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मुस्लिम लीग. पूरा नाम इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग. यही मुस्लिम लीग अब चर्चा में है. वो इसलिए क्योंकि कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने मुस्लिम लीग को 'सेक्युलर' बताया है.
अमेरिका दौरे पर गए राहुल गांधी ने कहा, 'मुस्लिम लीग पूरी तरह से सेक्युलर पार्टी है. उसमें नॉन-सेक्युलर जैसा कुछ भी नहीं है.'
दरअसल, केरल में कांग्रेस और इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग का गठबंधन है. इसे लेकर ही उनसे सवाल किया गया था. इसी के जवाब में राहुल ने मुस्लिम लीग को सेक्युलर पार्टी बताया.
हालांकि, राहुल के इस बयान पर बवाल भी छिड़ गया. बीजेपी आईटी सेल के हेड अमित मालवीय ने ट्वीट किया, 'जिन्ना की मुस्लिम लीग, जो धर्म के आधार पर भारत के बंटवारे के लिए जिम्मेदार है, वो पार्टी राहुल गांधी के हिसाब से 'सेक्युलर' है. वायनाड में स्वीकार्य बने रहना भी उनकी मजबूरी है.'
Jinnah’s Muslim League, the party responsible for India’s partition, on religious lines, according to Rahul Gandhi is a ‘secular’ party.
— Amit Malviya (@amitmalviya) June 1, 2023
Rahul Gandhi, though poorly read, is simply being disingenuous and sinister here…
It is also his compulsion to remain acceptable in Wayanad. pic.twitter.com/sHVqjcGYLb
अमित मालवीय को जवाब देते हुए कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने दावा किया कि जिन्ना की मुस्लिम लीग और केरल की मुस्लिम लीग में फर्क है.
कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने भी जवाब देते हुए कहा, 'जिस मुस्लिम लीग की बात उन्होंने की है वो केरल की है. और उसमें हिंदू सदस्य भी हैं. और एक समय तक हिंदू प्रेसिडेंट हुआ करता था मुस्लिम लीग का.'
दोनों मुस्लिम लीग में कोई फर्क नहीं?
सही मायनों में देखा जाए तो जिन्ना वाली मुस्लिम लीग और राहुल ने जिसका जिक्र किया, वो मुस्लिम लीग, दोनों ही अलग-अलग हैं. हालांकि, केरल वाली मुस्लिम लीग की जड़ें जिन्ना वाली मुस्लिम लीग से ही जुड़ीं हैं.
मोहम्मद अली जिन्ना वाली ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना 30 दिसंबर 1906 को ढाका (बांग्लादेश) में हुई थी. वहीं, केरल वाली इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग का गठन आजादी के बाद 10 मार्च 1948 को हुआ था.
आजादी के बाद जिन्ना वाली मुस्लिम लीग भंग हो गई थी. इसके बाद तमिल नेता और मुस्लिम लीग के सदस्य रहे मुहम्मद इस्माइल ने इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग का गठन किया था.
हालांकि, देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू इसके खिलाफ थे. नेहरू नहीं चाहते थे कि आजादी के बाद मुस्लिम लीग जैसी कोई पार्टी बने. माना जाता है कि नेहरू ने तब के भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन से भी कहा था कि वो इस्माइल को ऐसा न करने की सलाह दें.
फिर भी इसका गठन किया. हालांकि, नेहरू और भारत सरकार इससे खुश नहीं थी. नेहरू ने पार्टी को 'डेड होर्स' कहा था और उनका मानना था कि कांग्रेस इसे कुचल देगी. 1957 में जब केरल में पहली बार विधानसभा चुनाव हो रहे थे, तब एक रैली में नेहरू ने मुस्लिम लीग को 'गद्दार' बताया था.
कुछ साल बाद आरएसएस ने भी मुस्लिम लीग पर 'पाकिस्तान का वफादार' होने का आरोप लगाया था.
