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बोर्डिंग में पढ़ने और चीनी सीखने की बाध्यता, कैसे तिब्बत की पहचान मिटाने पढ़ाई का सहारा ले रहा बीजिंग?

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग चाहते हैं कि इस साल के आखिर तक देश की 85 फीसदी आबादी मेंडेरिन बोलने वाली बन जाए. बीजिंग का ये लक्ष्य अपने देश तक ही सीमित नहीं, बल्कि वो तिब्बत के लिए भी यही सपना देखता है. हाल में एक तिब्बती एक्टिविस्ट ने आरोप लगाया कि चीन भाषा और किताबों के जरिए तिब्बत की नई पीढ़ी को अपने ही देश से दूर कर रहा है.

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तिब्बत के स्कूलों में चीनी भाषा पर जोर दिया जा रहा है. (Photo- Reuters)
तिब्बत के स्कूलों में चीनी भाषा पर जोर दिया जा रहा है. (Photo- Reuters)

चीन की पहचान उसकी तेजी से बढ़ती इकनॉमी ही नहीं, बल्कि उसका विस्तारवादी रवैया भी है. वो कर्ज देकर कई देशों की आंतरिक राजनीति में पैठ जमाता रहा. इसके अलावा कई देश हैं, जिन्हें वो अपना ही हिस्सा मानता रहा. तिब्बत उनमें से एक है. हाल में उसपर आरोप लगा कि वो तिब्बत की नई पीढ़ी को अपने ही कल्चर से दूर करने के लिए नैरेटिव कंट्रोल कर रहा है. इसके लिए वो कोर्स बुक्स में बदलाव से लेकर कई और तरीके अपना रहा है. 

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फरवरी में जिनेवा समिट के दौरान एक तिब्बती एक्टिविस्ट नामकी ने आरोप लगाया कि जब वे 15 साल की थीं, तब उन्होंने बीजिंग के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया था. इसके बाद से वे जिनपिंग सरकार के निशाने पर रहीं. कई सालों तक उन्हें डराया-धमकाया गया और तरह-तरह की पाबंदियां लगा दी गईं, जिसके चलते साल 2023 में उन्हें तिब्बत से भागकर पश्चिम की शरण लेनी पड़ी. बता दें कि चीन लंबे समय से तिब्बत पर अपना दावा करता रहा और इससे अलग सोच रखने वाले कई तरह की पाबंदियां या जासूसी झेलते रहे. 

तिब्बत पर क्यों है चीन का क्लेम

चीन का कहना है कि तिब्बत प्राचीन समय से उसका हिस्सा रहा. वैसे तिब्बत का इतिहास बेहद उथल-पुथल भरा रहा. कभी उसपर मंगोलिया तो कभी चीन के राजवंशों की हुकूमत रही. पचास के दशक में बीजिंग की सेना ने तिब्बत पर सीधा हमला कर उसे अपने कब्जे में ले लिया. कुछ इलाकों को स्वायत्तशासी क्षेत्र में बदल दिया गया और कुछ को सटे हुए चीनी राज्यों में मिला दिया गया. इसके लगभग दशकभर बाद तिब्बत में चीन के खिलाफ विद्रोह हुआ जो नाकाम रहा. तभी दलाई लामा को भारत की शरण लेनी पड़ी. इसके बाद से चीन तिब्बत को अपना हिस्सा ही कहता आया है. यहां तक कि जो देश तिब्बत को सपोर्ट करें, वे भी उसके निशाने पर रहते हैं. 

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narrative control by china to remove tibetan identity through academia photo Reuters

तिब्बत की आने वाली पीढ़ियां चीन को आसानी से अपना लें, इसके लिए वो कथित तौर पर कोर्स बुक्स से लेकर वहां के बच्चों की लाइफस्टाइल में भी बदलाव करवा रहा है. द डिप्लोमेट की रिपोर्ट के मुताबिक, तिब्बती बच्चों को जबरन सरकारी रेजिडेंशियल स्कूलों में भेजा जा रहा है, जहां वे पेरेंट्स से दूर रहते हुए वही जानें, जो स्कूल उन्हें सिखाएगा.

तिब्बत एक्शन इंस्टीट्यूट के हवाले से इसमें बताया गया कि तिब्बत ऑटोनॉमस रीजन में ही चार लाख से ज्यादा बच्चे बोर्डिंग में भेजे जा चुके. वहीं कुल मिलाकर 1 मिलियन से ज्यादा तिब्बती बच्चे घर से दूर किए जा चुके. बच्चे इन्हीं स्कूलों में जाने को मजबूर हों, इसके लिए पुराने तिब्बती स्कूल बंद करवाए जा रहे हैं. 

