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जब संसद में गरमाया था महात्मा गांधी की समाधि का मुद्दा... जानिए कैसे अस्तित्व में आया राजघाट

राजघाट का डिजाइन तैयार करने के लिए प्रसिद्ध अमेरिकी आर्किटेक्ट फ्रेंक लायड राइट से संपर्क किया गया था, पर इस प्रस्ताव को आगे नहीं बढ़ाया गया क्योंकि संसद में विपक्ष ने बहुत हंगामा किया था. विपक्ष की मांग थी कि बापू की समाधि का डिजाइन भारत का ही कोई आर्किटेक्ट तैयार करे.

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महात्मा गांधी का समाधि स्थल कैसे बना राजघाट?
महात्मा गांधी का समाधि स्थल कैसे बना राजघाट?

साल 1948, तारीख 30 जनवरी... उस दिन सरदार वल्लभ भाई पटेल महात्मा गांधी से किसी खास चर्चा के लिए बिड़ला हाउस पहुंचे थे. बातचीत लंबी खिंची और शाम की प्रार्थना का वक्त हो गया. हालांकि लौह पुरुष और महात्मा की बातचीत अभी जारी थी. प्रार्थना में देरी होती देख मणिबेन ने उन्हें समय का ध्यान दिलाया और बापू आभा व मनु के साथ प्रार्थना सभा की ओर चल पड़े. 

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30 जनवरी 1948 की वो शाम
सभा स्थल जाने वाले रास्ते के दोनों ओर लोग जुटे हुए थे. गांधी ने उन्हें देखकर अभिवादन के लिए हाथ जोड़ लिए. इसी बीच भीड़ में से निकलकर नाथूराम गोडसे उनकी तरफ आया और झुका. मनु को लगा कि वह गांधी के पैर छूने की कोशिश कर रहा है. आभा ने उसे रोकने की कोशिश की, लेकिन गोडसे ने मनु को धक्का दिया और उनके हाथ से माला और पुस्तक नीचे गिर गई.

वह उन्हें उठाने के लिए नीचे झुकीं तभी गोडसे ने पिस्टल निकाल ली और एक के बाद एक तीन गोलियां गांधीजी के सीने और पेट में उतार दीं.उनके मुंह से निकला, "राम.....रा.....म." और गांधी का बेजान शरीर नीचे गिरने लगा. 

ये शाम का वक्त था, आजादी को छह महीने बीते थे और देश का सबसे बड़ा नेता मारा गया था. यह गांधी की हत्या का दिन था, जिसे बाद में शहीद दिवस करार दिया गया और इसी के अगले दिन उस स्थल की भूमिका सामने आई, जिसे 'राजघाट' के नाम से जाना गया. राजघाट... महात्मा गांधी का समाधि स्थल.

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Gandhi’s Delhi (12 April, 1915 - 30 January, 1948 and beyond) किताब के लेखक और पत्रकार विवेक शुक्ल बताते हैं कि 30 जनवरी 1948 को हुए इस हत्याकांड से देश बिल्कुल ही स्तब्ध था. यह स्थिति ऐसे समय में पैदा हो गई थी कि देश अभी ठीक से बंटवारे के दंश से नहीं निकला था. स्थिति नियंत्रण में थी, लेकिन तनाव अभी भी था. इसी बीच उनकी हत्या हो गई. ऐसे में एक तरफ तो देश में कोई अराजक माहौल न बने इसका ख्याल रखना था और दूसरी ओर भारत ही नहीं विश्वभर में ख्याति प्राप्त इस राजनेता को आखिरी विदाई भी देनी थी. 

राजघाट

राजघाट पर कैसे बना समाधि स्थल?
विवेक शुक्ल ने अपनी किताब में भी इस पूरे हाल का जिक्र किया है. वह कहते हैं कि, 30 जनवरी, 1948 की रात तकरीबन 9 बजे होंगे. इसी दौरान तत्कालीन पीएम नेहरू, गृह मंत्री सरदार पटेल और भारत सरकार के कई बड़े अफसर राजघाट पहुंचे थे. सर्द मौसम था और दिल्ली घने कोहरे की आगोश में थी. 

नेहरू और अन्य नेता जब राजघाट पहुंचे तब तक वहां केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग के अफसर मजदूरों के साथ चबूतरा बनाने में जुटे थे. इसी चबूतरे पर बापू की अगले दिन अंत्येष्टि होनी थी. 30 जनवरी के उस मनहूस दिन नेहरू कैबिनेट की बैठक में बापू की अंत्येष्टि स्थल पर चर्चा हुई. उसमें तय हुआ कि राजघाट सबसे बेहतर जगह रहेगी अंत्येष्टि के लिए.

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एक तो ये यमुना नदी के किनारे है और फिर ये राजधानी के मध्य में भी है. उसके बाद संबंधित अफसरों और विभागों को अंत्येष्टि स्थल की सारी व्यवस्था करने के निर्देश दिए गए थे. दिल्ली के इंस्पेक्टर जनरल पुलिस डब्ल्यू.वी. संजीवी को अंत्येष्टि वाले दिन कानून-व्यवस्था बनाए रखने के निर्देश दिए गए थे.

