोल्लाह खौमेनी के उत्तराधिकारी अली खौमेनी देश के सर्वेसर्वा हैं. ईरान में सख्त शरिया कानून लागू है. लेकिन अब विरोध के सुर भी उठने लगे हैं.
महसा अमिनी की मौत के बाद एंटी हिजाब मूवमेंट तेज हो गया है. महिलाएं आजादी की मांग कर रहीं हैं. अपने बाल काट रहीं हैं. हिजाब हवा में उड़ा रहीं हैं. सरकार इन प्रदर्शनों को दबाने के लिए हर जरूरी कदम उठा रही है, लेकिन प्रदर्शनकारी शांत नहीं हो रहे हैं.
बहरहाल, अमिनी अब इस दुनिया में नहीं हैं. सरकार कह रही है कि उन्हें दिल की बीमारी थी, जिससे उनकी मौत हो गई. तो वहीं परिजन और प्रदर्शनकारी इसे हत्या बता रहे हैं. लेकिन अमिनी की मौत के बाद ईरान में जिस तरह के प्रदर्शन हो रहे हैं, वो 1979 की इस्लामिक क्रांति की यादों को ताजा करते हैं.