डायरेक्टर ग्रेटा गेरविग की फिल्म बार्बी ने बॉक्स ऑफिस से लेकर सोशल मीडिया तक पर तहलका मचाया हुआ है. फिल्म में हर जगह गुलाबी रंग दिखता है. यहां तक कि गूगल पर ग्रेटा का नाम डालने पर भी पिंक पेज खुलेगा. बार्बी और लड़कियों से जोड़ा जाता ये रंग एक समय पर काफी विवादित रह चुका है. यहां तक कि पिंक के एक खास शेड को इसलिए बैन किया गया क्योंकि वो लोगों को दिमागी तौर पर कमजोर बनाता था.
एक्सपर्ट ने बनाया नया शेड
सत्तर के दशक के आखिर में अमेरिकी रिसर्चर एलेक्जेंडर सचॉस ने एक रंग बनाया. ये सफेद लेटेक्स पेंट और लाल आउटडोर पेंट के खास प्रतिशत को मिलाकर बना था. चमकीले गुलाबी इस रंग को नाम दिया गया सचॉस पिंक और बेकर-मिलर पिंक. ये चमकीला गहरा गुलाबी रंग था.
कैदियों पर प्रयोग की शुरुआत
एलेक्जेंडर इसके साथ अपने ही शरीर पर प्रयोग करने लगे. इसी दौरान उन्हें पता लगा कि इसका एक टोन शरीर पर काफी असर करता है और लगातार इस रंग को देखने पर वे कमजोर होने लगे थे. इस बीच वैज्ञानिक ने सिएटल के नेवल करेक्शन यूनिट को राजी कर लिया कि वे कैदियों पर इस रंग से प्रयोग करें. यूनिट के नाम पर इस पिंक टोन को बेकर-मिलर पिंक कहा गया.
कैदियों के बीच मारपीट घटने लगी
मार्च 1979 में सिएटल के सबसे हिंसक कैदियों पर प्रयोग शुरू हुआ. उनके कमरों की दीवारें बेकर-मिलर पिंक से रंग की दी गईं. जल्द ही इसका असर दिखने लगा. पहले बात-बात पर मारपीट पर उतर आने वाले क्रिमिनल अब शांत होने लगे थे. यहां तक कि कई लोग डिप्रेशन का शिकार हो गए. इसके बाद कमरों की दीवारों से रंग हटा लिया गया, लेकिन पिंक से उनका एक्सपोजर जारी रहा.
खुद अमेरिकी नेवी की रिपोर्ट में दावा किया गया कि रोज 15 मिनट तक भी इस पिंक कलर में कैदियों को एक्सपोज किया जाए तो वे काफी हद तक शांत रहते हैं.
इसके बाद पिंक की ये टोन कई दूसरी जेलों में भी आजमाई गई, जहां के कैदी अपेक्षाकृत शांत मिजाज के थे. यहां इस कलर थैरेपी का रिजल्ट डरावना रहा. उनकी हार्ट रेट कम होने लगी, और वे अपने में गुमसुम दिखने लगे. हालांकि बाद में पाया गया कि बेकर-मिलर पिंक में ऐसा कोई असर नहीं होता है.
इसके बाद भी प्रयोग चलते रहे. स्विटजरलैंड की 10 जेलों में पिंक सेल बनाए गए. ये बेकर-मिलर पिंक से अलग बेबी पिंक रंग के थे. 4 सालों की स्टडी में दिखा कि कैदियों की आक्रामकता वाकई कम हो चुकी थी.
फुटबॉल खिलाड़ियों पर आजमाया गया
बेकर-मिलर पिंक का असर हर जगह दिखने लगा था. आइवा यूनिवर्सिटी की फुटबॉल टीम ने इसका अलग ही इस्तेमाल किया. उन्होंने अपने कुछ लॉकर रूम्स को गुलाबी कर दिया. जो भी गेस्ट टीम खेलने आती, उन्हें वहीं ठहराया जाता. संयोग है या वाकई असर, लेकिन वो टीमें हारने लगीं. इसके बाद भारी विरोध हुआ, और आइवा में फुटबॉल के दौरान इस पिंक टोन को पूरी तरह से बैन कर दिया गया.
क्यों इसे गर्ल्स कलर कहा जाने लगा?
इसके पीछे कई थ्योरीज हैं. एक कहती है कि गुलाबी रंग से हाइपरसेक्सुएलिटी पता लगती है. 19वीं सदी के मध्य में यूरोपियन सेक्स-वर्कर्स इसके शेड्स पहना करती थीं. गुलाबी के शेड पहनने की एक वजह ये भी थी कि तब इसका डाई ज्यादा सस्ता था, जिससे गुलाबी रंग के कपड़े भी सस्ते हुआ करते. सेक्सुअल, सेंसुअस मानकर इसे महिलाओं के हिस्से कर दिया गया.
टीवी पर ऐसे ही विज्ञापन बनने लगे, जिसमें लड़के नीले कपड़ों में और लड़कियां गुलाबी कपड़ों में दिखतीं. यहां से चलन चल पड़ा. कुछ एक्सपर्ट इसे पहले विश्व युद्ध से भी जोड़ते हैं, जब लड़ाई के बाद घर लौटे सैनिकों के दिमाग को आराम देने के लिए ये कलर महिलाएं पहनने लगीं.