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उमर अब्दुल्ला CM तो बन गए लेकिन राह आसान नहीं, समझिए J&K में कैसे बदल चुका है 'पावर' गेम

नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बन गए हैं. उमर अब्दुल्ला केंद्र शासित बने जम्मू-कश्मीर के पहले मुख्यमंत्री होंगे. हालांकि, उमर अब्दुल्ला के लिए राह उतनी आसान नहीं होगी, क्योंकि अनुच्छेद 370 हटने और केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद जम्मू-कश्मीर का 'पावर' गेम बहुत बदल गया है.

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उमर अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के सीएम बन गए हैं. (फाइल फोटो-PTI)
उमर अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के सीएम बन गए हैं. (फाइल फोटो-PTI)

अगस्त 2019 में केंद्र शासित प्रदेश बने जम्मू-कश्मीर को पांच साल बाद पहला मुख्यमंत्री मिल गया है. नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला अब जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री होंगे. उन्होंने बुधवार को सीएम पद की शपथ ली.

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उमर अब्दुल्ला के साथ-साथ सकीना इत्तू, जावेद डार, सुरिंदर चौधरी और जावेद राणा ने भी मंत्री पद की शपथ ली. छांब सीट से निर्दलीय जीतकर विधायक बने सतीश शर्मा को उमर सरकार में मंत्री बनाया गया है. उमर अब्दुल्ला की सरकार में सुरिंदर चौधरी डिप्टी सीएम होंगे. नौशेरा से विधायक बने सुरिंदर चौधरी ने जम्मू-कश्मीर बीजेपी के अध्यक्ष रविंद्र रैना को 7,819 वोटों से हराया था.

उमर अब्दुल्ला पहले भी जनवरी 2009 से जनवरी 2014 तक जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. लेकिन तब और अब में बहुत फर्क है. तब जम्मू-कश्मीर पूर्ण राज्य हुआ करता था और अब ये केंद्र शासित प्रदेश है. तब जम्मू-कश्मीर विधानसभा का कार्यकाल 6 साल का था, अब बाकी राज्यों की तरह ही 5 साल होगा. तब राज्य से जुड़े फैसले लेने की सारी शक्तियां विधानसभा और मुख्यमंत्री के पास होती थीं, पर अब काफी हद तक सारा कंट्रोल उपराज्यपाल के हाथ में होगा.

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अब जब जम्मू-कश्मीर की स्थिति काफी बदल चुकी है तो माना जा रहा है कि जिस तरह से दिल्ली में आम आदमी पार्टी सरकार और उपराज्यपाल के बीच तनातनी होती रहती है, उसी तरह की तनातनी जम्मू-कश्मीर में भी देखने को मिल सकती है. तभी तो कुछ दिन पहले दिल्ली के पूर्व सीएम अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि अगर हाफ स्टेट में सरकार चलाने में दिक्कत आए तो उमर अब्दुल्ला उनसे सलाह ले सकते हैं.

खैर, उमर अब्दुल्ला अब मुख्यमंत्री बन गए हैं. अगर सबकुछ ठीक रहा तो उनकी सरकार को पांच साल का कार्यकाल पूरा करने में मुश्किल भी नहीं आएगी. मगर इन पांच सालों में सरकार के कामकाज में उपराज्यपाल का दखल जरूर होगा.

मगर ऐसा क्यों?

क्योंकि, जम्मू-कश्मीर अब केंद्र शासित प्रदेश है. 2019 में संसद में जम्मू-कश्मीर रिऑर्गनाइजेशन एक्ट पास किया गया. इसके जरिए राज्य को दो हिस्सों- जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में बांटकर दो अलग-अलग केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया. जम्मू-कश्मीर में विधानसभा है, जबकि लद्दाख में विधानसभा नहीं है.

संविधान का अनुच्छेद 239 कहता है कि हर केंद्र शासित प्रदेश का प्रशासन राष्ट्रपति के पास होगा. इसके लिए राष्ट्रपति हर केंद्र शासित प्रदेश में एक प्रशासक की नियुक्ति करेंगे. अंडमान-निकोबार, दिल्ली, पुडुचेरी और जम्मू-कश्मीर में उपराज्यपाल होते हैं. जबकि दमन दीव और दादरा नगर हवेली, लक्षद्वीप, चंडीगढ़ और लद्दाख में प्रशासक होते हैं.

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2019 का जम्मू-कश्मीर रिऑर्गनाइजेशन एक्ट कहता है कि पुडुचेरी में लागू संविधान का अनुच्छेद 239A ही जम्मू-कश्मीर में भी लागू होगा. दिल्ली, विधानसभा वाला एकमात्र केंद्र शासित प्रदेश है, जहां 239AA लागू है. दिल्ली में पुलिस, जमीन और कानून-व्यवस्था को छोड़कर बाकी सभी मामलों में कानून बनाने का अधिकार दिल्ली सरकार को है.

