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बुद्ध-कबीर-महर्षि व्यास ने भी समझाई मौन की ताकत, जानें- कॉर्पोरेट लाइफ में चुप रहने का मैनेजमेंट फंडा

मौन का अर्थ सिर्फ वक्त पर जरूरी बात बोलने की समझ होना है. अंग्रेजी में भी कहते हैं कि Silence is the best Answer. यानी कई बार कोई उत्तर देने के बजाय चुप रहना अधिक बेहतर होता है. कार्पोरेट जगत में यह काफी काम का नुस्खा है. अगर आप जरूरत से अधिक बोल रहे हैं तो यकीन मानिए आप स्मार्ट बिल्कुल भी नहीं हैं.

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मौनी अमावस्या पर जानिए जीवन में मौन की जरूरत
मौनी अमावस्या पर जानिए जीवन में मौन की जरूरत

महाकुंभ का दौर चल रहा है. प्रयागराज में संगमतट पर श्रद्धालुओं का जमघट है. लोग हर-हर गंगे के उद्घोष के साथ स्नान कर रहे हैं. इस मान्यता के साथ कि गंगा स्नान से उनके जीवन के पाप धुल रहे हैं और मन निर्मल हो रहा है. प्रमुख स्नान तिथियों पर गंगा तट पर लोगों की भीड़ भी बढ़ रही है. ऐसी ही तिथि आज है, जिसका पुराणों में और प्राचीन काल से बेहद महत्व है. यह है मौनी अमावस्या. माघ मास के अमावस्या की वह तिथि जब श्रद्धालु ब्रह्म मुहूर्त से मौन धारण कर लेते हैं और फिर मौन रहकर ही स्नान करते हैं. 

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माघ मास के कृष्णपक्ष अमावस्या की तिथि का सनातन परंपरा में बहुत महत्व रहा है. यह तिथि दान, धर्म, तप और स्नान के लिए बहुत शुभ मानी जाती है. इसके साथ ही इस दिन मौन का बहुत महत्व है. मौन का यह महत्व हमें जीवन परिस्थिति में जीने का सलीका सिखाता है. यह मौन सिर्फ पाप-पुण्य तक ही सीमित नहीं है, बल्कि आज के आधुनिक जीवन में भी बहुत प्रासंगिक है.

अध्यात्मिक आधार पर बात करें तो मौनी अमावस्या, माघ की अमावस की तिथि को पड़ने वाला एक व्रत है. इस व्रत में सामान्यत: लोग अपनी सामर्थ्य के अनुसार व्रत लेते हैं कि वह एक निश्चित समय के लिए मौन रहेंगे. यह समय कुछ मिनट, घंटे से लेकर पूरे एक दिन तक का हो सकता है. कई धार्मिक श्रद्धालु गंगा स्नान का व्रत लेते हैं और ब्रह्म मुहूर्त से लेकर जब तक स्नान नहीं कर लेते हैं, मौन रहते हैं.  मौन की यह अवधारणा सनातन परंपरा से चली आ रही है, जिसमें इसका महत्व शब्द से भी ऊंचा बताया गया है.

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कैसे हुई मौन की शुरुआत?

मौन रहने की शुरुआत वास्तव में किसने की होगी, इसके लिए कोई एक सत्य घटना नहीं है. हालांकि महाभारत के लिखे जाने का एक प्रसंग काफी चर्चित है. कहते हैं कि भगवान गणेश महाभारत लिखने के लिए तैयार हो गए, लेकिन शर्त रखी कि वह बोलेंगे नहीं. मौन रहेंगे, महर्षि वेद व्यास मान गए. कई वर्षों तक ग्रंथ के लेखन का कार्य होता रहा. महाभारत के शांति पर्व में इस मौन की व्याख्या भी है.  

