नेपाल में 20 नवम्बर को हुए आम चुनाव के बाद अभी मतगणना का काम जारी है. अब तक प्राप्त रुझानों और नतीजों में किसी भी दल या गठबन्धन को स्पष्ट बहुमत मिलने की उम्मीद दिखाई नहीं दे रही है. राजनीतिक दलों के दावों और ओपिनियन पोल, एक्जिट पोल के सारे कयासों को झूठा साबित करते हुए एक नई राजनीतिक पार्टी ने सबके लिए खतरे की घंटी बजा दी है.
नेपाल के आम चुनाव के नतीजों में राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी की दमदार उपस्थिति ने पुराने सभी पार्टियों और नेताओं की नींद हराम कर दी है. नेपाल के दो-चार प्रमुख दलों के कुछ बड़े नेताओं की मुठ्ठी में जकड़ा नेपाल की राजनीति को उनके चंगुल से मुक्त कराने के लिए नेपाल स्वतंत्र पार्टी ने 'घंटी' चुनाव चिह्न लेकर पहली बार अपनी उम्मीदवारी दी थी.
महज 6 महीने पहले ही नेपाल की राजनीति का चाल, चरित्र और चेहरा बदलने के लिए कुछ युवाओं ने मिलकर चुनाव लड़ने की घोषणा की थी. और इस चुनाव में जनता ने भले सीटें अधिक नहीं दी हो लेकिन उनकी कोशिशों की हौसलाअफजाई जरूर की है. अब तक इस पार्टी को करीब एक दर्जन क्षेत्र में बढ़त मिली हुई है. राजधानी की तीन महत्वपूर्ण सीट तो इनके खाते में भी जा चुका है और काठमांडू की ही 4 अन्य सीट पर बढ़त बनाए हुए है. इतना ही नहीं समानुपातिक वोटों की गिनती में भी राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी को कांग्रेस और एमाले के बाद तीसरा सबसे अधिक वोट मिल रहा है. जबकि माओवादी और अन्य पुरानी पार्टियां काफी पीछे चल रही हैं.
6 महीने पहले जब नेपाल में स्थानीय चुनाव हुआ तो काठमांडू महानगरपालिका के मेयर के पद पर बड़े राजनीतिक दल के धुरंधर नेताओं को धूल चटाते हुए 34 वर्षीय युवा बालेन्द्र साह को भारी मत से विजयी बनाया था. किसी ने सोचा ही नहीं था कि तीन-चार राजनीतिक दलों के चंगुल में फंसे राजनीति को युवाओं का इतना प्यार मिलेगा. लेकिन नेपाल के चर्चित रैपर कलाकार बालेन्द्र साह जो कि पेशे से स्ट्रकचरल इंजीनियर हैं, उन्होंने मेयर बनकर सभी राजनीतिक पंडितों के होश गायब कर दिए.
पत्रकार ने रखा राजनीति में कदम
इससे उत्साहित होकर राजनीति में बदलाव चाहने वाले कुछ युवाओं ने जनता की नब्ज को टटोल लिया और परंपरागत और रूढ़िवादी राजनीतिक दलों से निजात पाने के उनकी भूख को जानकर उनके सामने ताजा युवा चेहरा को चुनाव में परोस दिया. इसकी अगुवाई की नेपाल के ही एक चर्चित पत्रकार ने जिसका नाम है रवि लामिछाने. 6 महीने पहले तक नेपाल के एक निजी टीवी चैनल पर जनता के साथ सीधा संवाद नाम का सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम चलाने वाले रवि हमेशा ही राजनीति में युवाओं की सहभागिता और वैकल्पिक राजनीतिक शक्ति की वकालत करते रहे. लेकिन स्थानीय चुनाव में जब बालेन्द्र साह को उम्मीदों से कहीं बढ़कर जनता का प्यार मिला तो कुछ ही दिन के बाद पत्रकारिता को अलविदा कह कर वो राजनीति के मैदान में कूद गए.
रवि लामिछाने के इस प्रयास में देशभर के होनहार युवाओं ने साथ दिया. कोई डॉक्टरी पेशा छोड़ कर, कोई अपनी इंजीनियरिंग की नौकरी छोड़कर, कोई सरकारी नौकरी छोड़कर तो कोई निजी कंपनी की लाखों की कमाई को छोड़ कर चुनावी मैदान में कूद गए. और इस चुनाव में करीब दर्जनभर स्थानों पर उनके उम्मीदवार आगे चल रहे हैं. कई स्थानों पर स्वतंत्र पार्टी के उम्मीदवार की वजह से बड़े दल के नेताओं की हार हो रही है.
बड़े-बड़े चेहरे हार की ओर
इस पार्टी के आने से सबसे अधिक नुकसान सत्तारुढ़ कांग्रेस, माओवादी और प्रतिपक्षी एमाले को हो रहा है. उनके बडे़-बडे़ नेता इसकी चपेट में आ गए हैं और चुनाव हार रहे हैं. काठमांडू की महत्वपूर्ण तीन सीटें जितने और चार अन्य पर बढ़त बनाए जाने से यहां की पुरानी पार्टी के बड़े चेहरे को चुनाव में हार का सामना करना पड़ा है. माओवादी की दो दिग्गज महिला नेता पूर्व स्पीकर ओनसरी घर्ती और वर्तमान ऊर्जा मंत्री तथा माओवादी पार्टी की प्रवक्ता पम्फा भुषाल तक को हार का सामना करना पड़ रहा है.
स्वतंत्र पार्टी के मैदान में होने से पूर्व प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली की पार्टी के दूसरे सबसे बड़े नेता ईश्वर पोखरेल अपने ही क्षेत्र से चुनाव हार गए हैं. जबकि ओली की पार्टी के महासचिव शंकर पोखरेल भी हार के करीब हैं. स्वतंत्र पार्टी के अध्यक्ष रवि लामिछाने के खिलाफ चुनाव लड़ रहे नेपाल के शिक्षा मंत्री उमेश श्रेष्ठ बहुत पीछे चल रहे हैं.
वैसे रवि लामिछाने ने पहले तो माओवादी पार्टी के अध्यक्ष प्रचण्ड के खिलाफ चुनाव लड़ने की घोषणा की थी लेकिन अन्तिम समय में प्रचण्ड ने अपने गृह नगर चितवन से हार की डर से मैदान छोड़ दिया और अपनी परम्परागत सीट छोड़कर जीत सुनिश्चित करने के लिए चीन की सीमा से सटे गोरखा जिला चले गए.
रवि लामिछाने की पार्टी ने कांग्रेस एमाले माओवादी के बडे़-बडे़ नेताओं का खेल बिगाड़ दिया है. सरकार में मंत्री रहे कई नेताओं को हार का सामना करना पड़ सकता है. नेपाल में इस नए वैकल्पिक राजनीतिक शक्ति के कारण एक बात तो तय है कि यहां की राजनीति अब बहुत दिनों तक 70+ नेताओं के हाथ में नहीं रहने वाली है.