अगले दिन 31 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की अंत्येष्टि की गई. उनकी अंतिम यात्रा को भारत के साथ विदेशी मीडिया ने भी प्रमुखता से कवर किया. उनकी अंतिम यात्रा में खूब भीड़ जुटी थी. 1948 के उस दिन के बाद से कुछ दिनों तक राजघाट यूं ही रहा. कुछ उजाड़ और थोड़ बंजर. यमुना के किनारे का ये इलाका तब बिल्कुल खाली ही था और अब इसे महात्मा के समाधि स्थल में तब्दील करने को लेकर योजनाएं बननी लगी थीं.  1950 के बाद सरकार राजघाट को विकसित करने की योजना पर गंभीर हो गई थी. पीएम नेहरू इस काम पर प्रमुखता से ध्यान दे रहे थे, लेकिन उनकी एक चाहत से संसद में हंगामा खड़ा हो गया. 

बापू के समाधि स्थल बनाने की बात पर हंगामा... आखिर बात क्या थी?

बता दें कि, बापू की अंत्येष्टि के काफी बाद राजघाट समाधि स्थल में बदला. इतिहास बताता है कि 50 के दशक के मध्य तक तो ये यूं ही रहा और इसे नए सिरे से गढ़ा गया. बकौल विवेक शुक्ल, हुआ यूं कि राजघाट का डिजाइन तैयार करने के लिए प्रसिद्ध अमेरिकी आर्किटेक्ट फ्रेंक लायड राइट से संपर्क किया गया था, पर इस प्रस्ताव को आगे नहीं बढ़ाया गया क्योंकि संसद में विपक्ष ने बहुत हंगामा किया था. विपक्ष की मांग थी कि बापू की समाधि का डिजाइन भारत का ही कोई आर्किटेक्ट तैयार करे.

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फिर वानू जी. भूपा ने दी राजघाट को महान सादगी
संसद में इस हंगामें के बाद नेहरू ने अपने विचार वापस ले लिए और फिर 1956 में ये जिम्मेदारी वानू जी. भूपा को सौंपी गयी. भूपा ने इसके निर्माण की जो रूपरेखा तैयार की, वह बहुत ही साधारण और सादगी भरी थी. दरअसल, उनके मन में महात्मा गांधी की आधी धोती वाली छवि गहरे तक अंकित थी, जो उनमें एक मजबूत नेता और कुशल नेतृत्व की छवि गढ़ती थी. भूपा यही सादगी राजघाट की छवि में भी चाहते थे. 

राजघाट

ऐसे बनाया गया राजघाट परिसर
उन्होंने राजघाट परिसर के बीचों-बीच एक वर्गाकार चबूतरेनुमा स्थान में समाधि बनाई. उस पर बापू के बोले अंतिम शब्द 'हे राम' अंकित कराए. भूपा ने समाधि के चारों तरफ हरियाली के खूब फैला हुआ स्थान छोड़ा. इस परिसर की लैंड स्केपिंग मेरठ में जन्मे एंग्लो इंडियन एलिश पर्सी लैंकस्टेर ने की थी, उस समय वह भारत सरकार के बागवानी विभाग से जुड़े हुए थे. 

पीएम नेहरू के निर्देश पर केंद्रीय लोक निर्माण विभाग (CPWD) के चीफ आर्किटेक्ट हबीब रहमान और चीफ इंजीनियर टीएस वेदागिरी ने इससे पहले कई और आर्किटेक्ट के कामों पर स्टडी की थी. पंडित नेहरू ने इन दोनों को निर्देश दिए थे कि वे डिजाइनर्स के राजघाट के डिजाइन के लिए प्रोजेक्ट कॉस्ट पर भी नजर रखें. वह खुद भी इस पूरी प्रक्रिया पर नजर बनाए हुए थे. हबीब साहब और वेदागिरी को मिले विभिन्न डिजाइनों में राजघाट का एक डिजाइन दक्षिण भारतीय मंदिर की वास्तुकला से मिलता-जुलता भी था. एक डिजायन ऐसा भी जिसमें बापू चरखे के साथ बैठे थे, लेकिन वानू जी भूपा के डिजाइन की सादगी ने सभी का ध्यान आकर्षित किया था. 

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जब विनोबा भावे राजघाट पर ठहरे
बापू के समाधि स्थल बनने से पहले की ओर बात पर विवेक शुक्ल ध्यान दिलाते हैं. वह बताते हैं कि, विनोबा भावे 1951 में दिल्ली आए थे और तब वह राजघाट में अपने 75 साथियों के साथ झोपड़ियों में ठहरे थे. हालांकि पीएम नेहरू उन्हें किसी सरकारी गेस्ट हाउस में ठहराना चाहते थे, लेकिन भूदान यज्ञ का संकल्प लेकर निकले आचार्य नहीं माने. वह जिस दौरान राजघाट पहुंचे थे, उस समय तक यह महात्मा गांधी के समाधि स्थल के तौर पर पहचाना जाता था, अंत्येष्टि स्थल पर सभी दर्शन को जाते थे, लेकिन 
तब तक राजघाट एक बंजर स्थान जैसा ही था.

30 जनवरी मार्ग का नामकरण
इसी तरह राजधानी दिल्ली में एक सड़क का नाम 30 जनवरी मार्ग है. यहां गांधी स्मृति भवन है, जो पहले बिड़ला हाउस हुआ करता था. महात्मा गांधी अपने जीवन के आखिरी पांच महीने (144 दिन) बिड़ला हाउस में अतिथि के तौर पर रहे थे. बिड़ला हाउस इसी रोड पर स्थित था. इसलिए उनकी याद में उनकी हत्या की तारीख पर ही इस सड़क का नाम तीस जनवरी मार्ग रख दिया गया. दिल्ली के तीस जनवरी मार्ग का नाम पहले 'अल्बुकर्क रोड' हुआ करता था.
 

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