अयोध्या में श्रीराम की प्राण प्रतिष्ठा के बाद श्रद्धालुओं की लंबी कतारें लगनी शुरू हो चुकीं. राम लला की प्रतिमा के बारे में दावा किया जा रहा है कि ये हजारों सालों तक सुरक्षित रहेगी. लेकिन जिस मंदिर में लाखों-करोड़ों भक्त आने वाले हैं, उसकी सेफ्टी के क्या इंतजाम हैं? क्या होगा अगर साथ में बहती सरयू नदी ने कभी अपना रास्ता बदल लिया? जानिए, मंदिर निर्माण के दौरान इसके लिए क्या बंदोबस्त किया गया है.
कई फीट नीचे तक रेतीली जमीन
अयोध्या नगरी सरयू नदी के किनारे बसी हुई है. मंदिर बनाने की तैयारी के दौरान इंजीनियरों को जमीन से कई फीट नीचे तक भुरभुरी मिट्टी मिलती रही. ये अपने-आप में बड़ी समस्या थी क्योंकि इससे नींव ही कमजोर हो सकती थी. इसके अलावा एक डर ये भी था कि आगे चलकर कुछ सदियों या दशकों में नदी ने अपना रास्ता मोड़कर मंदिर की तरफ कर लिया तो क्या होगा.
इस डर की वजह भी है
दरअसल सरयू ने पहले भी करीब 5 बार रास्ता बदला है. नदियों का रास्ता बदलना कोई अजूबी बात नहीं. लगभग सारी ही नदियां समय-समय पर अपना रास्ता बदलती रहती हैं. इसकी वजह किनारों पर या बीच में मौजूद बड़े पत्थर या किसी भी तरह का भारी जमाव होता है. कई बार रुकावट के चलते नदी कई धाराओं में बंट जाती है. भारत में कोसी नदी को सबसे ज्यादा बार अपना रास्ता बदलने के लिए जाना जाता है. अब तक रिकॉर्डेड साक्ष्य में ये 33 बार रूट बदल चुकी.
श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ ट्रस्ट के जनरल सेक्रेटरी चंपत राय भी ISRO के हवाले से कह चुके कि अतीत में इस नदी ने करीब 5 बार अपना रूट बदला है. पैटर्न को देखते हुए हो सकता है आने वाले 5 सौ सालों में एक बार फिर ये हो जाए. ये विनाशकारी न हो, इसका ध्यान मंदिर बनाते हुए रखा गया.
इस तरह बनी नींव
नीचे रेतीली मिट्टी की वजह से पहले टेंपल एरिया की खुदाई करके 15 मीटर तक की मिट्टी हटा दी गई. इसके बाद वहां खास तरह की मिट्टी पाटी गई. इसके ऊपर लगभग डेढ़ मीटर तक मेटल-फ्री कंक्रीट राफ्ट रखा गया, जिसपर कर्नाटक से आया 6 मीटर मोटा ग्रेनाइट पत्थर रखा गया. इतना सबकुछ केवल नींव की मजबूती के लिए हुआ.
मजबूत दीवार खड़ी की गई
तकनीकी विशेषज्ञों ने बहुत गहराई से होमवर्क करने के बाद वो डिजाइन बनाया जो नदी के रास्ता बदलने या भूकंप जैसी आपदा में भी श्रीराम मंदिर को प्रोटेक्ट कर सके. मंदिर के चारों ओर एक रिटेनिंग वॉल तैयार की गई, यानी जो इमारत को रिटेन कर सके. ये कंक्रीट की बेहद मजबूत दीवार है, जो मंदिर के ऊपर और जमीन के नीचे भी उसे सुरक्षित रखेगी.
अलग-अलग मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो वॉल जमीन के भीतर करीब 12 मीटर लंबी और सरफेस से ऊपर की ओर 11 मीटर की है. इसमें ग्रेनाइट के पत्थर लगे हुए हैं क्योंकि वो पानी को बेहतर तरीके से सोखते हैं.
लोहे का इस्तेमाल नहीं
करीब 2.7 एकड़ में फैले मंदिर परिसर को बनाते हुए एक-एक बात का ध्यान रखा गया ताकि बड़ी से बड़ी कुदरती आपदा में भी वो सुरक्षित रह सके. मंदिर का मुख्य भवन 57 हजार स्क्वायर फीट में फैला हुआ है. तीन मंजिल के इस भवन, खासकर फाउंडेशन में रत्तीभर भी लोहे का इस्तेमाल नहीं हुआ. ऐसा इसलिए कि मौसम, पानी से लोहे की मजबूती कम होती जाती है. यहां तक कि सबसे बढ़िया क्वालिटी का आयरन भी 100 साल से कम उम्र तक रहता है.
जॉइंट्स में सीमेंट और चूना गारा का उपयोग नहीं हो रहा है. सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट इसपर कह चुका है कि मंदिर का तिमंजिला स्ट्रक्चर इस तरह का है कि वो 2,500 सालों तक भूकंपरोधी रहेगा.
नागर शैली को चुना गया
मंदिर निर्माण से पहले बहुत से कंप्यूटर मॉडल बनाए गए ताकि पक्का हो सके कि सबसे मजबूत डिजाइन क्या हो सकेगा. फिर नागर शैली को चुना गया. उत्तर भारत में मंदिर निर्माण का ये स्टाइल अपनी खूबसूरती के अलावा मजबूती के लिए जाना जाता है.
नागर शैली में मंदिर बनाते हुए कुछ खास बातों का ध्यान रखा जाता है. जैसे इसमें मुख्य इमारत ऊंची जगह पर बनी होती है. इसपर ही गर्भगृह होता है, जहां मंदिर के मुख्य देवी या देवता की पूजा होती है. गर्भगृह के ऊपर शिखर, और चारों तरफ प्रदक्षिणा पथ होता है. साथ में कई और मंडप होते हैं, जिनपर देवी-देवताओं या उनके वाहनों, फूलों की नक्काशी बनी होती है. मध्यप्रदेश का कंदरिया महादेव टेंपल, कोणार्क और मोढेरा के सूर्य मंदिर प्राचीन नागर शैली में ही बने हैं. इनकी मजबूती और सौंदर्य आज भी बरकरार है.