बुधवार को मेक्सिको वो पहला देश बन गया, जिसने तय किया कि जजों का चुनाव जनता के वोटों से होगा. दो-तिहाई बहुमत मिलने के साथ ही प्रस्ताव पास हो गया. इस बीच अदालत के कर्मचारियों समेत पूरे देश में प्रोटेस्ट हो रहे हैं. ज्यूडिशियल रिफॉर्म को लाने में अहम किरदार रहा, वहां के राष्ट्रपति आंद्रेस मैनुएल लोपेज ओब्राडोर का. जानें, कौन हैं ओब्रेडोर, और इसी महीने अपना कार्यकाल खत्म होने से ठीक पहले क्यों उन्होंने ये प्रस्ताव दिया.
ज्यूडिशियल रिफॉर्म पर बहुत से देश बात करते रहे लेकिन मेक्सिको ने अलग ही स्तर पर फैसला कर लिया. वहां सुप्रीम कोर्ट से लेकर लोवर लेवल पर भी जज जनता के वोटों से चुने जाएंगे. इसके लिए बाकायदा इलेक्शन होगा. बता दें कि मौजूदा राष्ट्रपति ओब्रेडोर ने इस बदलाव के लिए दबाव डाला था. वे 30 सितंबर को पद से हटने वाले हैं. उनकी जगह पहले ही चुनी जा चुकी क्लाउडिया शिनबेम लेंगी.
कोर्ट और राष्ट्रपति के बीच पहले भी रार
ओब्रेडोर के इस कदम के पीछे कहा जा रहा कि पद में रहते हुए कई बार उनका अदालत से टकराव हुआ था. कई मामलों में अदालत ने उनकी पॉलिसीज को असंवैधानिक करार देते हुए रोक लगा दी थी. मिसाल के तौर पर, सरकारी कर्मचारियों की वेतन कटौती के उनके प्रयासों को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया. इसी तरह से बजट को दोबारा तय करने के लिए भी राष्ट्रपति ने प्रस्ताव दिया था, जिसपर रोक लग गई.
मामला एकतरफा नहीं था. राष्ट्रपति और अदालत दोनों ही एक-दूसरे पर नाराज रहे. जैसे ओब्रेडोर ने कई मौकों पर सुप्रीम कोर्ट और न्यायिक अधिकारियों पर आरोप लगाया कि वे विपक्ष के साथ रहते और उनके मुताबिक फैसले लेते हैं. उनका कहना था कि अदालतें करप्ट और राजनैतिक असर में काम करती हैं. इसी बात को अपनी तरफ से दुरुस्त करने के लिए राष्ट्रपति ने जाते-जाते जजों के लिए चुनाव करवाने का प्रस्ताव पास करवा दिया.
क्यों हो रहा विरोध
अगर ये प्रस्ताव टिका रहा तो मेक्सिको में जज चुनावी प्रक्रिया से चुने जाएंगे. इससे कोर्ट में राजनैतिक दखल बढ़ सकता है. हो सकता है कि जनता के वोटों से चुनकर आए जज फैसला लेते हुए बड़ी आबादी को खुश करने की सोचें. लोकप्रियता के दबाव में सही फैसलों पर असर हो सकता है.
एक बड़ी दलील ये भी है कि जजों को अगर इलेक्शन से चुना जाएगा तो चुनाव अभियानों के लिए उन्हें रिसोर्स चाहिए होंगे. ये तो जाहिर तौर पर कोई पार्टी ही उन्हें दे सकती है. किसी खास पार्टी की वजह से चुनाव प्रचार कर चुके जजों पर दबाव होगा कि वे उसके हित में फैसले लें.
वामपंथ से जुड़े रहे राष्ट्रपति
वर्तमान राष्ट्रपति ओब्रेडोर, जिन्हें एएमएलओ के नाम से भी जाना जाता है, मोरेना पार्टी से हैं, जो फिलहाल चलते दक्षिणपंथ से अलग धुर वामपंथी पार्टी है. ओब्रेडोर का राजनैतिक सफर एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर शुरू हुआ. वे देश के दक्षिणी हिस्से में तेल कंपनियों की मनमानी के खिलाफ आंदोलन करते थे. यहीं से वे राजनीति में भी दखल देने लगे. नब्बे की शुरुआत में ओब्रेडोर वामपंथ से जुड़ गए और अब तक यही आइडियोलॉजी है.
दो बार राष्ट्रपति चुनाव हारने के बाद आखिरकार साल 2014 में उन्होंने अपनी अलग पार्टी बनाई- मोरेना. वामपंथी विचारधारा पर आधारित पार्टी ने जल्द ही देश के कमजोर वर्ग के बीच अपनी जगह बना ली. साल 2018 में ओब्रेडोर ने तीसरी बार राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ा और इस बार काफी अंतर से जीते भी. बता दें कि मेक्सिको में प्रेसिडेंट का कार्यकाल 6 साल का होता है. इसी महीने के आखिर में उनका कार्यकाल खत्म हो रहा है.
ओब्रेडोर का ये पहला फैसला नहीं, जिसपर विवाद है. इससे पहले भी कई बार उनके निर्णय देश में दो फाड़ कर चुके हैं.
- ओब्रेडोर ने देश की सुरक्षा के लिए नेशनल गार्ड का गठन किया, जिसमें सेना और पुलिस दोनों शामिल थे. इसपर मानवाधिकार संगठनों ने काफी बखेड़ा किया था.
- ऑइल इंडस्ट्री से विदेशी निवेश घटाने और राष्ट्रीयकरण पर जोर देने का भी काफी विरोध हुआ था.
- साल 2021 में उनके द्वारा प्रस्तावित चुनाव सुधारों पर भारी प्रोटेस्ट हुआ था. तर्क था इससे चुनावों से पारदर्शिता खत्म हो जाएगी.
- कोविड के दौरान मेक्सिकन प्रेसिडेंट ने मास्क या सोशल डिस्टेंसिंग को गलत कहा था. इससे बीमारी तेजी से फैली.