श्रीगणेश कहते हैं कि जब किसी महान कृति का निर्माण होना होता है तो सारी इंद्रियों का ध्यान उसी कार्य में होना चाहिए.  बार-बार बोलना या वाचलता आपका ध्यान भटका सकती है. श्रीगणेश मौन को मन की आवाज कहती हैं.  मन की आवाज यानि शांति और इस शांति से आती कहीं दूर आत्मा के चेतना के स्वर को सुनना ही मौन है.  मौन इस लोक से उस लोक के गमन का मार्ग भी है.

कहते हैं कि सृष्टि के निर्माण के साथ ही मौन का जन्म हुआ. क्योंकि ब्रह्मा ने जब सृष्टि बनाई तो यह आवाज और संवेदना से हीन थी. बाद में देवी सरस्वती की वीणा ने इसमें रस का समावेश किया.  तबसे ही सृष्टि में स्वर आया.  इस तरह से मौन को धारण करना एक तरह से अपने प्रारंभ की ओर जाना है, जहां से शुरुआत हुई थी.  कई बार कठिन संकटों के हल प्रारंभ में देखने से मिल जाते हैं. जब आप किसी समस्या से घिरे हों और कुछ भी न सूझ रहा हो तो आप मौन रहकर देखिए. कई बार समस्या और अन्य परेशानियों की आपाधापी में हम उसके हल तक नहीं पहुंच पाते हैं, लेकिन जब आप मौन धारण करते हैं, एकांत में रहकर, ठहरकर कुछ पल सोचते हैं तब कई बार समस्या इतनी बड़ी नहीं लगती है, जितना कि हम उसे सोचते या समझते हैं.

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वास्तव में मौन, सिर्फ चुप रह जाना नहीं है, बल्कि यह ध्यान की ओर बढ़ने का पहला कदम है.

आज के दौर में मौन की अवधारणा

अब अगर आधुनिक युग की बात करें, तो मौन को लेकर कई तरह की अवधारणाएं सामने आती हैं. पहली बात तो ये समझना जरूरी है कि, मौन का अर्थ चुप्पी साध जाना, चुप रह जाना या अपने अधिकारों के लिए और अन्याय के खिलाफ न बोलना नहीं है. 

इस मौन का अर्थ सिर्फ वक्त पर जरूरी बात बोलने की समझ होना है. अंग्रेजी में भी कहते हैं कि Silence is the best Answer. यानी कई बार कोई उत्तर देने के बजाय चुप रहना अधिक बेहतर होता है. कार्पोरेट जगत में यह काफी काम का नुस्खा है. अगर आप जरूरत से अधिक बोल रहे हैं तो यकीन मानिए आप स्मार्ट बिल्कुल भी नहीं हैं, बल्कि आप अपने लिए गहरी खाई खोद रहे हैं. इसे ऐसे भी कहा जाता है, कि बोलो कम, सुनो ज्यादा. इस मंत्र को सफलता की कुंजी बताया जाता है और यह सही भी है. कई लोग सिर्फ अधिक बोलने की वजह से अपनी विश्वसनीयता खो देते हैं. इससे बचना चाहिए.

ध्यान रखिए, अगर आप दफ्तर में हैं और सिर्फ लोगों को अपनी ओर अट्रैक्ट करने के लिए या फिर सेंटर ऑफ अट्रेक्शन बनने के लिए अनावश्यक बोल रहे हैं और गैरजरूरी गतिविधियों में लगे रहते हैं, तो आप अपने अहित की ओर खुद बढ़ रहे हैं. ऑफिस, आपके जीवन में  वो जगह है, जहां आप को उन सारी नैतिकताओं का पालन हर हाल में करना चाहिए, जिसके बारे में किताबें बताती रही हैं. दफ्तर, व्यावहारिक होने, काम के प्रति ईमानदार होने और स्वाभिमान के साथ विनम्र होने की सबसे जरूरी जगह है. 