बीजिंग प्रशासन ने तिब्बत में नई शिक्षा नीति लागू की, जिसके तहत स्कूलों में तिब्बती भाषा की जगह मेंडेरिन में पढ़ाई करवाई जा रही है. हालांकि, चीन का दावा है कि इन बोर्डिंग स्कूलों में दो भाषाएं पढ़ाई जा रही हैं लेकिन एक्सपर्ट मानते हैं कि ये महज लीपापोती ही है. चीन में एजुकेशन मॉडर्नाइजेशन 2035 प्लान लागू हो चुका, जिसका टारगेट है कि अगले एक दशक में चीन पूरी तरह से जिनपिंग की पॉलिसीज के रंग में ढल जाए. कथित तौर पर यहां हाई क्वालिटी एजुकेशन दी जा रही है, जिसके साथ ही देशप्रेम भी सिखाया जा रहा है. इसमें चीनी हीरोज और चीनी संस्कृति के चैप्टर होते हैं, और तिब्बत इसमें से लगभग गायब है. 

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डिप्टोमेट की रिपोर्ट की मानें तो चीन की सरकार पेरेंट्स पर इसके लिए कई तरह से दबाव बनाती है. अगर तिब्बती अभिभावक अपने बच्चों को ऐसे स्कूल में भेजने से इनकार करें तो उन्हें किसी भी तरह का सरकारी फायदा नहीं मिलता. 

narrative control by china to remove tibetan identity through academia photo Unsplash

स्कूलों में बदलाव पर क्यों है जोर 

चीन पर पहले भी नैरेटिव कंट्रोल का आरोप लगता रहा. उसने हांगकांग और मकाऊ के स्कूलों में भी कैरिकुलम में काफी सारे बदलाव किए, जो चीन के पक्ष में थे. जैसे हांगकांग में कुछ सालों पहले नेशनल एजुकेशन कैरिकुलम प्रपोजल आया, जो चीन की उपलब्धियों की बात करता था. इससे तियानमेन स्क्वायर नरसंहार जैसे विवादित सबजेक्ट्स को हटा दिया गया और कम्युनिस्ट सरकार की उजली छवि ही दिखाई गई. काफी विरोध के बाद ये प्रस्ताव रद्द हो सका. कोविड के दौरान नेशनल सिक्योरिटी लॉ के तहत स्कूल और कॉलेजों में देशभक्ति को अनिवार्य कर दिया गया. अब स्कूलों में चीनी राष्ट्रीय गान बजाया जाता है. 

नैरेटिव कंट्रोल का ये तरीका चीन के अलावा कई और देश भी अपनाते रहे. यहां आगे बढ़ने से पहले बता दें कि नैरेटिव कंट्रोल या नैरेटिव सेट करने का मतलब है, सूचना, इतिहास और पढ़ाई-लिखाई पर कंट्रोल ताकि एक खास विचारधारा दबाई जा सके, या किसी खास सोच को बढ़ावा दिया जा सके. कई देशों ने इतिहास में नैरेटिव कंट्रोल का इस्तेमाल किया या अब भी कर रहे हैं. 

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इन देशों में एजुकेशन बना हथियार

- अमेरिकी स्कूलों में दासप्रथा और नेटिव अमेरिकियों के नरसंहार को हल्का करके दिखाया गया. साथ ही कोल्ड वॉर के दौरान कम्युनिज्म को और सोवियत संघ (अब रूस) की छवि एकदम खराब कर दी गई. 

- ब्रिटिश स्कूलों में कॉलोनियल राज के खराब पहलुओं को छिपाते उसे दुनिया में सभ्यता लाने वाला बताया गया. 

- चीन की किताबों में तियानमेन स्क्वायर नरसंहार का कोई जिक्र नहीं मिलता. यहां तक कि उइगर मुस्लिमों के दमन को आतंकवाद को कुचलने वाला अभियान बताया जाता रहा. 

- इजराइल और फिलिस्तीन में पढ़ाई जाने वाली किताबों में एक ही घटनाओं को दो अलग-अलग नजरिए से दिखाया जाता रहा. दोनों ही खुद को सही, जबकि दूसरे को गलत बताते हैं. 

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