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कांग्रेस को चुभती थी मुस्लिम लीग?
इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग को राजनीति में अपनी पैठ जमाने के लिए एक दमदार पार्टनर की जरुरत थी. और उस समय कांग्रेस के अलावा कोई और उतना दमदार नहीं था.
60 के दशक में सांप्रदायिक हिंसा बढ़ गई थी. 1962 में जब कांग्रेस का अधिवेशन हुआ तो उसमें सांप्रदायिक ताकतों पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव भी आया. इतना ही नहीं, आजादी के बाद पहली बार गृह मंत्रालय ने मुस्लिम लीग पर प्रतिबंध लगाने पर विचार-विमर्श भी किया. हालांकि, ऐसा हुआ नहीं.
मुस्लिम लीग ने कांग्रेस के साथ गठजोड़ करने की लाख कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनी. और सियासत में बने रहने के लिए उसे पार्टनर की जरुरत थी. ऐसे में उसे दो पार्टियों का साथ मिला. तमिलनाडु में द्रमुक का और केरल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का.
1967 के चुनाव के बाद केरल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी. ईएमएस नंबूदिरीपाद मुख्यमंत्री बने. इस सरकार में मुस्लिम लीग को भी कैबिनेट में जगह मिली. लेकिन दो साल में ही ये सरकार गिर गई. माना जाता है कि सरकार गिराने में मुस्लिम लीग की अहम भूमिका थी.
ऐसे बनी कांग्रेस की करीबी
70 के दशक के बाद कांग्रेस और मुस्लिम लीग की नजदीकियां बढ़नी शुरू हुईं. 1977 में केरल में हुए विधानसभा चुनाव के बाद बनी सरकार में कांग्रेस के साथ-साथ कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया और इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग भी शामिल थी.
इसके बाद से कांग्रेस और मुस्लिम लीग की दोस्ती कभी नहीं टूटी. 1979 में मुस्लिम लीग के सीएच मोहम्मद कोया मुख्यमंत्री बने. हालांकि, वो सिर्फ 53 दिन ही इस पद पर रह सके.
1980 के चुनाव से पहले कांग्रेस ने यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) बनाया. इसमें इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग को भी शामिल किया गया. इसके बाद केरल में दो फ्रंट बन गए. पहला तो कांग्रेस वाला यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट और दूसरा सीपीआई वाला लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट.
1981 में पहली बार केरल में यूडीएफ की सरकार बनी. यूडीएफ का गठन कांग्रेस नेता के. करुनाकरन ने किया था, जो इस फ्रंट की पहली सरकार में मुख्यमंत्री भी बने.
बीते चार दशकों में केरल में यूडीएफ की चार बार सरकार बन चुकी है. पहली बार 1982 से 1987 तक, दूसरी बार 1991 से 1996 तक, तीसरी बार 2001 से 2006 तक और चौथी बार 2011 से 2016 तक.
अभी क्या है मुस्लिम लीग की स्थिति?
2016 के विधानसभा चुनाव में यूडीएफ ने केरल की 140 में से 47 सीट ही जीत सकी. इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग ने 23 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 18 पर जीत हासिल की.
2021 के विधानसभा चुनाव में भी मुस्लिम लीग ने 25 सीटों पर चुनाव लड़ा और 15 जीत ली.
वहीं, अब तक 17 बार लोकसभा चुनाव हो चुके हैं और सिर्फ एक बार छोड़कर बाकी सभी चुनावों में मुस्लिम लीग को दो से चार सीटें जरूर मिलीं हैं. 1951-52 में हुए पहले आम चुनाव मुस्लिम लीग के बी. पोकर लोकसभा सांसद चुने गए थे. वो केरल की मलप्पुरम सीट से सांसद थे. दूसरे लोकसभा चुनाव में मुस्लिम लीग को एक भी सीट नहीं मिली.
