सोमवार रात हुए वायनाड भूस्खलन में ढाई सौ मौतों की पुष्टि हो चुकी, जबकि काफी सारे लोग अब भी लापता हैं. इस बीच गृह मंत्रालय ने दावा किया कि उनकी तरफ से केरल सरकार को अर्ली वार्निंग सिस्टम के जरिए अलर्ट भेजा गया था, जिसकी अनदेखी हुई. जबकि यही वो सिस्टम है, जिससे देश के ओडिशा और गुजरात समेत दुनियाभर में आपदाओं का अनुमान लगाकर बचाव किया जाता रहा.
क्या है ये सिस्टम
अर्ली वार्निंग सिस्टम वो बंदोबस्त है, जिसके जरिए मौसम विभाग या कई सारे डिपार्टमेंट साथ मिलकर किसी प्राकृतिक आपदा जैसे भूकंप, सुनामी, बाढ़ या साइक्लोन के आने से पहले उसकी भविष्यवाणी करते हैं. इसका मकसद लोगों को समय रहते सुरक्षित जगहों पर पहुंचा देना है ताकि जानमाल का नुकसान कम से कम हो. यह डिजास्टर मैनेजमेंट का एक तरीका है.
किन आपदाओं पर करता है काम
आपदा का असर घटाने के लिए इंटरनेशनल लेवल पर अर्ली वार्निंग सिस्टम तैयार हुआ. अमेरिका में इसपर जमकर काम हुआ. वहां यूएस जियोलॉजिकल सर्वे भूकंप, ज्वालामुखी और अन्य भूवैज्ञानिक खतरों की निगरानी करता है, वहीं नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन समुद्री आपदाओं पर काम करता है. इसके अलावा नेशनल वेदर सर्विस भी है, जो मौसम के पूर्वानुमान के साथ चेतावनी भी जारी करती है.
हमारे यहां भी इसके लिए कई सरकारी एजेंसियां हैं. मसलन राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण जोखिम को कम से कम कर सकने के लिए सारी प्लानिंग करता है. इसके अलावा हमारे यहां मौसम विज्ञान विभाग तो है ही, साथ ही भूकंप विज्ञान केंद्र भी है.
कितना असरदार है ये
इसकी ताकत का अंदाजा इसी बात से लगा लीजिए कि अगर 24 घंटों पहले भी चेतावनी मिल जाए तो आपदा में होने वाला नुकसान 30 फीसदी तक कम हो सकता है. हालांकि अब भी दुनिया की एक तिहाई आबादी वाले कम विकसित देशों के पास ये सिस्टम नहीं, या फिर उतना कारगर नहीं, कि डिजास्टर को समय से पहले पकड़ सके.
भारत कहां खड़ा है
साल 2016 में देश में अर्ली वार्निंग सिस्टम तैयार हुआ और इस समय यह दुनिया के सबसे आधुनिक सिस्टम्स में से है. इसमें भी भारत उन चुनिंदा देशों में है जो 7 दिन पहले आपदा का अनुमान लगा लेते हैं. इसके तहत हफ्तेभर ही संबंधित राज्य को सूचना भेजी जाती है, जो वेबसाइट पर सार्वजनिक भी रहती है. इकनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, हमारे साइंटिस्ट पांच देशों- नेपाल, बांग्लादेश, मॉरिशस, मालदीव और श्रीलंका की ऐसा सिस्टम तैयार करने में मदद कर रहे हैं.
क्या है वार्निंग देने की प्रोसेस
कई बार एकदम से चेतावनी देने पर आम लोगों में डर या भगदड़ जैसे हालात भी बन सकते हैं. इसे ही ध्यान में रखते हुए कई प्रोटोकॉल्स का पालन होता है. चेतावनी भेजने का जिम्मा भारत मौसम विज्ञान विभाग के पास रहता है. इसकी वेबसाइट, सरकारी चैनल, सोशल मीडिया हैंडल्स, और न्यूज एजेंसी पर ये जानकारी संतुलित शब्दों में दी जाती है. इस बीच सेंटर और राज्य दोनों ही एहतियातन कदम उठाते हैं.
कैसे लगाते हैं पूर्वानुमान
वैज्ञानिक सेंसरों और अलग-अलग उपकरणों के जरिए मौसम, भूकंप और दूसरी आपदाओं की घटनाओं के डेटा कलेक्ट करते हैं. कई बार इन आपदाओं में एक खास पैटर्न दिखता है कि फलां जगहें इसके लिए संवेदनशील हैं, या फलां समय पर ऐसा होता है. सेंसर लगातार हो रहे बदलावों को भी बताते रहते हैं. इनके आधार पर चेतावनी जारी की जाती है. हालांकि ये काफी ट्रिकी हो सकता है. लैंडस्लाइड और भूकंप का पहले से पता लग पाना काफी मुश्किल माना जाता रहा.
क्यों भूचाल का पता लगाना कठिन
भूकंप के आने के बाद दोबारा आ रहे कंपन के संकेत तो मिलते हैं, लेकिन पूर्वानुमान कठिन है. इसकी एक वजह है फॉल्ट लाइंस. धरती के भीतर ये लाइंस फैली हुई हैं. नीचे हो रही हलचलों से एक दिन में कई-कई भूकंप आते हैं. इनमें से लगभग सारे ही इतने कमजोर होते हैं कि किसी को उसका पता नहीं लगता, जबकि कुछेक बेहद ताकतवर होते हैं. हलचलों का यही भारी ट्रैफिक कन्फ्यूज कर देता है और बड़े भूचाल का पता लगाना मुश्किल रहता है.
लैंडस्लाइड की सटीक भविष्यवाणी क्यों मुश्किल
लैंडस्लाइड वो घटना है, जब ढलान वाली जमीन का एक बड़ा हिस्सा अचानक ही नीचे की तरफ सरक आए. इसकी कई वजहें हो सकती हैं, जिसमें बारिश से लेकर भूकंप या मानवीय काम जैसे जंगलों को काटना या ऊंची जगहों पर इमारतें बनाना भी शामिल हैं. पूर्वानुमान न लग सकने का यही सबसे बड़ा कारण है. कई बार इतने सारे फैक्टर्स में से कुछ चूक जाता है. या सबको जोड़कर एक सटीक नतीजा नहीं निकल पाता.
लैंडस्लाइड में डेटा की भी कमी है, जो पैटर्न को समझने में कमी लाती है. वैसे भी लैंडस्लाइड की संभावना इसपर भी तय करती है कि उस स्थान विशेष की भौगोलिक परिस्थिति कैसी है. चूंकि हर जगह की परिस्थिति में कम-ज्यादा अंतर रहता है, लिहाजा एक ही मॉडल के इस्तेमाल हर जगह के लिए लैंडस्लाइड का अनुमान नहीं लगाया जा सकता.