बहुत से देश समुद्र के किनारे के हिस्सों से पानी हटाकर वहां रेत, कंक्रीट भर रहे हैं ताकि रहने लायक जमीन बन सके. ये टर्म लैंड रिक्लेमेशन कहलाती है. यानी एक तरह से जमीन का सुधार करना. लेकिन क्या पानी को जबरन हटाकर हम जमीन बनाने का दावा कर सकते हैं? और ऐसा करने की जरूरत ही क्या है? इसे समझने के लिए पहले हम नीदरलैंड के बारे में जानते चलें.
क्यों नीदरलैंड ने वाटर मैनेजमेंट पर काम शुरू किया?
डच देश नीदरलैंड में पचास के दशक में भारी बाढ़ आई थी. तब लगभग 600 स्क्वैयर मील हिस्सा पानी में पूरी तरह से डूब गया था, जिसमें 1800 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी. बाढ़ में कई दूसरे यूरोपियन देशों पर भी असर हुआ, लेकिन नीदरलैंड की भारी आबादी चूंकि समुद्र तट के पास ही बसी हुई है, तो उसका सबसे ज्यादा नुकसान हुआ. इसके बाद से वहां फ्लड कंट्रोल सिस्टम पर खूब काम हुआ.
नए-नए तरीके सोचे गए ताकि समुद्र का पानी स्तर से ऊपर आने पर उतना नुकसान न करे. वहां पर तैरने वाले घर बनाए जा रहे हैं. इनका बेस सीमेंट का होता है लेकिन अंदर स्टायरोफोम भरा होता है, ताकि वे पानी में तैरते रहें.इसके अलावा पानी का डायवर्जन सिस्टम भी बनाया गया जो एक्स्ट्रा पानी को दूसरी दिशा में मोड़ देता है.
ये सब इसलिए किया गया क्योंकि इस देश के पास समुद्र में बसने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है. लेकिन बहुत से देश ऐसे हैं जो खुद के पास भरपूर जमीन होने के बाद भी समुद्र में जगह तलाश रहे हैं.
कैसे होता है ये?
समंदर के किनारे, जहां पानी कम रहता हो, उससे पानी हटाया जा रहा है. इसके लिए ड्रेनेज सिस्टम तैयार होता है. साथ ही एक और तकनीक भी है. इसमें पानी को डाइवर्ट किया जाता है ताकि एक जगह सूखी हो जाए. इस दलदली जमीन पर मिट्टी-रेत-कंक्रीट जैसी चीजें भरकर उसे ठोस बनाया जाता है. अब ये जगह समुद्र नहीं, जमीन है, जहां घर भी बन सकते हैं या कारखाने भी चल सकते हैं. इसे लैंड रिक्लेमेशन कहा जाता है.
अध्ययन में हुआ चौंकानेवाला खुलासा
बेहद खर्चीला होने के बाद भी देश इस प्रोसेस को अपना रहे हैं ताकि जमीन बढ़ा सकें. इसमें ईस्ट एशिया, मिडिल ईस्ट और वेस्ट अफ्रीका सबसे आगे हैं. इस साल की शुरुआत में अर्थ्स फ्यूचर नाम के जर्नल में एक स्टडी छपी. अमेरिकन जियोफिजिकल यूनियन के शोधकर्ताओं ने इस दौरान 10 लाख से ज्यादा आबादी वाले तटीय शहरों की सैटेलाइट इमेज ली. इसकी स्टडी में पाया गया कि ऐसे 100 से ज्यादा शहरों में समुद्री जमीन तैयार हो चुकी है. ये 2,350 स्क्वायर किलोमीटर से ज्यादा है. ये यूरोपियन देश लग्जमबर्ग जितना बड़ा भूभाग है.
ये देश हैं होड़ में
एशियाई देशों में चीन सबसे आगे है. अध्ययन के मुताबिक, लगभग 90 प्रतिशत लैंड रिक्लेमेशन चीन ने किया. बीते दो दशक के भीतर अकेले शंघाई में ही 350 स्क्वायर किलोमीटर की जमीन जोड़ी गई. चीन का इरादा है कि इस नई जमीन पर वो बंदरगाह बनाएगा या फिर कारखाने तैयार करेगा. सिंगापुर और दक्षिण कोरिया भी इस मामले में काफी आगे निकल चुके. वैसे स्टडी में ये नहीं दिखा कि किस देश ने कुल कितने वर्ग किलोमीटर समुद्र को कब्जा रखा है.