2019 के लोकसभा चुनाव में मुस्लिम लीग ने तीन सीटों- मलप्पुरम (एमपी अब्दुस्सामद), पोन्नानी (ईटी मोहम्मद बशीर) और रामनाथपुरम (के. नवास कानी) पर जीत दर्ज की. राज्यसभा में पीवी अब्दुल वहाब मुस्लिम लीग के एकमात्र सांसद हैं.
अब बात क्या जिन्ना ने बनाई थी मुस्लिम लीग?
मुस्लिम लीग की स्थापना 30 दिसंबर 1906 को कई मुस्लिम नेताओं ने मिलकर की थी. इसका मकसद था- भारतीय मुसलमानों के राजनैतिक और बाकी अधिकारों की रक्षा करना. मुस्लिम लीग का एक मकसद ये भी था कि वो भारत से अंग्रेजी राज को खत्म नहीं होने देना चाहती थी.
लीग के नेता नवाब वक्कार-उल-मुल्क ने एक रैली में भाषण देते वक्त कहा था, 'अल्लाह न करे, अंग्रेजी राज भारत से समाप्त हो जाए तो हिंदू हम पर राज करेंगे और हमारी जान, माल और धर्म खतरे में पड़ जाएगा. मुसलमानों को इस खतरे से बचाने का एक ही रास्ता है और वो ये कि अंग्रेजी राज को जारी रखने में मदद करें. मुसलमानों को अपने आपको अंग्रेजी सेना समझना चाहिए जो ब्रिटिश क्राउन के लिए अपना खून बहाने और जान देने तक को तैयार है.'
हालांकि, बाद में मुस्लिम लीग का काम ठप्प सा पड़ने लगा. लेकिन साइमन आयोग की नियुक्ति (1927-30) और लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलन (1930-32) ने मुस्लिम लीग में नई जान फूंक दी. ये वो वक्त था, जब जिन्ना भारत लौट आए थे और मुस्लिम लीग के निर्विवाद नेता बन चुके थे.
ऐसे आई टू-नेशन थ्योरी
आमतौर पर हिंदू और मुस्लिम के लिए दो अलग-अलग देश का विचार कवि मुहम्मद इकबाल का माना जाता है. 1930 में मुस्लिम लीग के अधिवेशन में इकबाल ने कहा था कि अगर द्विराष्ट्र सिद्धांत को स्वीकार कर लिया जाता है तो इससे भारत की सांप्रदायिक समस्या का स्थायी समाधान हो जाएगा.
हालांकि, भारत के बंटवारे और मुसलमानों के लिए अलग मुल्क 'पाकिस्तान' बनाने का विचार पहली बार कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के छात्र चौधरी रहमत अली के मन में आया था. रहमत अली का मानना था कि ब्रिटिश भारत में जहां-जहां मुसलमानों की आबादी ज्यादा है, उसे अलग राष्ट्र बना देना चाहिए.
रहमत अली का साफ मानना था कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र या जातियां हैं. दोनों का धर्म, संस्कृति, परंपराएं, साहित्य, कानून... सबकुछ अलग-अलग है. हिंदू और मुसलमान आपस में बैठकर खाते नहीं हैं और यहां तक कि शादी भी नहीं करते. हमारा खाना और पहनावा भी अलग है.
इसके बाद ही 23 मार्च 1940 को मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में जिन्ना ने कहा था, 'हिंदू और मुसलमान, जिनकी धार्मिक सोच, सामाजिक रीति-रिवाज, साहित्य और दर्शन अलग-अलग हैं. ऐसी दो जातियों को एक राज्य में इकट्ठे बांधने से, जिसमें एक अल्पसंख्यक हो और दूसरा बहुसंख्यक, असंतोष ही बढ़ेगा और राष्ट्र नष्ट हो जाएगा.'
मुस्लिम लीग ने टू-नेशन थ्योरी को इस तर्क पर सही ठहराया कि इससे दोनों समुदायों को इंसाफ मिलेगा और दोनों सद्भावना के साथ आगे बढ़ सकेंगे.