एलजी मनोज सिन्हा और उमर अब्दुल्ला. (फाइल फोटो-PTI)

जम्मू-कश्मीर विधानसभा की शक्तियां क्या होंगी?

1947 में जब जम्मू-कश्मीर भारत में शामिल हुआ था, तो उसे रक्षा, विदेश मामले और संचार को छोड़कर बाकी सभी मामलों में कानून बनाने का अधिकार था. अनुच्छेद 370 रद्द होने से पहले तक जम्मू-कश्मीर विधानसभा के पास कई शक्तियां थीं, जबकि वहां के मामलों के लिए संसद की शक्तियां सीमित थीं.

हालांकि, 2019 के बाद जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक संरचना पूरी तरह से बदल गई है और अब वहां सरकार से ज्यादा बड़ी भूमिका उपराज्यपाल की हो गई है.

2019 का कानून कहता है कि पुलिस और कानून व्यवस्था को छोड़कर जम्मू-कश्मीर विधानसभा बाकी सभी मामलों पर कानून बना सकती है. लेकिन एक पेच भी है. अगर राज्य सरकार राज्य सूची में शामिल किसी विषय पर कानून बनाती है तो उसे इस बात का ध्यान रखना होगा कि इससे केंद्रीय कानून पर कोई असर न पड़े.

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इसके अलावा, इस कानून में ये भी प्रावधान किया गया है कि कोई भी बिल या संशोधन विधानसभा में तब तक पेश नहीं किया जाएगा, जब तक उपराज्यपाल ने उसे मंजूरी न दे दी हो.

उपराज्यपाल के पास क्या शक्तियां हैं?

अब जम्मू-कश्मीर में उपराज्यपाल ही एक तरह से सबकुछ है. सरकार को भले ही पुलिस और कानून व्यवस्था को छोड़कर बाकी मामलों में कानून बनाने का अधिकार है, लेकिन उसके लिए उपराज्यपाल की मंजूरी जरूरी होगी.

इतना ही नहीं, उपराज्यपाल का नौकरशाही और एंटी-करप्शन ब्यूरो पर भी नियंत्रण होगा. इसका मतलब हुआ कि उपराज्यपाल सरकारी अफसरों का ट्रांसफर और पोस्टिंग उपराज्यपाल की मंजूरी से होगा.

इसके अलावा, उपराज्यपाल के किसी भी काम की वैधता पर इस आधार पर सवाल नहीं उठाया जा सकता कि उन्हें ऐसा करते वक्त अपने विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए था या उन्होंने विवेक का इस्तेमाल नहीं किया था. उनके किसी फैसले को अदालत में इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि उन्होंने फैसला लेते वक्त मंत्री परिषद की सलाह ली थी या नहीं ली थी.

क्या टकराव की शुरुआत हो भी गई?

हाल ही में दो ऐसे फैसले लिए गए हैं, जिसे सरकार और उपराज्यपाल के बीच टकराव की शुरुआत माना जा रहा है. 

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हाल ही में जम्मू-कश्मीर पुलिस (गजेटेड) सेवा भर्ती नियम में संशोधन किया गया है. अब पुलिस में की जाने वाली सीधी भर्तियां जम्मू-कश्मीर लोक सेवा आयोग करेगा. साथ ही प्रमोशन के मामले डिपार्टमेंटल प्रमोशन कमेटी तय करेगी. ये संशोधन 10 अक्टूबर को ही किया गया है. यानी, चुनाव नतीजों के बाद. पहले पुलिस भर्ती के लिए जम्मू-कश्मीर का अपना भर्ती बोर्ड था.

इसके बाद, 11 अक्टूबर को ही जम्मू-कश्मीर सिविल सर्विस रूल्स में भी संशोधन किया गया है. इसके मुताबिक, अब जम्मू-कश्मीर सिलेक्शन बोर्ड के पास सभी पीएसयू, सरकारी कंपनियों, निगमों और बोर्ड में सर्विसेस और नॉन-गजेटेड पदों के साथ-साथ क्लास-4 की भर्तियां करने का अधिकार भी होगा. यानी, अब चुनी हुई सरकार क्लास-4 की श्रेणी में भी भर्ती नहीं कर सकेगी.

अब जम्मू-कश्मीर का संवैधानिक ढांचा पूरी तरह से बदल चुका है, जिससे मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच अधिकारों की जंग छिड़ सकती है.

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