क्यों दिख रहा मुनाफा?
समंदर से पानी हटाने या उसे डाइवर्ट करने का प्रोसेस काफी खर्चीला है लेकिन इसके बाद भी देश इसे मुनाफे का सौदा मान रहे हैं. इसकी वजह ये है कि समुद्री जमीन को खाली करने में कोई झंझट नहीं. वहां लोग नहीं बसे होते हैं, जिन्हें हटाया जाए. किसी तरह का कोई कानूनी पचड़ा भी कम होता है.
इसके खतरे भी कम नहीं
ग्लोबल वार्मिंग के चलते समुद्र तल लगातार ऊपर आ रहा है. इससे तटीय इलाके तो खतरे में थे ही, अब समुद्र को सुखाकर बनाई गई जमीन दोगुने जोखिम में है. अर्थ्स फ्यूचर के अध्ययन में दावा किया गया कि साल 2046 से 2100 के बीच 70 फीसदी से ज्यादा जमीन बाढ़ में डूब सकती है. दक्षिण कोरिया के बुसान शहर की मरीन सिटी में ऐसा हो भी चुका. वहां कमजोर तूफान में भी लहरें शहर के भीतर आ जाती हैं और सड़कों तक को डुबो देती हैं.
समुद्री इकॉलॉजी को भी इससे खतरा है. जैसे तटीय इलाकों में पलने वाले जीव-जंतु इससे खत्म हो रहे हैं. इसका असर आगे की फूड चेन पर भी होगा और इंसान भी अछूते नहीं रहेंगे.
किसके हिस्से, कितना समंदर?
यहां एक सवाल ये भी आता है कि कोई देश कितने आगे तक के समंदर का अपना मर्जी से इस्तेमाल कर सकता है. मान लो, चीन लैंड रिक्लेमेशन कर रहा है तो ऐसा करते हुए वो क्या दूसरे देश के तट तक पहुंच सकता है? नहीं. किसी देश के हिस्से कितना समुद्र आएगा, इसे लेकर यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन ऑन लॉ ऑफ द सी (UNCLOS) ने नियम बना रखे हैं.
ये है पहला दायरा
इसके मुताबिक देश की जमीनी सीमा से लगभग 12 मील यानी लगभग 22 किलोमीटर तक की समुद्री दूरी उसकी अपनी है. इस सीमा पर कोई भी देश, उसके जहाज या लोग बिना इजाजत नहीं आ सकते. अगर कोई चेतावनी के बाद भी ऐसा करे तो उसे मार गिराया जा सकता है या गिरफ्तार किया जा सकता है. इस सीमा के भीतर आने को देश में घुसपैठ की तरह देखा जाता है.
दूसरी लेयर में होता है ये काम
इसके बाद के 200 मील यानी लगभग पौने चार सौ किलोमीटर का हिस्सा भी देश का अपना समुद्री टुकड़ा है. ये इकनॉमिक जोन है, जिसपर किसी तरह के व्यापार, मछली-पालन, खनन का फायदा उसी देश को मिलता है. मछुआरे यहां मछलियां पकड़ सकते हैं, लेकिन इस सीमा से बाहर जाने पर गिरफ्तारी का डर रहता है.
तीसरी सीमा भी है
देश अगर ये साबित कर सके कि समुद्र के कुल 220 मील दूरी के बाद का भी हिस्सा उसके हक का है, तो इसपर उसका अधिकार माना जा सकता है. ये द्वीपों के मामले में ही माना जाता है. जैसे कई द्वीपों से मिलकर बना देश किसी उजाड़ द्वीप पर भी अपना दावा करता है, जो उसकी समुद्री सीमा के आसपास हो या फिर जहां की वनस्पति उसकी वनस्पति से मिलती हो, तो ये क्लेम भी मान लिया जाता है.