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भारत की कितनी आबादी गरीब है? कोई सटीक आंकड़ा नहीं है. कई सारे आंकड़े हैं. कुछ सरकार के तो कुछ वर्ल्ड बैंक जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के.
गरीबों की आबादी के आंकड़ों पर बात इसलिए, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'गरीब' को सबसे बड़ी आबादी बताया है.
मंगलवार को एक रैली में पीएम मोदी ने कहा, 'कल से कांग्रेस ने एक अलग राग अलापना शुरू कर दिया है. कांग्रेस के नेता कहते हैं कि जितनी आबादी, उतना हक है. मैं कहता हूं कि इस देश में अगर कोई सबसे बड़ी आबादी है, तो वो 'गरीब' की है. इसलिए मेरे लिए 'गरीब' ही सबसे बड़ी आबादी है और उनका कल्याण ही मेरा मकसद है.'
मोदी ने ये बयान इसलिए दिया, क्योंकि सोमवार को बिहार की जातिगत जनगणना के आंकड़े सामने और उसके बाद कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने 'जितनी आबादी, उतना हक' की बात दोहराई.
बहरहाल, जब पीएम मोदी ने 'गरीब' को सबसे बड़ी आबादी बताया है. तो ऐसे में जानना जरूरी है कि भारत में वाकई कितनी आबादी गरीब है?
गरीब मतलब कौन?
इसकी परिभाषा सरकार ने तय कर रखी है. गरीबी रेखा की ये परिभाषा 2011-12 में तेंदुलकर कमेटी ने तय की थी.
इसके मुताबिक, अगर शहर में रहने वाला हर व्यक्ति 1000 और गांव में रहने वाला हर व्यक्ति 816 रुपये हर महीने खर्च करता है तो वो गरीबी रेखा से नीचे नहीं आएगा.
तेंदुलकर कमेटी के बाद यूपीए-2 सरकार में रंगराजन कमेटी बनाई गई थी. इस कमेटी ने 2014 में अपनी रिपोर्ट दी. इसमें बताया कि अगर शहर में रहने वाला हर व्यक्ति 1,407 रुपये और गांव में रहने वाला हर व्यक्ति 972 रुपये हर महीने खर्च कर रहा है तो उसे गरीबी रेखा से नीचे न गिना जाए.
हालांकि, सरकार ने रंगराजन कमेटी की इस सिफारिश को नहीं माना. लिहाजा अभी तेंदुलकर कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर गरीबी रेखा से नीचे की आबादी का अनुमान लगाया जाता है.
गरीबी रेखा की ये परिभाषा एक व्यक्ति के लिए न्यूनतम जीवन स्तर जीने के लिए जितने खर्च की जरूरत है, उसके आधार पर तय की गई है. इसमें स्वास्थ्य, शिक्षा और घर पर खर्च शामिल है.
हालांकि, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी परिभाषा अलग है. वर्ल्ड बैंक ने पिछले साल ही इसकी परिभाषा में बदलाव किया है. नई परिभाषा के मुताबिक, अगर कोई व्यक्ति हर दिन 2.15 डॉलर कमाता है, तो वो गरीबी रेखा से नीचे नहीं आएगा. भारतीय करंसी के हिसाब से ये 179 रुपये होते हैं.
भारत में कितने गरीब?
अनुमान के मुताबिक, आजादी के वक्त देश में 25 करोड़ से ज्यादा लोग गरीब थे. जो उस वक्त की आबादी का 80% होता है.
हमारे देश में 1956-57 से गरीबों की संख्या का हिसाब-किताब रखा जाने लगा है. बीएस मिन्हास आयोग ने योजना आयोग को अपनी रिपोर्ट दी थी. इसमें अनुमान लगाया गया था कि 1956-57 में देश के 21.5 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे थे.
गरीबी रेखा के सबसे ताजा आंकड़े 2011-12 के हैं. इन आंकड़ों के मुताबिक, देश की 26.9 करोड़ आबादी गरीबी रेखा से नीचे है. यानी, उस समय तक देश की 22% आबादी गरीबी रेखा के नीचे आती थी.
हालांकि, रंगराजन कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में अलग आंकड़े दिए थे. रंगराजन कमेटी ने अनुमान लगाया था कि 2011-12 में गांव की 26 करोड़ और शहर की 10 करोड़ आबादी गरीबी रेखा से नीचे आती है. यानी, पूरे देश में कुल 36 करोड़ से ज्यादा लोग ऐसे हैं जो गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहे हैं. हालांकि, इस रिपोर्ट को मंजूर नहीं किया गया था.
भारत के पड़ोसियों में पाकिस्तान की सबसे बुरी हालत
भारत के पड़ोसियों में पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क है, जहां की सबसे ज्यादा आबादी गरीब है. पाकिस्तान के आर्थिक संकट की वजह से वहां की आबादी गरीब होती जा रही है.
हाल ही में वर्ल्ड बैंक ने एक रिपोर्ट जारी की थी. वर्ल्ड बैंक के मुताबिक, एक साल में 1.25 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे आ गए हैं. पिछले साल पाकिस्तान की 34.2% आबादी गरीबी रेखा से नीचे थी, जो अब बढ़कर 39.4% हो गई है. इसके बाद पाकिस्तान में गरीबी रेखा से नीचे कुल आबादी 9.5 करोड़ हो गई है.
पाकिस्तान के बाद बांग्लादेश है जहां की करीब 10 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे आती है. चीन की महज 0.11 फीसदी आबादी ही गरीबी रेखा से नीचे आती है. ये आंकड़े अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तय गरीबी रेखा के हिसाब से हैं.
13.5 करोड़ भारतीय गरीबी से निकले!
इसी साल जुलाई में नीति आयोग ने 'मल्टी डायमेंशन पॉवर्टी इंडेक्स' जारी किया था. ये इंडेक्स कुपोषण, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे 12 इंडिकेटर्स से तय किया जाता है.
नीति आयोग ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया था कि पांच साल में 13.5 करोड़ भारतीय मल्टी डायमेंशनल पॉवर्टी से बाहर आए हैं.
आयोग के उपाध्यक्ष सुमन बेरी ने बताया था कि न्यूट्रीशन और स्कूलिंग में सुधार, साफ-सफाई पर ध्यान और खाना पकाने के लिए ईंधन का इस्तेमाल बढ़ने से गरीबी में गिरावट आई है.
रिपोर्ट के मुताबिक, 2015-16 में देश की 15% आबादी गरीबी के दायरे में थी. जो 2019-21 में कम होकर 15% पर आ गई. नीति आयोग ने ये रिपोर्ट नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट के आधार पर तैयार की थी.
वहीं, संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि 2005 में भारत की 55% आबादी मल्टी डायमेंशनल पॉवर्टी में आती थी. 2021 में ये घटकर 16.4% हो गई.