जापान के प्रधानमंत्री शिगेरू इशिबा ने एशिया में मजबूत सैन्य गठबंधन की बात करते हुए एशियाई नाटो तैयार करने की बात की. दूसरे वर्ल्ड वॉर के बाद से ही वो अपनी सुरक्षा के लिए काफी हद तक अमेरिका पर निर्भर है. यहां तक कि उसके पास सेना भी सीमित रही. अब आसपास मची अस्थिरता को देखते हुए नए पीएम ने एशिया में नाटो तैयार करने की बात कह दी. वहीं भारत ने ऐसे किसी गठबंधन का हिस्सा बनने के प्रस्ताव को ही खारिज कर दिया.
पीएम इशिबा ने यूरोप की तर्ज पर नाटो की बात की. उनका तर्क है कि यूरोप के नाटो की तरह एशिया में भी अंब्रेला सैन्य सिस्टम होना चाहिए ताकि कुछ खासतौर पर आक्रामक देशों से बचाव हो सके. दूसरे विश्व युद्ध के बाद से ये देश अपनी सुरक्षा के लिए लगभग अमेरिका की तरह देखता आया है.
दरअसल युद्ध हारने के बाद उसने एक नया संविधान अपनाया था, जिसके तहत उसके पास युद्ध शुरू करने या आक्रामक कार्रवाई का अधिकार नहीं. उसके पास सेना भी सीमित है. इस देश के सभी बड़े शहरों में अमेरिकी सैन्य अड्डे हैं. लेकिन हाल के दिनों में उसकी सेल्फ डिफेंस की सोच में कई बदलाव दिखे. इसके कई कारण भी हैं.
जापान के साथ क्या बदल रहा
- चीन के सैन्य विस्तार और आक्रामकता ने पूरे एशिया-पैसिफिक को डरा रखा है. दक्षिणी चीन सागर में स्थित सेनकाकु द्वीप पर भी वो दावा करता है, जो जापान के बेहद करीब है. ऐसे में जापान अपनी सुरक्षा को लेकर डरा हुआ है.
- उत्तर कोरिया का न्यूक्लियर प्रोग्राम और आएदिन ऐसे हमलों की बात करना भी चिंता की वजह है. कई बार उसने जापान के पास से मिसाइलें दागी हैं.
- इस देश का उत्तर में बसे कुरील द्वीप समूह को लेकर रूस से विवाद रहा. वर्ल्ड वॉर के बाद से इसपर रूस का ही कब्जा रहा, लेकिन जापान इसे अपना कहता है.
- जापान के संविधान का अनुच्छेद 9 युद्ध न करने की बात करता है. हाल के सालों से इसे रीडिफाइन करने की बात हुई. पूर्व पीएम शिंजो आबे ने भी इसपर कई बार चर्चा की.
अब इशिबा जोर दे रहे हैं कि देश को अपने सुरक्षा ढांचे में बदलाव करना चाहिए ताकि वो बदलते समीकरणों के बीच सुरक्षित रह सके. हालांकि पीएम के इस प्रपोजल पर उसका सुरक्षा पार्टनर अमेरिका ही खास इच्छुक नहीं. पिछले साल अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन ने कहा था कि वे एशिया पैसिफिक में नाटो जैसा संगठन बनाने की नहीं सोच रहे. हाल ही में अमेरिकी सहायक विदेश सचिव डेनियल ने भी कह दिया कि इस बारे में बात करना अभी जल्दी होगी.
भारत का क्या रुख
रॉयटर्स की रिपोर्ट के अनुसार मंगलवार को विदेश मंत्री एस जयशंकर ने साफ किया कि भारत जापान की तरह सैन्य गठबंधनों पर निर्भर नहीं. क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए उसकी रणनीति अलग है. साथ ही भारत कभी भी किसी देश का औपचारिक सैन्य सहयोगी नहीं रहा. इसके अलावा क्वाड भी है, जिसमें भारत और जापान दोनों ही शामिल हैं और जो चीन के खिलाफ एक शक्ति संतुलन की तरह काम कर रहा है. कुल मिलाकर भारत ने एशियाई नाटो की चर्चा से लगभग दूरी बना ली.
क्या है नाटो और क्या मकसद रहा?
ये एक मिलिट्री गठबंधन है. पचास के शुरुआती दशक में पश्चिमी देशों ने मिलकर इसे बनाया था. तब इसका इरादा ये था कि वे विदेशी, खासकर रूसी हमले की स्थिति में एक-दूसरे की सैन्य मदद करेंगे. अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और कनाडा इसके फाउंडर सदस्थ थे. ये देश मजबूत तो थे, लेकिन तब सोवियत संघ (अब रूस )से घबराते थे. सोवियत संघ के टूटने के बाद उसका हिस्सा रह चुके कई देश नाटो से जुड़ गए. रूस के पास इसकी तोड़ की तरह वारसॉ पैक्ट है, जिसमें रूस समेत कई ऐसे देश हैं, जो पश्चिम पर उतना भरोसा नहीं करते.
भारत क्यों नहीं इसका सदस्य?
भारत आर्थिक और सैन्य तौर पर काफी मजबूत है इसलिए उसे कई बार इसकी सदस्यता का ऑफर मिल चुका, लेकिन वो हर बार इसे टाल देता है. नाटो फिलहाल दुनिया का सबसे मजबूत सैन्य अलायंस माना जाता है. इसमें शामिल होना भारत के लिए फायदे और नुकसान दोनों ला सकता है. सीधा-सीधा फायदा ये है कि उसकी सीमाएं और ज्यादा सेफ रहेंगी.
इस मेंबरशिप के अपने खतरे भी
नाटो में अमेरिका और ब्रिटेन का अब भी दबदबा है, जबकि भारत काफी बड़ी अर्थव्यवस्था और न्यूट्रल ताकत के तौर पर उभर रहा है. ऐसे में नाटो से जुड़ना उसकी इमेज पर असर डाल सकता है. दूसरा, रूस से भी हमारे ठीक संबंध है और कई चीजों का आयात-निर्यात होता है. इसमें भी रुकावट आ जाएगी. इसके अलावा सबसे अहम वजह ये है कि हमारी अपनी विदेश नीति है. नाटो से जुड़ने पर विदेश नीति में कई बदलाव लाने होंगे, जो मौजूदा समय में भारत नहीं चाहता.
तो क्या एशिया में कोई सैन्य गठबंधन नहीं
कई एशियाई देशों में सैनिक सहायता को लेकर करार है. जैसे क्वाड में जापान और भारत के साथ अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया भी शामिल हैं. इसका मकसद क्षेत्र में पावर बैलेंस स्थापित करना है.
शंघाई सहयोग संगठन भी है, जिसमें भारत के साथ चीन, रूस, पाकिस्तान, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान जैसे कई देश हैं. ये सुरक्षा के साथ कल्चरल एक्सचेंज पर भी काम करता रहा.
ASEAN भी है, जिसमें ब्रुनेई, कंबोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड, वियतनाम हैं. लगभग डेढ़ दशक पहले बने संगठन का काम सैन्य सहायता के साथ डिजास्टर मैनेजमेंट पर काम करना भी है.
इसके अलावा कई देशों, जैसे जापान और साउथ कोरिया की अमेरिका से द्विपक्षीय सैन्य संधि है कि वो मुसीबत में उनकी मदद करेगा.