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जरूरी बात ये कि विनम्रता चाटुकारिता का नाम नहीं है. ये विनम्रता मौन से ही आती है और इसका दूसरा फैक्टर है सच. इसे लेकर संस्कृत में भी एक श्लोक है, 'सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात, मा ब्रूयात सत्यम् प्रियम्.' यानि सत्य बोलो, प्रिय बोलो, लेकिन अप्रिय सत्य मत बोलो. यानी वर्क प्लेस जैसे मामले में हर तरह के सच बोलने की जरूरत नहीं होती है. इसका यह मतलब नहीं कि आप झूठे हो जाएं और झूठ बोलते रहें, लेकिन कई बार कुछ बोलने के बजाय आप चुप तो रह ही सकते हैं. खासकर जो सच आप से जुड़े हुए नहीं हैं तो उन्हें बोलने की क्या ही जरूरत. कार्पोरेट में काम करने वाले हर शख्स को यह जरूर समझना चाहिए. वाणी यानी कि बोलने पर लगाम तो लगाकर रखनी ही चाहिए. 

वाणी पर नियंत्रण कितना जरूरी?
वाणी पर नियंत्रण कितना जरूरी है, इसे महाभारत के द्रौपदी-दुर्योधन प्रसंग से भी समझा जा सकता है, जहां द्रौपदी ने, लड़खड़ा कर गिर पड़े दुर्योधन पर कटाक्ष किया, अंधे का पुत्र अंधा. इस एक वाक्य ने महाभारत का युद्ध होना और तय कर दिया था. हालांकि महाभारत के महाविनाशी युद्ध होने की इकलौती वजह द्रौपदी को नहीं माना जा सकता है, लेकिन जिन-जिन कारणों से यह युद्ध हुआ, उनमें से एक कारण द्रौपदी ने बेवजह ही अपने नाम पर करवा लिया. 

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कहने का मतलब ये है कि द्रौपदी ने दुर्योधन को 'अंधे का पुत्र' नहीं कहा होता तो भी दुर्योधन के कर्मों के कारण तो महाभारत की लड़ाई होनी ही थी, लेकिन जब इतिहास युद्ध के कारण लिखने बैठा तो उसने एक कारण द्रौपदी के खाते में भी लिखा. इस वजह से द्रौपदी सिर्फ एक गलती के कारण उस लिस्ट में शामिल हो गई, जिसके कारण इतना बड़ा विनाश हुआ.

कबीर ने मौन पर क्या कहा?
मौन, संपूर्ण विश्व को भारत की ओर से दिया गया सबसे महत्वपूर्ण दर्शन है. इसे आज के समय में सारा विश्व ही अपना रहा है. इस दर्शन के प्रणेता बाबा कबीर से लेकर रहीम तक और, सूफी परंपरा भी रही है. कबीर अपनी साखी में कहते हैं कि-

'कबीरा यह गत अटपटी, चटपट लखि न जाए. जब मन की खटपट मिटे, अधर भया ठहराय.' 

कबीर कहते हैं कि होंठ वास्तव में तभी ठहरेंगें या तभी शांत होंगे, जब मन में जारी उद्वेग यानी खटपट मिट जाएगी. हमारे होंठ भी ज्यादा इसीलिए चलते हैं क्योंकि मन अशांत है और जब तक मन अशांत है आप कभी भी सत्य को नहीं पा सकते हैं. शरीर की और अधरों की वाचाल गति बाहर की ओर उत्पन्न हो रहा शोर ही है.

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कल्पना की उड़ान और मौन
मौन का अर्थ है. मन का शांत हो जाना यानी कि मन कल्पनाओं की व्यर्थ उड़ान न भरे. आंतरिक मौन में लगातार शब्द मौजूद भी रहें तो भी, मौन बना ही रहता है. उस मौन में आप कुछ बोलते भी रहो तो भी मौन पर कोई फर्क नहीं पड़ता है. विद्यार्थी जीवन में मन कल्पनाओं की उड़ान बहुत भरता है. यह अच्छी बात है, लेकिन 'अति सर्वत्र वर्जयेत् (अधिकता कहीं भी अच्छी नहीं) का मंत्र यहां भी लागू होता है. लेकिन कई बार किशोरवस्था मौन के शोर से भरी होती है.

