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जाति है कि जाती नहीं. राजनीति से... क्योंकि यही जाति सदन में नेताओं की कुर्सी पक्की करती है.
आजादी के बाद जब 1951 में पहली जनगणना होनी थी, तब केंद्र की जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने तय किया कि आजाद भारत में जाति आधारित भेदभाव को खत्म करना है, इसलिए जातिगत जनगणना की जरूरत नहीं है.
केंद्र भी यही दलील देती है कि जाति जनगणना कराने की नीति 1951 में ही छोड़ दी गई है, इसलिए अब कराना सही नहीं है.
लेकिन अब फिर से देशभर में जातिगत जनगणना की मांग शुरू हो गई है. बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने तो 'सर्वे' बताकर जाति जनगणना करवा भी ली. आंकड़े भी जारी कर दिए. बताया कि राज्य में पिछड़ा वर्ग की आबादी 63% है. इसमें अन्य पिछड़ा वर्ग 27% और अति पिछड़ा वर्ग 36% हैं. एससी 19% और एसटी 1.68% तो सामान्य वर्ग 15.52% हैं.
बिहार की जातिगत जनगणना को नीतीश कुमार का बड़ा दांव माना जा रहा है. क्योंकि अगले साल लोकसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में ओबीसी की आबादी के आंकड़े को देखकर ज्यादा आरक्षण की मांग कर इसका राजनीतिक इस्तेमाल किया जा सकता है.
ओबीसी कार्ड...
दलितों के एक बड़े नेता हुए हैं- कांशीराम. वही कांशीराम जिन्होंने बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की. कांशीराम ने नारा दिया था- 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी'.
उनके इस नारे का मतलब साफ था. जिसकी जितनी आबादी है, उसे उतना ही आरक्षण मिले. अब इसी तरह का एक और नारा चल पड़ा है. वो दिया है कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने. राहुल गांधी ने इस साल अप्रैल में कर्नाटक में चुनावी रैली में नारा दिया था, 'जितनी आबादी, उतना हक'.
राहुल गांधी तो अब खुले तौर पर जातिगत जनगणना कराने की मांग करने लगे हैं. सोमवार को राहुल ने सोशल मीडिया पर लिखा कि बिहार की जातिगत जनगणना से पता चलता है कि वहां ओबीसी, एससी और एसटी 84% है. इसलिए जातिगत जनगणना जरूरी है.
जातिगत जनगणना की मांग और सारी कवायदों से लग रहा है कि 2024 में ओबीसी कार्ड काफी अहम होगा.
ओबीसी... कितने अहम?
देश में ओबीसी एक बड़ा वोट बैंक है. और ओबीसी में बीजेपी की अच्छी-खासी पैठ मानी जाती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी ओबीसी से ही आते हैं.
लोकसभा चुनाव का ट्रेंड बताता है कि 10 साल में बीजेपी के लिए ओबीसी वोटों का समर्थन दोगुना हो गया है. चुनाव बाद हुए सर्वे में अनुमान लगाया गया था कि 2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 22 फीसदी ओबीसी वोट मिले थे, जो 2019 में बढ़कर 44 फीसदी हो गए.
इसी तरह बिहार में भी ओबीसी ने एनडीए का साथ दिया था. 2019 में बिहार में एनडीए को 70 फीसदी से ज्यादा ओबीसी वोट मिले थे. एनडीए में उस समय बीजेपी के अलावा जेडीयू और एलजेपी भी थी.
कितने हैं ओबीसी?
इसका फिलहाल कोई सटीक अनुमान नहीं हैं. क्योंकि 1931 के बाद से ओबीसी जातियों की गिनती बंद हो गई है. 2011 में सामाजिक-आर्थिक जनगणना में ओबीसी जातियों के आंकड़े जुटाए जरूर गए थे, लेकिन उसे सार्वजनिक नहीं किया गया.
ओबीसी की आबादी को लेकर कई सारे सरकारी आंकड़े हैं. 1990 में केंद्र की तब की वीपी सिंह की सरकार ने दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिश को लागू किया था. इसे मंडल आयोग के नाम से जानते हैं.
मंडल आयोग ने ओबीसी की 52 फीसदी आबादी होने का अनुमान लगाया था. हालांकि, मंडल आयोग ने ओबीसी आबादी का जो अनुमान लगाया था उसका आधार 1931 की जनगणना ही थी.
वहीं, पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे (PLFS) के मुताबिक, 2021-22 में ओबीसी की आबादी 46 फीसदी के आसपास होने का अनुमान है. वही, एससी 20 फीसदी और एसटी की आबादी लगभग 10 फीसदी है.
बीजेपी के पास क्या है इसका तोड़?
ओबीसी जातियों की गिनती की मांग बढ़ती जा रही है. कांग्रेस सांसद राहुल गांधी लगातार सरकार को घेर रहे हैं. सिर्फ राहुल गांधी ही नहीं, बल्कि तमाम विपक्षी नेता भी इस मुद्दे पर सरकार हमलावर हो गई है.
इस मुद्दे पर बीजेपी अब डिफेंसिव मोड में आ गई है. बीजेपी अध्यक्ष और सांसद जेपी नड्डा ने 21 सितंबर को संसद में ये तक बताया कि पार्टी के कितने ओबीसी सांसद और विधायक हैं.
नड्डा ने बताया था कि लोकसभा में बीजेपी के 303 में से 85 सांसद ओबीसी हैं. देशभर में कुल 1,358 बीजेपी विधायकों में से 27 फीसदी ओबीसी से आते हैं. वहीं, बीजेपी के 163 विधान पार्षदों में से 40 फीसदी ओबीसी जाति से हैं.
इतना ही नहीं, रोहिणी आयोग की रिपोर्ट को जातिगत जनगणना की काट माना जा रहा है. ओबीसी कोटे के लिए 2017 में केंद्र सरकार ने रोहिणी आयोग का गठन किया था. हाल ही में आयोग ने अपनी रिपोर्ट सौंपी है. माना जा रहा है कि सरकार रोहिणी आयोग की सिफारिशों को लागू कर सकती है.