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सरकारी नौकरी कर रहे लोग चुनाव लड़ सकते हैं या नहीं? जानें पूरे नियम

राजस्थान में सरकारी डॉक्टर दीपक घोघरा को विधानसभा चुनाव लड़ने की मंजूरी मिल गई है. उन्हें हाईकोर्ट ने इसकी इजाजत दी है. ऐसे में जानते हैं कि सरकारी नौकरी करने वाला व्यक्ति के चुनाव लड़ने के नियम क्या हैं?

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राजस्थान में 25 नवंबर को वोटिंग होनी है. (प्रतीकात्मक तस्वीर)
राजस्थान में 25 नवंबर को वोटिंग होनी है. (प्रतीकात्मक तस्वीर)

राजस्थान हाईकोर्ट ने एक सरकारी डॉक्टर को विधानसभा चुनाव लड़ने की इजाजत दे दी है. हाईकोर्ट ने ये भी कह दिया है कि अगर वो चुनाव हार जाता है तो दोबारा ड्यूटी ज्वॉइन कर सकता है. 

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दीपक घोघरा नाम के सरकारी डॉक्टर ने चुनाव लड़ने की इजाजत मांगी थी. दीपक भारतीय ट्राइबल पार्टी (BTP) के टिकट पर डुंगरपुर सीट से चुनाव लड़ रहे हैं. वो बीटीपी के प्रदेश अध्यक्ष वेलाराम घोघरा के बेटे हैं.

राजस्थान में 25 नवंबर को वोट डाले जाएंगे. इस चुनाव में बीटीपी ने 17 उम्मीदवार उतारे हैं. इनमें दो डॉक्टर हैं. घोघरा के सामने बीजेपी के बंसीलाल कटारा और कांग्रेस गणेश घोघरा खड़े हैं. 

घोघरा इस चुनाव में लड़ना चाहते थे, लेकिन सरकारी डॉक्टर होने की वजह से कानूनन ऐसा मुमकीन नहीं था. पर अब हाईकोर्ट ने उन्हें चुनाव लड़ने की इजाजत दे दी है. 

हारे तो फिर ड्यूटी ज्वॉइन कर सकेंगे दीपक

राजस्थान हाईकोर्ट के जस्टिस पुष्पेंद्र सिंह भाटी ने चुनाव लड़ने की इजाजत देते हुए साफ कर दिया कि अगर दीपक हार जाते हैं तो वो दोबारा ड्यूटी ज्वॉइन कर सकते हैं.

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दीपक ने दावा किया कि राजस्थान में ये इस तरह का पहला मामला है जब सरकारी डॉक्टर को हाईकोर्ट ने चुनाव लड़ने और हारने पर दोबारा ड्यूटी ज्वॉइन करने की अनुमति दी है.

दीपक डुंगरपुर के जिला अस्पताल में पोस्टेड हैं. उन्होंने बताया कि वो 10 साल से डुंगरपुर में हैं और यहां के लोग उन्हें अच्छे से जानते हैं. उन्होंने यहां से अपनी जीत का भी दावा किया.

क्या सरकारी नौकरी वाले चुनाव नहीं लड़ सकते?

सरकारी अफसर या कर्मचारियों के न सिर्फ चुनाव लड़ने, बल्कि किसी भी तरह की राजनीतिक गतिविधि में शामिल होने तक पर रोक है.

केंद्र सरकार के अफसरों और कर्मचारियों पर सेंट्रल सिविल सर्विसेस (कंडक्ट) रूल्स, 1964 के तहत चुनाव लड़ने पर रोक है. इसमें नियम 5 में ये प्रावधान किया गया है. इसके तहतः-

- कोई भी सिविल सर्वेंट किसी भी राजनीतिक पार्टी या संगठन का न तो हिस्सा होगा, न ही राजनीति से जुड़ेगा और न ही किसी तरह से किसी राजनीतिक आंदोलन या गतिविधि से जुड़ेगा.

- ये हर सरकारी कर्मचारी की जिम्मेदारी है कि वो अपने परिवार के सदस्य या सदस्यों को किसी राजनीतिक आंदोलन या गतिविधि में शामिल नहीं होने देगा. अगर फिर भी ऐसा होता है तो सरकारी कर्मचारी को इस बात की जानकारी सरकार को देनी होगी.

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- कोई भी सरकारी कर्मचारी किसी भी राजनीतिक व्यक्ति के लिए न तो प्रचार करेगा और न ही अपने प्रभाव का इस्तेमाल करेगा.

राज्य सरकार के कर्मचारियों पर क्या नियम?

जिस तरह से केंद्र सरकार के अफसरों और कर्मचारियों के चुनाव लड़ने या राजनीतिक गतिविधि में शामिल होने की मनाही है, उसी तरह राज्य सरकार के कर्मचारियों और अफसरों के लिए भी यही नियम है.

राज्य सरकार के अफसर या कर्मचारी भी न तो चुनाव लड़ सकते हैं और न ही किसी तरह की राजनीतिक गतिविधि में शामिल हो सकते हैं. इसके लिए हर राज्य के अलग-अलग सिविल रूल्स हैं.

कोई भी सरकारी कर्मचारी राजनीतिक रैली में भी शामिल नहीं हो सकता. अगर किसी राजनीतिक रैली में उसकी ड्यूटी लगती है तो वो वहां न तो भाषण दे सकता है, न ही नारे लगा सकता है और न ही पार्टी का झंडा उठा सकता है.

फिर क्या तरीका है?

साफ है कि कोई भी सरकारी अफसर या कर्मचारी पद पर रहते हुए तो चुनाव नहीं लड़ सकता. वो तभी चुनाव लड़ सकता है जब या तो उसने पद से इस्तीफा दे दिया हो या फिर रिटायर हो गया हो.

हालांकि, कभी-कभी अदालतें पद पर रहते हुए भी चुनाव लड़ने की इजाजत दे देती हैं. जैसा कि दीपक घोघरा के मामले में हुआ.

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कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर हुई थी. इसमें मांग की गई थी कि रिटायरमेंट या इस्तीफे के तुरंत बाद सरकारी अफसर या कर्मचारी को चुनाव लड़ने की मंजूरी न दी जाए. रिटायरमेंट या इस्तीफे और चुनाव लड़ने के बीच कुछ गैप होना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को खारिज कर दिया था.

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