इसे ऐसे समझिए, एक 15 वर्ष का किशोर पढ़ने बैठा है. अचानक उसके मन में कौंधा कि जब मैं बड़ा हो जाऊंगा तो इतने पैसे कमाऊंगा. फिर मैं बड़ा घर खरीदूंगा, या फिर कोई भी ऐसी इच्छा जो उसके मन में पनप जाए वह उसके बारे में सोचने लगता है. दूर से देखें तो लगेगा कि वह पढ़ने बैठा है, लेकिन नहीं वह मन में कुछ और ही बोल रहा है. उसके मन में कल्पनाएं शोर मचा रही हैं और इसका परिणाम यह है कि वह पढ़ाई नहीं कर रहा है. वह वर्तमान को नहीं जी रहा है, उसकी कल्पनाओं को सच कर देने का जो आधार है, वह उससे नहीं जुड़ पा रहा है. यह समस्या हर बढ़ती उम्र के साथ आम है.

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जैन परपंरा में मौन
मौन को जैन परंपरा में इंद्रिय जय का पहला चरण बताया गया है. यहां मौन और शांति चेतना के स्वरूप हैं. जब आप शांतचित्त होकर अपने भीतर की प्राणवायु की सरसराहट सुनने लगते हैं तो इसी क्षण आप धीरे-धीरे ब्रह्नांड से जुड़ने लगते हैं, अपनी इसी आंतरिक आवाज को सुनना ही ध्यान की ओर जाना है. फिर इसी ध्यान से परम आनंद आता है और इसके सत्य को जान लेने से इच्छा नाम का तत्व दूर हट जाता है. जैन परंपरा में इच्छा को माया कहा गया है.

बुद्ध ने मौन को कैसे समझाया है?
महात्मा बुद्ध भी ध्यान से पहले मौन को जरूरी बताते हैं. वह कहते हैं 'मौन से संकल्प शक्ति की वृद्धि तथा वाणी के आवेगों पर नियंत्रण होता है. मौन आंतरिक तप है इसलिए यह आंतरिक गहराइयों तक ले जाता है. मौन के क्षणों में आंतरिक जगत के नवीन रहस्य उद्घाटित (नए रहस्य खुलते हैं) होते हैं. मौन से सत्य की सुरक्षा होती है और वाणी पर नियंत्रण होता है. 

कहते हैं कि बुद्ध के संघ में एक नगर सेठ पहुंचा. घाटे से परेशान, व्यापार में हानि से चिंतित और लोगों से लगातार होने वाले झगड़ों से वह तंग आ चुका था. वह बुद्ध के पास अपनी समस्या का हल जानने पहुंचा था. बुद्ध ने संक्षिप्त उत्तर दिया कि, मैंने तु्म्हारी बात सुन ली है भंते, परंतु मैं व्यापारी नहीं हूं तो तुम्हारे लायक जवाब खोज पाने के लिए मुझे छह महीने का समय दो. 

सेठ ने कहा- ठीक है, आप ले लीजिए छह महीने, लेकिन तबतक मैं क्या करूं? बुद्ध ने कहा- मैं तुम्हें जरूर उपाय बताऊंगा, लेकिन तब तक तुम एक काम करो, मौन धारण कर लो. हर हाल में मौन रहना, इतना कि जब तक तुम्हारी जान पर न बन आए तब तक. जरूरी हुआ तो इशारों में कह लेना या लिखकर अपनी बात करना, लेकिन मौन रहना. यहां तक कि अपनी समस्या भी किसी से न कहना. वादा करो कि ऐसा करोगे, तब तक मैं तुम्हारी समस्या का हल खोजने जाता हूं.

नगर सेठ बुद्ध का अनुयायी था. उसने मौन की बात मान ली. अब वह नौकरों पर झल्लाता नहीं था. साझीदारों से बिगड़ता नहीं था. मौन रहने के कारण बहुत से काम खुद करने पड़े, जिनके लिए वह नौकरों को गैरजरूरी आवाज लगाता था. छह महीने तक में उसके व्यवहार में बहुत बदलावा आया और वह धीरे-धीरे यह भूल ही गया कि वह बुद्ध से किसी समस्या का हल मांगने पहुंचा था. 

एक दिन बुद्ध खुद भ्रमण करते हुए उसके पास पहुंचे और उससे समस्या पूछी, लेकिन सेठ को अब समस्या थी ही कहां. उसके मन में जो प्रकाश मौन रहने के कारण फूटा था. उसमें ही उसे अपनी सारी समस्याओं का हल मिल गया था. वास्तव में महात्मा बुद्ध भांप गए थे कि उसका शोर ही उसकी समस्या थी और मौन ही उसका हल.

मौन का घर में पड़ता है सकारात्मक प्रभाव
कथावाचक मोरारी बापू एक कथा बताते हैं कि किसी गांव में सास-बहू के बीच बहुत झगड़ा था. एक दिन उस गांव में एक साधु आए. ये दोनों सास-बहू घर की क्लेश शांति के लिए साधु से मिलीं और उनसे उपाय पूछा. साधु महाराज ने दोनों से ही अलग-अलग बात की और फिर एक पुड़िया बना कर दी. कहा कि आप दोनों, सुबह का सूरज निकलने से पहले इस पुड़िया में से चुटकी भर भभूत पानी में मिलाकर पी लेना, लेकिन शर्त ये है कि बहू सास के हाथ का दिया पानी पिए, और सास को बहू ये पानी ले जाकर दे. 

दूसरा काम ये करना है कि जुबान पर बिल्कुल ताला लगा रहे. अगर सास कुछ कह दे तो बहू को उसका जवाब नहीं देना है, और किसी दिन बहू कुछ नाराज हो तो सास को चुप रहना है. इस पुड़िया का असर तभी होगा, जब आप ये उपाय करोगी, नहीं तो इसका उल्टा असर होगा कि घर-परिवार बर्बाद हो जाएगा.

सास-बहू दोनों ने साधु की बात मान ली. अब अगले दिन बहू सूरज निकलने से पहले उठी और सास को भभूत मिला पानी जाकर दिया. सुबह-सुबह बहू के हाथ से पानी मिलने लगा तो सास खुश रहने लगी. उधर भभूत के कारण ही सही, बहू को लगने लगा कि सास मेरा ख्याल रखती हैं. इसी तरह दोनों ने धीरे-धीरे एक दूसरो जवाब देना बंद कर दिया और घर में खुशहाली की लहर दौड़ गई. मोरारी बापू कहते हैं कि कुछ दिनों बाद साधु आए और सास-बहू से हाल पूछा. इस बार तो दोनों सास-बहू ऐसे मिलीं जैसी कि मां-बेटी. 

अधिक बोलना है नुकसान दायक
यह मौन का ही परिणाम था. अधिक बोलना, सिर्फ आपकी बातचीत-व्यवहार, और वर्क प्लेस को ही नुकसान नहीं पहुंचाता है, बल्कि यह आपके घर-परिवार में भी बर्बादी लाता है. इसलिए लोगों से खूब हिल-मिल कर रहिए, खूब बातचीत होती रहे, लेकिन कहां मौन हो जाना है, इस मंत्र को भी समझ लीजिए. यही मंत्र आपकी सफलता की कुंजी है.

सदियों से भारतीय ऋषियों-मुनियों ने हमें कई उपहार दिए हैं. मौन का दर्शन इनमें बहुत महत्वपूर्ण है. इस मौनी अमावस्या पर आप इसे सिर्फ एक व्रत-पूजा का नियम न समझें, बल्कि इसे अपने जीवन में उतारी जाने वाली अच्छी आदत में शुमार करें, वाकई मौन आपकी पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ में बहुत काम आएगा.

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